राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के मुख्यालय जाने का निर्णय पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को एक बार फिर राष्ट्रीय सुर्खियों में ले आया। शायद ही इससे पहले कभी भारत के किसी पूर्व राष्ट्रपति को इतना मीडिया कवरेज मिला हो प्रणब मुखर्जी से पूर्व प्रतिभा देवी सिंह पाटिल पूरे पांच बरस इस पद पर रहीं। आज वे कहां और किन हालात में हैं, इस पर कहीं कोई चर्चा तक नहीं होती। लेकिन प्रणब मुखर्जी के इस एक निर्णय ने ना केवल उन्हें राष्ट्रीय चर्चा का केंद्र बिन्दु बना डाला, बल्कि यह भी तय है कि उनकी यह यात्रा आने वाले कई बरसों तक याद की जाएगी। मुखर्जी का निर्णय कइयों को बेहद नागवार गुजरा तो कुछेक ने उनकी इस पहल को सराहा भी। हालांकि उनके संघ मुख्यालय जाने से पूर्व, वहां उनके संभावित भाषण और कार्यक्रम निपट जाने के बाद, बहुतों ने बहुत कुछ इस मुद्दे पर लिख डाला है, मैं समझता हूं उनकी इस यात्रा का निरपेक्ष भाव से आकलन कम ही किया गया है। विचाराधाओं के बोझ से दबकर यदि किसी प्रसंग पर टिप्पणी की जाए तो उसका पूर्वाग्रहों से ग्रसित होना तय है। इसलिए मैं प्रयास कर रहा हूं उनकी इस यात्रा पर अपनी बात बगैर किसी पूर्वाग्रह के कहने की। पर इस यात्रा पर चर्चा से पहले कुछ बात प्रणब मुखर्जी की। बहुत कम शायद जानते होंगे कि प्रणब मुखर्जी राजनीति में आने से पूर्व पोस्ट एण्ड टेलीग्राफ विभाग, कलकत्ता में लोवर डिविजन क्लर्क यानी कनिष्ठ लिपिक हुआ करते थे। 1963 में उन्होंने इस नौकरी को छोड़ 24 दक्षिण परगना जिले के एक कॉलेज में राजनीति शास्त्र के प्राध्यापक की नौकरी की। बाद में वे एक स्थानीय बंगला समाचार पत्र ‘देशहर डाक’ के संवाददाता भी रहे। इस दौरान 1969 में बंगाल की मिदनापुर लोकसभा सीट के लिए उपचुनाव हुआ। जवाहरलाल नेहरू के अत्यंत करीबी रहे वीके कृष्ण मेनन ने इस चुनाव को बतौर निर्दलीय प्रत्याशी लड़ा और भारी मतों से कांग्रेस के प्रत्याशी को हरा डाला। प्रणब मुखर्जी ने इस चुनाव में कृष्ण मेनन के लिए काम किया था। यहीं से उनके राजनीतिक सितारे बुलंद हो गए। कांग्रेस में अपनी पकड़ मजबूत कर चुकी तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मुखर्जी के भीतर छिपी प्रतिभा को पहचान उन्हें ना केवल कांग्रेस में शामिल कराया, बल्कि उसी वर्ष राज्यसभा का सदस्य भी बना डाला। मुखर्जी ने फिर कभी पलट कर नहीं देखा। वे इंदिरा गांधी के अत्यंत विश्वस्त सलाहकार बन गए। 1973 में उन्हें इंदिरा मंत्रिमंडल में बतौर उप रक्षामंत्री शामिल कर लिया गया। आपातकाल के दौरान हुई ज्यादतियों के लिए जनता सरकार द्वारा गठित शाह आयोग ने मुखर्जी को भी दोषी माना था। प्रणब दा इंदिरा गांधी की सत्ता वापसी के बाद 1982 में वित्त मंत्री बनाए गए। उनके इस पद पर रहते हुए ही मनमोहन सिंह को रिजर्व बैंक का गवर्नर बनाया गया था। इंदिरा गांधी की नृशंश हत्या के तुरंत बाद जब उनके उत्तराधिकारी की चर्चा कांग्रेस भीतर उठी तो प्रणब मुखर्जी ने अपना दावा पेश कर दिया। यह उनकी बड़ी राजनीतिक भूल थी जिसकी कीमत उन्हें राजीव गांधी शासनकाल में कांग्रेस के भीतर पूरी तरह उपेक्षित किए जाने और 1986 में पार्टी छोड़ने पर मजबूर हो चुकानी पड़ी। बाद में वे फिर वापस कांग्रेस में लौटे और नरसिम्हा राव सरकार में विदेश मंत्री बने। सोनिया गांधी संग मुखर्जी ने सौहार्दपूर्ण रिश्ते बनाए जिसके फलस्वरूप यूपीए सरकार के दस बरसों में वे ना केवल वित्त, रक्षा और विदेश मंत्रालय के मंत्री रहे, बल्कि सोनिया गांधी के सबसे विश्वसनीय सलाहकार बन कर उभरे। 