तिवारी जी के पार्थिव शरीर पर फूल चढ़ाते समय जो भाव मन-मस्तिष्क में उमड़े-घुमड़े उन्हें आप सबसे साझा कर रहा हूं ताकि एनडी तिवारी को और उनके मुख्यमंत्रित्वकाल (उत्तराखण्ड) को जैसा मैंने देखा-पाया, उसके बरक्क इस युग पुरुष के व्यक्तित्व का निष्पक्ष आकलन हो सके। यूं उनसे पहली मुलाकात 1989 के आस-पास हुई थी जब वे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। यह लेकिन एक शिष्टाचार भेंट मात्र थी। न तो तब तक मैंने पत्रकारिता में प्रवेश लिया था, न ही मन में ऐसा कोई विचार था। मात्र एक जिज्ञासा थी जिसके चलते मैं उनसे मिलने लखनऊ स्थित मुख्यमंत्री कार्यालय अपने एक रिश्तेदार के साथ लग लिया था। एनडी तिवारी जी से असल परिचय 2002 में उनके उत्तराखण्ड का पहला निर्वाचित मुख्यमंत्री बनने के बाद हुआ जो आगे चलकर घनिष्ठता में बदल गया। जैसा इस अखबार का चरित्र है, सत्ता के साथ हमारा ताल-मेल बैठ नहीं पाता। तिवारी सरकार संग भी हमारा मोहभंग एक साल के भीतर-भीतर हो गया। एनडी उस समय रात-दिन एक कर उत्तराखण्ड के औद्योगिक विकास का खाका तैयार कर रहे थे। साथ ही राज्य के इन्फ्रास्ट्रक्चर को मजबूत बनाने की बड़ी जिम्मेदारी भी उनके कंधों पर आन पड़ी थी। राजनीतिक मोर्चे पर भी प्रतिदिन उन्हें एक नई समस्या से जूझना होता था। कांग्रेस यद्यपि पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में थी लेकिन एनडी के पास अपने ही विधानदल का समर्थन नहीं था। उनको मुख्यमंत्री तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के निर्देश पर बनाया गया था जिसका भरपूर विरोध नवनिर्वाचित विधायकों ने किया जो हरीश रावत को मुख्यमंत्री देखना चाहते थे। तिवारी सीएम तो बन गए लेकिन हरीश रावत समर्थकों ने उन्हें लगातार घेरे रखा। इसे समयचक्र की महिमा कहें या फिर राजनीति में निजी महत्वाकांक्षा का असर। तब जो हरीश रावत के अंधे भक्त माने जाते थे। जिन्होंने नारायण दत्त तिवारी के खिलाफ पूरे पांच साल मोर्चा खोले रखा। आज वे ही हरीश रावत के घोर विरोधी बन चुके हैं। तिवारी सरकार के दो मंत्री प्रीतम सिंह जो वर्तमान में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष हैं और किशोर उपाध्याय ऐसे रावत समर्थकों के अगुवा तब हुआ करते थे। आज दोनों के ही संबंध अपने नेता संग संवादहीनता के स्तर तक बिगड़ चुके हैं। बहरहाल तिवारी मंजे-घिसे राजनेता थे। उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री बनने से पहले वे तीन बार उत्तर प्रदेश जैसे विशाल राज्य के सीएम और केंद्र सरकार में वित्त, विदेश और उद्योग मंत्रालयों की जिम्मेदारी का निर्वहन कर चुके थे। उन्हें पता था सत्ता सुख का लालच क्या होता है। अपनी कुर्सी बचाए रखने के लिए उन्होंने इसका इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। यहीं से इस अखबार का तिवारी मोह कम होने लगा। हमारे समाचार सरकार विरोधी स्वर