उत्तराखण्ड को लेकर ही सही इन दिनों राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मीडिया में जनता दरबार सुर्खियों में है। उत्तराखण्ड सरकार के जनता दरबार में वहां के मुख्यमंत्री द्वारा एक शिक्षिका के साथ किये गए व्यवहार ने मुगलकालीन राजदरबार की याद ताजा कर दी। जबकि उक्त शिक्षिका अपनी नौकरी से संबंधित एक समस्या के साथ मुख्यमंत्री के पास आई थी। वह भी तब जब दो दशक तक अधिकारी उनकी समस्या का समाधान नहीं कर पाए। उत्तराखण्ड सरकार की तरह ही कई प्रदेशों में वहां की सरकारें जनता दरबार लगाती हैं। कई बार इन जनता दरबारों में विवाद हो चुका है, पर उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री जितना चर्चित कोई दूसरा जनता दरबार नहीं हुआ।
शायद यही कारण है कि एक अन्तरराष्ट्रीय न्यूज पोर्टल ने उक्त जनता दरबार की तुलना मुगल शासकों के राज दरबार से कर दी। मुगल शासक अकबर पर आधारित हिन्दी में बनी एक फिल्म ‘मुगले आजम’ के दृश्य को सामने रखता हुआ वह न्यूज पोर्टल लिखता है, ‘जिस तरह ‘मुगले आजम’ फिल्म में बादशाह ए हिंदुस्तान जिल्लेसुबहानी जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर बने पृथ्वीराज कपूर ने भरे दरबार में अनारकली नाम की कनीज को दीवार में जिंदा चिनवा देने का हुक्म फरमाया था, उत्तराखण्ड के जिल्लेसुबहानी त्रिवेंद्र सिंह रावत ने ठीक उसी अंदाज में एक शिक्षिका के लिए भरे दरबार में ऐलान किया- ‘सस्पेंड करो इसे, कस्टडी में ले लो!’ फर्क सिर्फ इतना है कि अनारकली को दीवार में चिनवाने का दृश्य सोलहवीं शताब्दी के अकबरी दरबार का था। मगर उत्तराखण्ड के नए ‘मुगल’ त्रिवेंद्र सिंह रावत का हुक्म 21 वीं शताब्दी के दूसरे दशक में हमारी आंखों के सामने जारी किया गया।’ एक अन्तरराष्ट्रीय न्यूज पोर्टल का छोटे से प्रदेश की सरकार पर इतना गंभीर आरोप लगाना भी बड़ी बात है। लेकिन यहां जनता दरबार के नाम पर देश भर की सरकारों और जनता के बीच बढ़ती दूरियों की चर्चा करते हैं।
भारत को दुनिया का सबसे बड़े लोकतंत्र की उपाधि दी गई है। लोकतंत्र में जनता अपना प्रतिनिधि चुनती है। पंचायत से लेकर विधानसभा और संसद तक जनता के चुने प्रतिनिधि होते हैं। मंत्री ही नहीं मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री भी आमजन के प्रतिनिधि होते हैं। इसलिए लोकतंत्र में मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री का राज नहीं बल्कि जनता का राज होता है। लेकिन वास्तव में है, पूरा उल्टा। प्रतिनिधि ही आमजन पर राज करने लगा है। राज करते-करते वह राजा बन गया है। तभी तो प्रायः जनता दरबार में लोगों का गुस्सा और विवाद बढ़ता जा रहा है। कई मुख्यमंत्रियों के जनता दरबार में हंगामा हो चुका है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के दरबार में एक नाराज फरियादी ने चप्पल से हमला कर दिया था। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के जनता दरबार में इतना हंगामा मचा कि उसके बाद उन्होंने दरबार लगाना ही बंद कर दिया था। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर एक फरियादी ने जबरन बाहर निकालने का आरोप लगाया। उत्तराखण्ड में एक मंत्री के दरबार में एक व्यवसायी ने सबके सामने जहर खा लिया। ये कुछ ऐसे उदाहरण हैं जो स्पष्ट करते हैं कि जनता दरबार में विवाद होते रहते हैं।