2012 में कांग्रेस ने उन्हें राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बना देश का तेरहवां राष्ट्रपति बना दिया। प्रणब मुखर्जी ऐसे दौर में राष्ट्रपति बने जब दक्षिणपंथी भाजपा प्रचुर बहुमत के साथ केंद्र की सत्ता में काबिज हुई। इतना ही नहीं भाजपा ने 2014 के बाद अपनी जीत के परचम को पूरे देश में विस्तार दिया। ऐसे में प्रणब मुखर्जी ने अपने पूरे कार्यकाल को विवादों से दूर रखा। वे पूरी तरह से रूल बुक प्रेसिडेंट बन कर रहे। हालांकि उत्तराखण्ड में हरीश रावत सरकार को बर्खास्त करने के मामले में सहमति को लेकर उनकी आलोचना भी हुई। प्रधानमंत्री मोदी संग प्रणब मुखर्जी के रिश्तों की गर्माहट का जिक्र स्वयं पीएम कई मर्तबा कर चुके हैं। कुल मिलाकर मुखर्जी का राष्ट्रपतिकाल गरिमापूर्ण रहा और उन्होंने व्यर्थ के विवादों से स्वयं को बचा कर रखा। अब आते हैं उनके राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यक्रम में भाग लेने पर। इसके दो पहलू हैं। पहला है विचारों में घोर भिन्नता के बावजूद क्या संवाद स्थापित करना गलत है? और दूसरा प्रणब मुखर्जी के संघ के कार्यक्रम में चले जाने भर से उनकी संपूर्ण वैचारिक प्रतिबद्धता खतरे में पड़ जाती है? आज के समय का सबसे बड़ा संकट यही है कि हम अपने विरोधियों के विचार को सुनने तक तैयार नहीं। ऐसी कट्टरता के मूल में हमारा अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता में इस कदर बंध जाना है कि हम स्वयं को श्रेष्ठ मानने की भूल कर बैठते हैं। यही कारण है कि हम अपने से विपरीत विचारों को सुनना तक नहीं चाहते। यह भी एक प्रकार की असहिष्णुता है। मुझे याद है साहित्यकार-संपादक राजेंद्र यादव ने एक बार ‘हंस’ के वार्षिक कार्यक्रम में पूर्व पुलिस अधिकारी विश्वरंजन और दक्षिण पंथी विचारक गोविंदाचार्य को बतौर वक्ता आमंत्रित कर लिया था। राजेंद्र जी को इस पर भारी विरोध का सामना करना पड़ा। उनके वामपंथी मित्रों को विश्वरंजन और गोविंदाचार्य को उपस्थिति को लेकर बड़ी आपत्ति रही। विश्वरंजन छत्तीसगढ़ पुलिस के मुखिया रह चुके हैं। उन्होंने माओवाद-नक्सलवाद के खिलाफ बड़ी मुहिम का नेतृत्व किया था। उनके आलोचकों का मानना रहा है कि बतौर पुलिस प्रमुख उन्होंने माओवादियों के खिलाफ दमनचक्र चलाया। गोविंदाचार्य की दक्षिणपंथी सोच के चलते उनका भी विरोध ‘हंस’ के मंच पर आने को लेकर किया गया। कुछ ऐसे ही अनुभव हमें भी अपनी साहित्यक पत्रिका ‘पाखी’ द्वारा रायपुर में आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान हुए। हमारा विरोध मात्र इसलिए किया गया क्योंकि विश्वरंजन को एक वक्ता के तौर पर वहां आमंत्रित किया गया था। यह बौद्धिक असहिष्णुता नहीं तो ओर क्या है? यहां यह समझा जाना बेहद जरूरी है कि हमारे सशस्त्र बल ऐसे प्रभावित क्षेत्रों में अपनी जान जोखिम में डाल देश की सम्प्रभुता बचाए रखने का काम कर रहे हैं। यह सही है कि हमारे सुरक्षा बलों द्वारा मानवधिकारों का यदि हनन किया जाता है तो उसकी कठोर शब्दों में निंदा की जानी आवश्यक है। यदि हमारी सेना पर पूर्वोत्तर के राज्यों में मानवाधिकारों के उल्लंघन का आरोप लगता है तो सेना और सरकार को दोषी के खिलाफ कठोरतम कार्यवाही करनी ही चाहिए, लेकिन यदि रमजान के महीने में जब सीज फायर लागू हो एक अर्द्धसैनिक बल की गाड़ी पर कश्मीर में हमला बोला जाता है तो भी हमारे विद्वान मित्र सैन्य बलों को ही दोषी मानते