लिए शुरू हुए जो आगे चलकर तिवारी विरोध में बदल गए। तिवारी जी के समय से ही राज्य में मीडिया मैनेजमेंट की नींव रखी जाती हमने देखी। बड़े दैनिक समाचार पत्रों को लाखों के विज्ञापन एनडी तिवारी सरकार के खिलाफ कुछ भी लिखने से रोकने का कारक बने। जनसरोकारों की बात करने का जिम्मा हम सरीखे साप्ताहिक-पाक्षिक समाचार पत्रों पर आन पड़ा। एनडी ने अपने विरोधियों को साधने की नीयत से सरकार निगमों-समितियों के पद सृजित करने और उन पर राजनीतिक लोगों को बैठाने से की। इन पदों के साथ कैबिनेट अथवा राज्यमंत्री का दर्जा और अन्य सुविधाएं जुड़ी थी। पहले-पहल मंत्री न बन सके विधायकों को तिवारी जी ने इन पदों पर सुशोभित किया। अपने कार्यकाल के अंतिम चरण तक पहुंचते-पहुंचते उन्होंने लगभग तीन सौ लालबत्तियों का वितरण कर डाला। ऐसे ऐसों को मंत्री पद दे दिया गया जिनकी समझ और राजनीतिक हैसियत ग्राम प्रधान तक बनने की नहीं थी। हमने लगातार इस पर तिवारी जी के खिलाफ लिखा। मुझे याद है मेरे इस घोर वित्तीय अनुशासनहीनता पर लिखे एक संपादकीय ‘इससे तो बेहतर आपका इस्तीफा होता’ को पढ़ एनडी खासे व्यथित हो गए। रात ग्यारह-बारह बजे के आस-पास उनका फोन आया। मुझे लगा कि वे अपनी नाराजगी व्यक्त करेंगे। मैं तैयार था उनसे बहस करने के लिए। तिवारी, जैसा मैंने कहा, वे मंझे हुए राजनेता थे।
उन्होंने मेरे लिखे को सराहा, बोले ‘आपने उत्तर प्रदेश का वित्तमंत्री रहते मैंने जो कुछ उत्तर प्रदेश विधानसभा में बोला था, उसका अच्छा अध्ययन किया है।’ फिर अपनी लाचारगी जताते हुए उन्होंने स्वीकार किया कि पार्टी में असंतुष्टों को संतुष्ट करने के लिए बहुत-कुछ ऐसा भी उनको करना पड़ रह है जो अवांछनीय है। यह एनडी का तरीका था अपनी नाराजगी को लाचारगी का मुस्लमा चढ़ा पेश करने का। इस अखबार में हल्द्वानी के ग्राम गौजाजाली में लगे एक स्टोन क्रशर से संबंधित समाचार प्रकाशित हुआ था। स्टोन क्रशर के चलते गांव वालों को भारी कष्ट का सामना करना पड़ रहा था। तमाम कायदे-कानूनों को ताक में रखकर इस क्रशर को लगाया गया था। हमारी खबर का सार यह था कि क्रशर के मालिक के तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष संग संबंधों के चलते यह सब हुआ है। मुझे संपादक होने के नाते तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष यशपाल आर्य की तरफ से विधानसभा सचिव ने अवमानना का नोटिस भेजा। अप्रत्यक्ष तरीके से यह हमारी आवाज कुंद करने का प्रयास था जिसका पुरजोर विरोध करते हुए मैंने स्पष्ट कर दिया कि न तो हम इस प्रकरण पर माफी मांगेंगे, न ही इस प्रकार की प्रवृत्ति का विरोध करने से पीछे हटेंगे। मामला बहुत गर्मा गया। यशपाल आर्य की मंशा मुझे विधानसभा में बुलाकर, अवमानना का दोषी मान, सजा देने की थी। उन्हें ऐसा करने की सलाह कांग्रेस नहीं, बल्कि भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने दी। ये नेता आज प्रदेश