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Editorial

‘मित्र मेला’, ‘अभिनव भारत’ और सावरकर

पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-10

वर्ष 1857 के गदर बाद अंग्रेज शासित भारत में बहुत  कुछ, बहुत तेजी से बदलने लगा था। ईस्ट इंडिया कंपनी को भारत की शासन व्यवस्था से अलग कर ब्रिटिश साम्राज्य ने राजकाज को सीधे अपने हाथों में ले लिया। ब्रिटिश सरकार ने सत्ता को सीधे अपने हाथों में लेने के लिए भारत सरकार का अधिनियम-1858 (Government of India Act-1858) लागू करा और 1, नवंबर, 1858 को ब्रिटेन की महारानी क्वीन विक्टोरिया ने एक लिखित आदेश के जरिए भारतीयों को आश्वासन दिया कि ब्रिटिश सरकार उन्हें अपने नागरिकों के समान सभी अधिकार देगी। 1857 के गदर को स्वतंत्रता का पहला संग्राम भी कहा जाता है हालांकि इस विद्रोह के कारणों में ईस्ट इंडिया कंपनी के राज में गुलाम भारत के नागरिकों की दुर्दशा, राजे-रजवाड़ों और नवाबों की सत्ता गंवाने से लेकर धार्मिक भावनाओं के आहत होने जैसे कई मुद्दे शामिल थे। ब्रिटिश सरकार की सीधी हुकूमत लागू होने के साथ ही यह विद्रोह शांत हो गया लेकिन इस विद्रोह के दौरान एक साथ मिलकर लड़ने वाले हिंदू और मुसलमानों के मध्य खाई एक बार फिर से गहराने लगी। ‘गौ रक्षा आंदोलन’ ने इस खाई को गहराने का काम किया। 1860 में पंजाब के नामधारी सिखों ने गाय के मांस को खाए जाने के खिलाफ आवाज उठानी शुरू कर दी थी जिसका मुसलमानों ने विरोध किया था। यह आंदोलन धीरे-धीरे मजबूत होता चला गया। इसी दौर में दयानंद सरस्वती ने 1876 में वैदिक धर्म में सुधारों के लिए ‘आर्य समाज’ की नींव रखी। महर्षि दयानंद हिंदू धर्म ने व्याप्त कुरीतियों और अंधविश्वास के खिलाफ आर्य समाज के जरिए बड़ा सुधारवादी आंदोलन चलाने लगे थे। गौवध के खिलाफ आर्य समाज ने देश व्यापी जनजागृति अभियान इस काल में शुरू किया था। 1893-1894 में इस मुद्दे को लेकर हिंदू-मुस्लिम दंगे शुरू होने लगे। गौवध के साथ- साथ हिंदू त्यौहारों के दौरान बड़े स्तर पर आयोजित कार्यक्रमों में तेज आवाज में भजन गायन भी हिंदू-मुसलमान के मध्य तकरार का कारण बनने लगा था। ब्रिटिश हुकूमत ने इन विवादों में सीधे हस्तक्षेप करने से बचते हुए यह व्यवस्था लागू कर दी कि ‘मुसलमान अपनी मस्जिदों में नमाज अदा करने के लिए स्वतंत्र हैं लेकिन उनकी इबादत से दूसरों को परेशानी नहीं होनी चाहिए, ठीक इसी प्रकार हिंदू अपने त्यौहारों में भजन इत्यादि गाने के लिए स्वतंत्र हैं लेकिन तभी तक जब तक उनका संगीत दूसरों के लिए कष्ट का कारण न बने। (‘The right of praying in their mosque must be seured to Muhammadans so long as their prayers are not a nuisance to others, and the Hindus may be allowed to accompany their processions with music so long as their music is not a nuisance to others; but whenever it becomes a nuisance, it ought, the judges think, to be prohibited-bombay sadar fauzdari court-1859’) तिलक ने सरकार की इस मुद्दे पर जमकर निंदा अपने समाचार पत्रों में की। गणेश उत्सव को धूमधाम से मनाने की शुरुआत इसी समय काल में तिलक द्वारा की गई थी। नौ-दस बरस के बालक सावरकर की नजरों में तिलक का दर्जा एक महानायक का बनने लगा था। इतिहासकार विक्रम संपत अपनी हालिया प्रकाशित पुस्तक ‘Savarkar, Echoes from a forgotton past’ में लिखते हैं कि सावरकर के मन में घोर हिंदुत्व की भावना बचपन से ही घर करने लगी थी।
 