हैं जो घोर निंदनीय है। दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में देश के टुकड़े-टुकड़े कर देंगे जैसे नारे लगते हैं तब भी या तो ऐसे पृथकवादी नारेबाजों का समर्थन किया जाता है या फिर एक वर्ग विशेष चुप्पी साध अपना समर्थन ऐसी ताकतों को देता है। नक्सली हिंसा में जब सैन्य बलों के जवान लैड़ माइन के जरिए या फिर आत्मघाती दस्तों के द्वारा मार डाले जाते हैं तब एक भी सहानुभूति का स्वर इन शहीदों के लिए नहीं बोला जाता। यही वह वैचारिक कट्टरता है जो पूर्व राष्ट्रपति के संघ मुख्यालय में जाने को लेकर भारी सवाल खड़ा कर देती है। प्रणब मुखर्जी संघ के कार्यक्रम में गए। उन्होंने वहां जाने से पूर्व अपनी शर्तें भी रखी। पूर्व राष्ट्रपति के प्रोटोकाल अनुसार उनका भाषण अंतिम संवाद रहा। यदि वे संघ प्रमुख को, जैसा संघ का नियम है, अंतिम वक्ता बनाने के आग्रह को मान लेते तो संकट था। संघ प्रमुख प्रणब मुखर्जी के कथन की काट अवश्य करते जो निश्चित ही संघ के पक्ष में जाता। ऐसा लेकिन राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी प्रणब मुखर्जी ने होने नहीं दिया। उन्होंने बहुत ही संतुलित और सधे हुए अपने वक्तव्य में संघ को सर्वधर्म सम्भाव और भारतीय संस्कृति के गंगा-जमुनी होने की नसीहत दे डाली। मुखर्जी ने अपने बाइस मिनट के संबोधन में संघ के कार्यकर्ताओं को बार-बार स्मरण कराया कि हम बहुधर्म प्रधान देश हैं, जहां सच्चा राष्ट्रवाद हिंदू, मुस्लिम, सिख एवं अन्य धर्मों को मानने वालों के विचारों को अपनाकर ही आ सकता है। अपने भाषण के अंत में प्रणब मुखर्जी ने संघ कार्यालय में आने का न्यौता स्वीकार करने पर उनकी आलोचना करने वालों को भी सटीक संदेश दिया। उन्होंने कहा ‘We may argue, agree, dis-agree, may not agree… but we can not deny the essential prevalence of multiplicity of opinion’। यही हमारी सबसे बड़ी धरोहर है। विचारों में भिन्नता के बावजूद एक सशक्त लोकतंत्र।
रही बात उन आशंकाओं की कि प्रणब मुखर्जी की इस यात्रा का संघ किसी न किसी प्रकार लाभ लेने का प्रयास अवश्य करेगा तो मैं स्वयं इससे आशंकित हूं। सोशल मीडिया के इस दौर में सच गायब है, भ्रम का मायाजाल हावी है। प्रणब मुखर्जी की पुत्री शर्मिष्ठा मुखर्जी के भाजपा में जाने का झूठ इसका पहला उदाहरण है। पूर्व राष्ट्रपति की फोटोशॉप तकनीक का इस्तेमाल कर फर्जी तस्वीरें जिनमें वे संघ को पोशाक पहने नजर आ रहे हैं आदि सब इस झूठ का हिस्सा हैं। शर्मिष्ठा ठीक कहती हैं कि कुछ ही समय बाद उनके पिता ने क्या कहा इसे भुला दिया जाएगा। फर्जी तस्वीरों के जरिए यह भ्रम फैलाया जाएगा कि प्रणब मुखर्जी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के समर्थक हैं। ठीक वैसे ही जैसे नेहरू, फिरोज गांधी, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की बाबत नाना प्रकार के झूठ फैलाए जाते रहे हैं। प्रणब मुखर्जी की इस संघ मुख्यालय में यात्रा के बाद ऐसा बहुत कुछ होगा लेकिन इस डर मात्र से हम अपने विपरीत विचारधारा को सुनने तक से इंकार कर दें तो इससे बड़ी इंटॉलरेंस कुछ नहीं। मेरी दृष्टि में पूर्व राष्ट्रपति का वहां जाना एक सही कदम था। उनका भाषण बहुत सारगर्भित था। ऐसे माहौल में जब हम अपने से मतभेद रखने वालों के विचार सुनने तक को ना राजी हो, महात्मा गांधी का कथन खासा महत्वपूर्ण हो जाता है- ‘असहिष्णुता अपने आप में एक प्रकार की हिंसा है जो सच्चे लोकतांत्रिक मूल्यों के विकास में बड़ी बाधा बन जाती है।’