भाजपा के वरिष्ठतम नेताओं में एक हैं। एनडी तिवारी ने बगैर मेरे कहे इस पर हस्तक्षेप किया। उन्होंने दिल्ली स्थित उत्तराखण्ड निवास में एक बैठक बुलाई जिसमें यशपाल आर्य भी मौजूद थे। मैं अपनी बात में अड़ा रहा कि माफी नहीं मांगूंगा। तिवारी जी ने इसका समाधान यह निकाला कि विधानसभा के हर सत्र में मुझे पेश होने का नोटिस तो मिलता लेकिन मैं पेश नहीं होता। ऐसा करते-करते उस विधानसभा का कार्यकाल 2007 में समाप्त हो गया। साथ ही अवमानना प्रकरण भी। हमारा एक अन्य समाचार ‘लोकपाल को किया गुमराह’ नवंबर 2003 में प्रकाशित हुआ था। एनडी तिवारी ने इस पर एक स्पष्टीकरण हमें भेजा। उन्होंने इस संदर्भ में भी मुझसे दूरभाष पर वार्ता की। हमारे तेवर तिवारी सरकार के विरुद्ध तीखे होते गए किंतु एनडी तिवारी ने कभी भी इसको अन्यथा नहीं लिया। इस समाचार पत्र के तीखे तेवरों से बौखलाए कुछ लोगों से जब मुझे जीवन भय के समाचार एनडी तिवारी जी तक पहुंचे तो उन्होंने मुझे तत्काल पुलिस सुरक्षा उपलब्ध करा दी। यह वह समय था जब हम तिवारी सरकार की नीतियों का खुलकर विरोध कर रहे थे। सच यह भी कि उनके कार्यकाल में इस अखबार को सबसे ज्यादा विज्ञापन मिले। यह उनकी अनूठी कार्यशैली का या यूं कहिए लोकतांत्रिक मूल्यों पर गहरी आस्था का प्रतीक माना जा सकता है। या फिर हमारी धार कुंद करने का प्रयास। एनडी तिवारी ने ही उत्तराखण्ड के औद्योगिक विकास की नींव ‘सिडकुल’ का गठन करके रखी। आज ऊधमसिंह नगर और हरिद्वार जनपदों में देश-विदेश की बड़ी औद्योगिक इकाइयों का स्थापित होना उन्हीं की देन है। भले ही एक वर्ग तिवारी की इस नीति को नकारता रहे, इसमें शक की गुंजाइश नहीं कि उनके प्रयासों के चलते उत्तराखण्डवासियों को रोजगार के बड़े अवसर उपलब्ध हुए। हालांकि यह भी सच है कि तिवारी जी पहाड़ों में उद्योग को स्थापित करने, पहाड़ी कøषि को बढ़ावा देने की दिशा में खास कुछ नहीं कर पाए। यदि शिशु राज्य के लिए उनका फोकस हिमाचल प्रदेश की भांति पहाड़ों में स्वरोजगार को उपलब्ध कराने की तरफ रहता तो शायद आज हमारे पहाड़ खाली नहीं नजर आते। यह कहा जा सकता है कि सिडकुल के जरिए भले ही राज्य का औद्योगिक विकास हुआ, राजस्व में भारी वृद्धि हुई, पहाड़ हमारे वीरान होते चले गए। एनडी का ज्यादा समय कांग्रेस पार्टी के भीतर की नूरा-कुश्ती को संभालने में बीता। उन्होंने अपनी कुर्सी बचाने की खातिर राज्य को वित्तीय अनुशासनहीनता की तरफ धकेल दिया। 2004 आते-आते यानी मात्र दो वर्षों में ही तैंतीस करोड़ रुपया मुख्यमंत्री राहत कोष से बांट दिया गया था। हमने इन सबका जबर्दस्त प्रतिरोध बजरिए अपने समाचारों से किया। एनडी ने लेकिन इस विरोध का कभी विरोध नहीं किया। जब कभी उनसे भेंट होती अथवा देर रात गए उनका फोन आता तो राज्य से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर वे मेरी राय लेते। दो प्रसंग मुझे विशेष रूप से याद अभी आ रहे