 
सावरकर का मानना था कि मुस्लिम एकजुट समाज है जबकि हिंदू नाना प्रकार की जातियों, उपजातियों में बंटा होने के कारण संगठित नहीं है। सावरकर को यह भी लगने लगा था कि इस अनेकता के चलते ही मुसलमान हिंदुओं को आसानी से दबा पाता है। गणेश उत्सव के बाद तिलक ने 1896 से ‘शिवाजी महोत्सव’ भी बड़े स्तर पर आयोजित करने शुरू कर दिए। बालक विनायक दामोदर सावरकर पर इसका गहरा असर पड़ा। तिलक से प्रेरणा लेकर सावरकर और उनके मित्रों ने भागुर में शिवाजी जयंती धूमधाम से आयोजित करी। तब सावरकर की उम्र मात्र तेरह बरस की थी।
 
1896-97 में प्लेग (Plague) महामारी ने पूरे देश में आतंक पैदा कर डाला। अंग्रेज शासक इस महामारी की रोकथाम सही तरीकों से कर पाने में सर्वथा विफल रहे। सरकार ने इस महामारी की रोकथाम के लिए एक विशेष कानून ‘महामारी रोग अधिनियम’ (Epidemic Diseases Act-1897) 1897 में बनाया। इस कानून के अंतर्गत महामारी की रोकथाम के लिए सरकार को असीमित अधिकार दे दिए गए। ब्रिटिश अफसर वाल्टर चार्ल्स रैंड को स्पेशल प्लेग ऑफिसर बना इस महामारी को रोकने की कमान दी गई। रैन्ड की कार्यशैली खासी निर्मम थी। उसने घर-घर जाकर सर्च ऑपरेशन शुरू करे। बीमारों को अलग -थलग करने, घरों की तलाशी के दौरान महिलाओं, बच्चों से बदतमीजी करने की खबरों ने भारतीयों को खासा उद्वेलित और उत्तेजित करने का काम किया। बाल गंगाधर तिलक ने सरकार की इस नीति की कठोर शब्दों में मुखालफत शुरू कर दी। पुणे में विशेष रूप से रैंड की कार्यशैली चलते खासा रोष पैदा होने लगा था। 22 जून 1897 को रैंड और उसके एक सहयोगी की गोली मारकर हत्या कर दी गई। हत्याकांड को अंजाम दिया था पुणे निवासी दो भाइयों दामोदर हरि चिपलांकर और बालकृष्ण हरि चिपलांकर ने। 18 अप्रैल, 1898 को दामोदर हरि और अगले वर्ष 8 मई, 1899 को बालकृष्ण फांसी पर लटका दिए गए थे। इस घटना ने ब्रिटिश सत्ता के साथ-साथ भारतीय जनमानस को गहरा प्रभावित करने का काम किया। विनायक दामोदर सावरकर ने चिपलांकर भाइयों का यशोगान करते हुए एक नाटक ‘वीरश्रीयुमता’ तक लिखा। हालांकि तिलक ने इस हत्याकांड की निंदा की थी लेकिन उन्हें राजद्रोह के आरोप में ब्रिटिश पुलिस ने गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इस गिरफ्तारी का कड़ा विरोध दर्ज कराया लेकिन 14 सितंबर 1897 को एक अदालत ने तिलक को दोषी करार देते हुए 18 माह कारावास की सजा सुना दी। यह तिलक को मिली पहली सजा था। आने वाले समय में उन्हें राजद्रोह के जुर्म में दो बार और गिरफ्तार किया गया जिसमें से एक मामले में उन्हें बर्मा जेल में छह बरस तक कैद रहना पड़ा था।
 
