मेरी बात
बदलाव प्रकृति का नियम है। समय हमेशा एक समान नहीं रहता। व्यक्ति के लिए भी और समाज के लिए भी। जिस प्रकार ठहरा हुआ पानी गंधला और बहता हुआ पानी स्वच्छ रहता है, ठीक उसी प्रकार विचारों और मान्यताओं में जड़ता व्यक्तिगत और सामाजिक प्रदूषण का कारण बन जाती है। इस प्रदूषण से मुक्ति का उपाय है हर प्रकार की जड़ता से स्वयं को दूर रखना और नवीन विचारों को सुनने, मंथन करने और उन्हें स्वीकारने की क्षमता स्वयं में और समाज में पैदा करने का प्रयास करना।
अप्रैल, 8, 2023 के ‘दि इंडियन एक्सप्रेस’, अंग्रेजी दैनिक में पूर्व राजनायिक विवेक काटजू का एक आलेख ‘माई डॉक्टर एंड हर पार्टनर’ (My daughter and her partner) इसी दिशा में उठाया गया एक साहसपूर्ण कदम है जिसके लिए मैं विवेक काटजू को सलाम भेजता हूं। काटजू कश्मीरी पंडित हैं, भारतीय विदेश सेवा में उच्च पदस्थ अधिकारी रह चुके हैं और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी कैलाश नाथ काटजू के परिवार से आते हैं। कैलाश नाथ काटजू नेहरू मंत्रिमंडल में गृह एवं रक्षा मंत्री रहे थे। 1957 में वे मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बनाए गए थे। उनके बेटे ब्रह्मनाथ काटजू इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश थे। विवेक काटजू इन्हीं ब्रह्मानंद काटजू के पुत्र हैं। एक प्रतिष्ठित किंतु परंपरावादी परिवार से आने वाले विवेक काटजू ने ‘दि इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित अपने आलेख में उन्होंने सच लिखने का साहस किया है जिसे आज 21वीं शताब्दी में भी हमारे समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता है, पाप की संज्ञा दी जाती है और संस्कृति पर हमला करार दिया जाता है। काटजू ने अपनी पुत्री के समलैंगिक संबंधों की बाबत अपने इस लेख में खुलकर अपने विचारों को सामने रखने का साहस किया है। उन्होंने यह ईमानदारी से स्वीकारा है कि जब उनकी बेटी अरुंधति ने उन्हें और उनकी पत्नी को यह बताया कि वह समलैंगिक है और अपनी एक सहेली मेनका से प्रेम करती है तो उन्हें बेहद आघात लगा था। वे लिखते हैं ‘मुझे आघात इसलिए लगा क्योंकि समलैंगिकता मेरे संस्कारों के खिलाफ थी। उस रात मैं रोया था।’ दोनों पति-पत्नी इस सच को आसानी से स्वीकार नहीं कर पाए। यह ऐसा मुद्दा था जिसमें किसी अन्य की राय लेने का साहस दोनों में नहीं था। काटजू ने स्वीकारा है कि बतौर विदेश सचिव जब उन्हें मंत्रालय के प्रोटोकॉल प्रमुख ने यह बताया कि कई ऐसे देश जहां समलैंगिक शादियों को कानूनी दर्जा प्राप्त है, चाहते हैं कि उनके राजनायिकों के समलैंगिक पार्टनर को भारत में एक परिवार के रूप में मान्यता दी जाए तो उनका जवाब नकारात्मक था। वे लिखते हैं कि ‘मुझे ऐसे लोगों से कोई सहानुभूति नहीं थी। मैंने अपने सहयोगी को स्पष्ट कहा कि हम भारतीय कानून के तहत स्वीकार्य परिवार की परिभाषा अनुसार ही काम करेंगे।’ काटजू ने तब शायद कल्पना तक नहीं की होगी कि एक दिन उन्हें इस प्रश्न से अपने परिवार भीतर ही दो-चार होना पड़ेगा। बेटी द्वारा बताए जाने बाद काटजू दंपति सकते में आ गए। उन्होंने अपनी मां व परिवार के अन्य सदस्यों से इस राज को लंबे अर्से तक छिपाए रखा। वे कहते हैं कि आज उन्हें लगता है कि उन्होंने अपनी मां से इस बात को गलत छिपाया। भगवत गीता पर असीम श्रद्धा रखने वाली उनकी मां शायद कठिन समय में उन्हें सही मार्ग दिखा देती। समय लगा लेकिन विवेक काटजू ने अपनी सोच बदली। आज वे अपनी बेटी पर फर्क महसूस करते हैं जिसने समलैंगिक समुदाय के हकों के लिए कानूनी लड़ाई लड़ी जिसका नतीजा 2018 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 377 को असंवैधानिक करार देते हुए समलैंगिक संबंधों को मान्यता देने के रूप में सामने आया। विवेक काटजू लिखते हैं- ‘Geeta and I were in the Supreme Court when it handed down the section 377 judgement in 2018. We had tears in our eyes as the Court up held the right to equality of people of different sexual orientations. Later Arundhati and Menaka’s contribution was recognised by many in India, especially among the young, as well as in different parts of the world. They become to our surprise and, of course, joy, part of Time magazine’s 100 most influential people for the year 2019…The journey has made me a better person and a better Hindu because, for me, especially now, the essence of my great faith is to shun dogma and accept as equal, in the truest sense of the term, life and orientations and love and unions in their infinite varieties and forms’ (गीता और मैं सुप्रीम कोर्ट में ही थे जब कोर्ट ने धारा 377 की बाबत अपना फैसला सुनाया। हमारी आंखों में आंसू आ गए जब कोर्ट ने विभिन्न यौन झुकाव वाले लोगों के समानता के अधिकार को बरकरार रखा। बाद में अरुंधति और मेनका के योगदान को भारत में, विशेषकर युवाओं द्वारा सराहा गया। साथ ही विश्व के विभिन्न इलाकों में भी उन्हें पहचान मिली। हमारे लिए आश्चर्य और निःसंदेह खुशी का कारण रहा 2019 में ‘टाइम’ मैगजीन द्वारा उन्हें विश्व के 100 सबसे प्रभावशाली लोगों की सूची में शामिल करना….