हैं। काशीपुर की मंडी समिति के सचिव की सेवा विस्तार को लेकर एक महिला कांग्रेसी नेता मुख्यमंत्री पर दबाव बना रही थी। मैं इत्तेफाकन उस वक्त तिवारी जी के संग बैठा था। मैंने उन्हें सलाह दी कि यह सेवा विस्तार ठीक नहीं क्योंकि बड़ी चर्चा है इस कार्य की एवज में मोटा पैसा दिया जाना तय हुआ है। तिवारी जी ने तुरंत उस प्रस्ताव को खारिज कर दिया। हालांकि बाद में उन्होंने उक्त महिला नेता को मेरा नाम बताते हुए जो कुछ मैंने उन्हें कहा था, बता डाला। नतीजा वह महिला मेरे से खासा खफा हो गई। एक अन्य प्रकरण में मैंने तत्कालीन आईटी सचिव के खिलाफ भय सबूत एक पत्र उन्हें सौंपा। मात्र एक दिन के भीतर उक्त सचिव को पद से हटा दिया है। एक मुद्दे पर अवश्य तिवारी जी से मेरी भिडंत हो गई। हमारे संवाददाता रूपेश कुमार को ऊधमसिंह नगर की पुलिस ने एक शाम उठा लिया। अवैध तरीके से उसे उठाने वाली पुलिस की नीयत में खोट था। रूपेश ने जल्दी-जल्दी में मुझे बताया कि ये पुलिस वाले उसका एन्काउंटर करने की नीयत से उसे एक गाड़ी में डाल ले जा रहे हैं। मैं हत्प्रभ रह गया। समझ में नहीं आया क्या करूं। हाबड़-ताबड़ में मैंने मुख्यमंत्री को फोन लगा डाला। तिवारी जी उस दिन कुछ उखड़े से थे। उन्होंने मेरी बात बगैर पूरी सुने ही कह डाला यह मेरे नहीं, थाने स्तर का मामला है। इसमें मैं क्या कर सकता हूं? मेरी इस पर उनसे बहस होने लगी। तिवारी जी क्रोधित हो गए। उन्होंने फोन पटक दिया। मैं हमेशा तत्कालीन कुमाऊं आयुक्त राकेश शर्मा जी का इस बात के लिए त्रृणी रहूंगा कि देर रात उन्होंने न केवल मेरी बात सुनी, बल्कि तत्काल एक्शन लेकर रूपेश की जान बचाने का काम किया। तिवारी जी का यह रुख मैं समझ नहीं पाया, आज तक। इसे आप एक शीर्ष राजनेता की संवेदनहीनता कह सकते हैं या फिर जिस प्रकार के मानसिक तनाव में वह उस दौर में थे, उसका असर। तिवारी जी के अंतिम दर्शन करते समय मैं ऐसी ढेर सारी यादों में खोया रहा मेरी उनके साथ इतनी यादें हैं कि एक पूरी पुस्तक बन जाए। काठगोदाम के सर्किट हाउस में एक बात जो मुझे बेहद खटकी, वह थी वहां मौजूद राजनेताओं से लेकर आम आदमी कोई भी शोकग्रस्त नजर नहीं आ रहा था। लग रहा था कि मानो किसी जलसे में शामिल होने लोग आए हों। नेताओं को मीडिया के आगे बयान देने और फोटो खिंचवाने की पड़ी थी तो जनता को नेताओं के सामने सेल्फी लेने की। बहरहाल तिवारी का समग्र मूल्यांकन यदि मैं करूं तो वे एक रोमांचक और सार्थक जीवन जीए। उत्तराखण्ड के ग्रामीण परिवेश से निकला एक युवक राष्ट्रीय -अंतरराष्ट्रीय ख्याति यदि अर्जित करता है तो निश्चित ही उसमें कोई विशेष बात, असाधारण योग्यता रही होगी। इसमें शक नहीं कि उनकी कुछेक कमजोरियों ने उन्हें वहां पहुंचने से रोक दिया, जिसके शायद वे हकदार थे। इस सबके बावजूद उन्होंने भारतीय राजनीति में अपनी छाप छोड़ने में सफलता पाई। इतिहास शायद उन्हें इसी दृष्टि से देखे।