 
सावरकर परिवार का प्लेग के चलते भागुर छोड़ नासिक जाना विनायक दामोदर सावरकर के जीवन में बड़ा बदलाव लेकर आया। असली ‘राष्ट्रवादी क्रांतिकारी धारा’ में उनका प्रवेश नासिक से ही हुआ। 1, जनवरी, 1900 को सावरकर ने अपने कुछ मित्रों के साथ मिलकर ‘मित्र मेला’ नाम से एक संस्था की नींव रखी जिसका उद्देश्य सामाजिक कार्यक्रमों के जरिए ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंच बना, ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ जनमानस तैयार करना था। इस समय सावरकर की उम्र मात्र सत्रह बरस की थी। ‘मित्र मेला’ ने शिवाजी और गणेश उत्सवों के बहाने अपने जनजागरण को व्यापक रूप देना शुरू किया। बाल गंगाधर तिलक के उग्र तेवरों से प्रभावित युवक सावरकर ‘मित्र मेला’ के कार्यक्रमों के बहाने अंग्रेज व्यवस्था के खिलाफ जनजागरण का काम करने लगे। 1904 में सावरकर ने इस संस्था का नाम बदलकर ‘अभिनव भारत’ कर दिया था। जल्द ही ‘अभिनव भारत’ का विस्तार नासिक से बाहर बॉम्बे प्रेसिडेंसी (अब महाराष्ट्र) के अन्य शहरों में हो गया। डेक्कन कॉलेज, पुणे के छात्र जीवनराम भगवानदास कृपलानी भी इस संस्था से कुछ अर्सा तक जुड़े थे। आगे चलकर आचार्य कृपलानी के नाम से इन्होंने इतिहास में अपना नाम दर्ज कराया। 1906 में बाल गंगाधर तिलक को ‘अभिनव भारत’ ने अपने एक कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के बतौर आमंत्रित किया। तिलक संग हुई मुलाकात में सावरकर और उनके साथियों ने सशर्त क्रांति की संभावनाओं पर तिलक संग बातचीत की। तिलक ने इन अति उत्साहित युवकों की संयम बरतने और सही समय का इंतजार करने की सलाह दी। बहुत से इतिहासकारों की राय में सावरकर की सलाह मान कर ही बाल गंगाधर तिलक ने 1905 में बंगाल के विभाजन के विरोध में विदेशी समान के बहिष्कार का आह्नान किया जो खासा सफल रहा था। ‘अभिनव भारत’ को विस्तार देने का काम सावरकर और उनके साथियों ने युद्ध स्तर पर किया। उन्होंने अपनी विचारधारा से मेल खाने वाले देश भर में सक्रिय अन्य संगठनों संग भी संबंध बनाने शुरू किए जिसका एक मात्र उद्देश्य एकजुट होकर ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ सशस्त्र क्रांति करना था।
 
नासिक के बाद वकालत की पढ़ाई करने विनायक सावरकर बॉम्बे (अब मुंबई) चले आए थे। यहां भी उनका पूरा ध्यान ‘अभिनव भारत’ की गतिविधियों को संचालित करने और उसका विस्तार करने में केंद्रित रखा। 1906 में सावकर को इग्लैंड में वकालत की पढ़ाई करने के लिए छात्रवृत्ति मिल गई और जुलाई, 1906 में वे इग्लैंड पहुंच गए। यहां पर भी अपनी वकालत की पढ़ाई के साथ-साथ ‘अभिनव भारत’ के विस्तार ओर प्रसार का काम सावरकर ने पूरी शिद्दत से जारी रखा। वे इग्लैंड में रह रहे कई ऐसे भारतीयों के संपर्क में आए जिनके भीतर भी राष्ट्रवाद की प्रचंड ज्वाला धधक रही थी। इनमें लाला हरदयाल, मैडम भीकाजी कामा, मदन लाल धीगड़ा जैसे राष्ट्रवादी शामिल थे। लाला हरदयाल और मदन लाल धीगड़ा ‘अभिनव भारत’ में सावरकर के कहने पर शिमल हुए थे। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की ‘राष्ट्रवादी क्रांतिकारी धारा’ में इन दो क्रांतिकारियों के योगदान का हमेशा स्मरण किया जाता है। धीगड़ा जब इग्लैंड में अध्ययन कर रहे थे तब उन्होंने एक ब्रिटिश अधिकारी विलियम हट कर्जन वायसी की गोली मार कर हत्या कर दी थी जिस चलते उन पर लंदन में मुकदमा चला और 17 अगस्त 1909 के दिन उन्हें फांसी पर लटका दिया गया था। लाला हरदयाल ने लंबे अर्से तक इग्लैंड, पेरिस, अल्जीरिया देशों में रहकर सर्शत क्रांति की जमीन तैयार करने का काम किया। 1912 में वे अमेरिका चले गए थे जहां उन्होंने ‘गदर पार्टी’ का गठन किया था। विनायक सावरकर के विचारों ने मैडम भीमाजी कामा को भी इतना प्रभावित किया  कि वे भी ‘अभिनव भारत’ का हिस्सा बन गईं। कांग्रेस के दिग्गज नेता और उसके अध्यक्ष रहे दादाभाई नौरोजी की निजी सचिव मैडम कामा का नाम उग्र क्रांतिकारी विचारधारा के उन नेताओं में शामिल हैं जो ब्रिटिश सत्ता को सशस्त्र क्रांति के जरिए उखाड़ फेंकना चाहते थे। धनी पारसी परिवार में जन्मी भीखाजी रुस्तमजी कामा को ‘भारतीय क्रांतिकारियों मां’ कह पुकारा जाता था।

क्रमशः

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