बहुत से मुख्यमंत्री जनता के लिए दरबार सजाते हैं। कुछ समाजशास्त्रियों का मानना है कि ये जनता दरबार लोगों की समस्या दूर करने से ज्यादा अपने को कøपानिधान साबित करने के लिए होते हैं। कुछ राजनीतिक विश्लेषक इन्हें लोगों से सीधे जुड़ने का मौका के रूप में देखते हैं। जो उनके द्वारा प्रायोजित होता है। उधर जनता को यह लगता है कि दरबार उसके लिए लगा है। जब कहीं सुनवाई नहीं होगी तो जनता दरबार में उसकी सुनी जाएगी और राहत भी मिलेगी।
दरबार जनता नहीं लगाती। मुख्यमंत्री, मंत्री लगाता है। इसलिए वहां व्यवस्थाएं भी उन्हीं के मुताबिक होती हैं। दरबार लगाने वालों के इर्द-गिर्द कड़ी सुरक्षा व्यवस्था रखी जाती है। वह इसलिए कि कहीं उनकी व्यवस्था या राज से त्रस्त व्यक्ति उन पर हमला न कर दे। जबकि लोक प्रशासन से लेकर प्रबंधन की क्लास में पढ़ाया जाता है कि नागरिक या कर्मचारी की शिकायत को तसल्ली से सुना जाए। समस्याग्रस्त व्यक्ति का आधा दुख उनकी समस्या सुन लेने भर से दूर हो जाता है। फिर मंत्री-मुख्यमंत्री लोगों की समस्या क्यों नहीं सुनते होंगे। कुछ लोगों का मानना है कि वह युग अलग था जब जनप्रतिनिधियों को जनता की समस्या का पता नहीं चल पाता था जब तक कि वह आमने-सामने होकर बतियाते नहीं थे। आज के आधुनिक और टैक्नोलॉजी के जमाने में जनता अपनी शिकायत ऑन लाइन दर्ज करा सकती है। कई राज्य सरकारों ने इसके लिए पोर्टल भी बनाए हैं। मगर सब सिर्फ दिखावा भर है। प्रधानमंत्री मोदी ने भी लोगों की समस्या और सुझाव भेजने के लिए ‘नमो एप’ बनाया है। प्रधानमंत्री कार्यालय इस पर सक्रिय भी दिखता है। लेकिन शिकायत सुनने और जानने से ज्यादा उसे दूर करने की जरूरत है। इसलिए सरकार को ऐसी व्यवस्था बनानी चाहिए, जिसमें समस्या के साथ-साथ उसे दूर होने की जानकारी भी उपलब्ध हो।
‘सामंती सोच का प्रतीक’
वरिष्ठ पत्रकार अरुण खरे से बातचीत
क्या लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता दरबार जरूरी है?
जनता दरबार नाम की कोई चीज होनी नहीं चाहिए। खासकर दुनिया के सबसे बड़ा लोकतंत्र कहलाने वाले अपने देश में। दरबार शब्द अपने आप में सामंती सोच को दर्शाता है। दरबार तो राजाओं का हुआ करता था। जिसमें उनके दरबारी होते थे और प्रजा सिर झुकाए और डरी-सहमी अपनी समस्या रखती थी। लोकतंत्र में मुख्यमंत्री, मंत्री हमारे प्रतिनिधि होते हैं, हमारे राजा नहीं। लेकिन वे जनता दरबार में राजा जैसा ही व्यवहार करते हैं। जनता दरबार में मुख्यमंत्री और मंत्री राजा, अधिकारी ‘दरबारी’ की तरह होते हैं। जनता प्रजा की तरह सिर झुकाए रहती है। यही तो राजतंत्र था। राजीव गांधी, इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री रहते लोगों से मिलती थी। उन्होंने उसका नाम जनता दरबार भी नहीं दिया था और न ही वे राजा की तरह मंच पर बैठती थीं। उस दौरान लोग मैदान में इक्ट्ठा रहते थे। नेता उनके बीच जाते थे। मिलते थे। वहीं पर लोग अपनी समस्या उनसे बताते थे। उसमें राजा और प्रजा जैसा कुछ आभास नहीं होता था। मगर आज तो लगभग हर प्रदेश, खासकर उत्तर भारत के राज्यों के मुख्यमंत्री और मंत्री जनता दरबार के आदी हो चुके हैं। जो अनुचित है।
टैक्नोलॉजी के इस युग में जनता दरबार का क्या औचित्य है?