इस यात्रा ने मुझे एक बेहतर व्यक्ति और बेहतर हिंदू बना दिया है क्योंकि मेरे लिए, विशेष रूप से अब, मेरे महान विश्वास का सार हठधर्मिता से दूर रहना और पूरी ईमानदारी से जीवन की विधिता और प्रेम को उसके हर रूप में स्वीकार करना है।)
धारा 377 को असंवैधानिक करार दिए जाने की यात्रा सरल नहीं थी। समाज बदलाव को आसानी से नहीं स्वीकारता है। फिर चाहे वह सती प्रथा हो, बाल विधवा विवाह का मुद्दा हो, अस्पृश्यता हो या फिर तीन तलाक की बात हो, रूढ़िवादिता हमेशा से ही बदलाव का विरोध करती है। धारा 377 ब्रिटिश काल की देन है जिसके अनुसार ‘प्रकृति के नियमों के विपरीत की जाने वाली हर यौन क्रिया’ अपराध की श्रेणी में 1861 में लागू की गई थी। 2009 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने समलैंगिक संभोग (गे-सेक्स) को आपराधिक श्रेणी से बाहर करने का ऐतिहासिक निर्णय सुनाया जिसे 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट के फैसले का तब धर्म गुरुओं और राजनेताओं ने एक स्वर में समर्थन किया था। योग गुरु रामदेव ने समलैंगिता को बीमारी बताते हुए योग के जरिए इसका इलाज किए जाने की बात कही थी। भाजपा नेता राजनाथ सिंह, योगी आदित्यनाथ, समाजवादी पार्टी के रामगोपाल यादव समेत कई राजनेताओं ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा धारा 377 को बनाए रखने का स्वागत करते हुए समलैंगिकता को अप्राकृतिक और अनैतिक करार दिया था। जनवरी 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर पुनर्विचार याचिका स्वीकार कर दोबारा सुनवाई की। 6 सितंबर, 2018 को तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय खण्ड पीठ ने धारा 377 को असंवैधानिक करार देते हुए समलैंगिक यौन संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर रख दिया। इस पीठ में वर्तमान मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ भी शामिल थे। इस बार लेकिन मुख्य राजनीतिक दलों ने कोर्ट के फैसले पर अपने सुर मध्यम या फिर समर्थन के रखे। भाजपा प्रवक्ता शायन ए.ली . ने पार्टी का पक्ष रखते हुए कहा था कि ‘भाजपा समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर रखे जाने की पक्षधर है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने तो 2013 में ही समलैंगिकता के पक्ष में अपनी बात सामने रख दी थी। उन्होंने इसे निजी पसंद का मामला करार देते हुए संवैधानिक संरक्षण दिए जाने पर तब जोर दिया था। 2017 में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने भी इसे अपराध की श्रेणी से बाहर रखने की बात कह डाली थी। संघ के वरिष्ठ नेता दत्तात्रेय होसबोले ने तब कहा था ‘अपराधीकरण भी नहीं, लेकिन महिमामंडन भी नहीं’ (No criminalisation, but no glorification either)। जनवरी 2023 में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने समलैंगिक समुदाय के अधिकारों पर कहा कि इस समुदाय का भी समाज में अपना एक दायरा होना चाहिए और संघ इस नजरिए को बढ़ावा देगा। भागवत ने ‘पांचजन्य’ पत्रिका को दिए गए साक्षात्कार में यह भी कहा कि ‘ये हमेशा यहां रहे हैं। इन लोगों को भी जीने का अधिकार है। बिना किसी हो-हल्ला के हम मानवीय दृष्टिकोण के साथ एक रास्ता निकाल चुके हैं ताकि इन्हें सामाजिक स्वीकार्यता मिल सके। हम इसमें कोई समस्या नहीं देखते।’
समलैंगिकता को संघ परिवार का समर्थन मिलना या फिर इतना भर स्वीकारना कि इसे अपराध की श्रेणी में न रखा जाए, वैचारिक तल पर बड़े बदलाव की तरफ इशारा करता है जो स्वागत योग्य है।
प्रसिद्ध चीनी दार्शनिक लाओ त़्जू़ का कथन इस दृष्टि से खासा महत्वपूर्ण है। बकौल लाओ त़्जू़ -‘मनुष्य अपने जन्म के समय कोमल और मुलायम होता है और मृत्यु के समय कठोर और निष्प्राण जो यह स्थापित करता है कि जीवन का अर्थ कोमलता और मुलायमियत से है। किसी भी प्रकार की कठोरता मृत्यु समान है।’
क्रमशः