यह आपने सही कहा। आज तो लगभग हर सरकार ने शिकायत को लेकर पोर्टल बनाया हुआ है। कई लोग ऑन लाइन भी शिकायत कर रहे हैं। इसे और मजबूत किया जा सकता है। मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों को एक निश्चित समय पोर्टल पर देना चाहिए। वहां वह अपने अधिकारियों के साथ बैठें और वहां आने वाली शिकायत पर अपने सामने समाधान करें। यह कम खर्चीला और तेज गति से काम करने वाला साधन है। इसमें किसी के साथ कोई बदतमीजी भी नहीं होगी।
जनता दरबार में मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों का तानाशाही जैसा व्यवहार क्यों होता जा रहा है?
मैं किसी घटना विशेष की बात नहीं करूंगा। लेकिन यह भी सही है कि सरकार के सामने विपक्ष भी होता है। कई बार विपक्ष जनता दरबार में ऐसा माहौल प्रायोजित करता है, जिससे बात बढ़े और सरकार की किरकिरी हो। मतलब कई बार जानबूझकर वहां विवाद पैदा किया जाता है। कई बार जनता में सरकार के प्रति लोगों में आक्रोश होता है, जो जनता दरबार में निकलता है। पत्रकारों को यह ध्यान देना चाहिए कि जनता दरबार कितना देर चला और उसमें कितने लोगों की समस्या सुनी गई।
‘समस्या समाधान के लिए जरूरी’
पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं भाजपा प्रवक्ता शहनवाज हुसैन से संवाद
लोकतंत्र में जनता दरबार की जरूरत क्यों है?
जब आपका परिवार बड़ा होगा और आपके पास परिवार के सभी सदस्यों से मिलने का वक्त नहीं होगा, ऐसे में आप सभी सदस्यों की बात सुनने के लिए एक व्यवस्था बनाएंगे। वह व्यवस्था कोई भी हो सकती है। राज्य सरकारों ने भी अपनी जनता से मिलने के लिए जनता दरबार की व्यवस्था बनाई है। दूर-दराज के लोग समस्या लेकर जनता दरबार में आते हैं। मैंने कई बार देखा है, जिनका कई सालों से काम नहीं हो रहा था, उनका जनता दरबार में काम हो गया। इसमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। हां, आप जनता दरबार की प्रक्रिया पर सवाल उठा सकते हैं। यदि उसकी प्रक्रिया में कोई कमी है तो उसे ठीक भी किया जा सकता है।
पर दरबार तो राजाओं का प्रजा के लिए लगता था?
मेरे समझ से आपकी आपत्ति नाम पर है। यदि नाम पर आपत्ति है तो आप कोई भी नाम रख लें या सरकारों को सुझाएं। सरकार को सही लगता है तो वे उसे इस्तेमाल कर सकते हैं।
मेरी आपत्ति नाम पर नहीं वहां की पूरी व्यवस्था पर है। आप जनता दरबार की तस्वीर देखें। सिंहासननुमा मंच पर मुख्यमंत्री और मंत्री बैठे हैं, अधिकारी उनके दरबारी की तरह अगल-बगल बैठते हैं। यही तस्वीर तो राजाओं के दरबार की होती थी?
आप जनता दरबार की तस्वीर जिस तरह दिखा रहे हैं, वह सही तस्वीर नहीं है। मुख्यमंत्री और मंत्री जनता के बीच में होते हैं। उनसे मिलते हैं और समस्या पूछते हैं। कई बार मंत्री लोग गांवों, जिलों में जाकर लोगों से मिलते हैं। उनकी समस्या सुनते हैं और वहीं समाधान का आदेश देते हैं। हां, कई बार सुरक्षा कारणों से जनता को थोड़ा दूर बैठाया जाता है।
क्या जनप्रतिनिधियों को अपनी जनता से ही खतरा होने लगा?
खतरा जनता से नहीं है। जनता तो बहुत भोली-भाली और सीधी होती है। मगर कुछ अराजक तत्व वहां पहुंचकर व्यवस्था को खराब करने की कोशिश करते हैं। सुरक्षा उन अराजक तत्वों के लिए होती है। हां, यह सही है कि उसका खमियाजा जनता को उठानी पड़ती है।
जनता दरबार में प्रवेश के लिए सुरक्षा कर्मियों को घूस तक देनी पड़ती है?
यह सही नहीं है। यदि कहीं ऐसा हुआ है तो वह गलत है। जनता दरबार लगाने वाले नेताओं और अधिकारियों को इस पर ध्यान देना चाहिए। ताकि जनता दरबार में सभी पहुंच सकें।