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Editorial

किसे परवाह है इतिहास की

इतिहास बड़ा निर्मम होता है। उसे न तो तानाशाहों का डर रहता है, न ही सच से वह परहेज करता है। यह मैं नहीं कह रहा, स्वयं इतिहास इसे कहता है। बड़े-बडे़ तानाशाह आए। खुद को भगवान समझने की भूल की। अपनी मूर्तियां लगाई, अपने नाम के शहर बनाए। स्टेडियम बनाए। लेकिन आज जब हम इतिहास के पन्ने पलटते हैं तो उनकी गिनती भगवान तो छोड़िए, इंसानों के बतौर भी नहीं होती। एक नहीं अनगिनत उदाहरण हैं। हिटलर, मुसोलिनी, लाल क्रांति के नायक स्टालिन, सद्दाम हुसैन, इदी अमीन, पाॅट-पाॅट, आगस्तो, पिनयोट, चाल्र्स टेयलर इत्यादि। थोड़ा और पीछे जाएं तो चंगेज खान, तैमूर लंग, क्वीन मेरी, माओ तुंग से इत्यादि। मैं गिनते-गिनाते थक जाऊंगा, आप गिनते-गिनते। अफसोसजनक, हैरतनाक यह कि इतिहास से कोई सबक लेकिन लेता नहीं। शायद ऐसी प्रवृत्ति वालों का इतिहास बोध शून्य होता होगा। अन्यथा खुद की मूर्तियां लगाने, स्टेडियम बनाने से आज आते। आज इतिहास की निर्ममता का जिक्र सीबीआई के पूर्व निदेशक रंजीत सिन्हा के चलते हो आया। 16 अप्रैल को उनका मात्र 68 बरस की आयु में निधन हो गया। सिन्हा भारतीय पुलिस सेवा के 1947 बैच के अधिकारी थे। 2012 से 2014 तक सीबीआई के निदेशक रहते वे लगातार सुर्खियों में रहे। अब अपने निधन के बाद भी वे इन्हीं सुर्खियों के चलते याद किए जा रहे हैं। इतिहास की निर्ममता का संदर्भ उनके न रहने पर भी उनके विवादास्पद सीबीआई कार्यकाल का पोस्टमार्टम चलते है। सिन्हा का जन्म अविभाजित बिहार के जमशेदपुर में हुआ था। पढ़ाई उन्होंने भू विज्ञान की करी। लेकिन पेशा अपनाया पुलिस का। दैनिक ‘नवभारत टाइम्स’ ने उनकी मृत्यु पश्चात एक आलेख प्रकाशित किया ‘बिहार का वह आईपीएस अफसर जिसके चलते सीबीआई हुई बदनाम’। इस स्मृति-शेष में सिन्हा की बाबत मात्र एक लाइन पाॅजिटिव कही जा सकती है – ‘रंजीत सिन्हा ने समाज में अपराध को कम करने के लिए बतौर आईपीएस कई बड़े-बड़े कदम उठाए। उनके अच्छे ट्रैक रिकाॅर्ड को देखते हुए ही केंद्र सरकार ने उन्हें सीबीआई निदेशक और डीजी आईटीबीपी सहित कई अहम पदों की जिम्मेदारी सौंपी।’ अंग्रेजी दैनिक ‘दि हिंदुस्तान टाइम्स’ ज्यादा सहृदय रहा। सिन्हा के सीबीआई निदेशक के तौर पर विवादास्पद कार्याकाल का जिक्र करते हुए यह अखबार लिखता है ‘The Supreem Court called the CBI a “caged parrot” during Sinha’s tenure’  (सुप्रीम कोर्ट ने सिन्हा के सीबीआई निदेशक रहते इस संस्था की तुलना पिजड़े में बंद तोते से की थी)। अधिकतर समाचार पत्रों, न्यूज चैनलों में सिन्हा के साथ जुड़े विवादों का ही जिक्र आया है। बहुत कमों ने रांची, मधुबनी, सहरसा का पुलिस कप्तान रहते अपराध पर अंकुश लगाने के उनके अच्छे कार्यों को याद किया। 2005 में कश्मीर घाटी में सीआरपीएफ के पुलिस महानिरीक्षक रहते सिन्हा को कुछ लोग शांति स्थापित करने के लिए भी याद कर सकते हैं। भारत-पाकिस्तान के मध्य 2005 में शुरू की गई बस सेवा को आतंकियों की जद् से बाहर रखने में सिन्हा ने अपना योगदान दिया था। बतौर महानिदेशक इन्डो-तिब्बत बाॅर्डर पुलिस उन्होंने इस केंद्रीय सुरक्षा बल का आधुनिकीकरण किया। रेलवे प्रोटेक्शन फोर्स का महानिदेश रहे सिन्हा को इस फोर्स में विशेष कमांडो दस्ते बनवाने, बम निरोधक दस्ते बनाने और पूरी फोर्स के आधुनिकीकरण का श्रेय भी दिया जाता है। लेकिन जैसा मैंने शुरुआत में ही स्पष्ट किया, इतिहास किसी भी व्यक्ति का समग्र मूल्यांकन करते समय पूरी क्रूरता के साथ उसके सच को सामने लाता है। इसलिए सिन्हा के लंबे पुलिस करियर में जो कुछ उन्होंने सार्थक किया उसे इतिहास के गर्त में डाल, सिन्हा के स्मृति-शेष में उनके साथ जुड़े भ्रष्टाचार-अनाचार का जिक्र किया जा रहा है। सिन्हा 1996 से ही विवादों का केंद्र बनने लगे थे। तब बतौर ज्वाइंट डायरेक्टर सीबीआई सिन्हा पर लालू यादव के खिलाफ चारा घोटाले की जांच को प्रभावित करने का अरोप लगा था। न्यायालयों संग यह सिन्हा को पहली ‘मुठभेड़’ था। पटना हाईकोर्ट ने उन्हें इस केस से हटा दिया था। सिन्हा संग लालू यादव की निकटता का आलम यह था कि उन्हें सीबीआई से हटाए जाने के बाद बिहार भवन, नई दिल्ली में एक विशेष पद सृजित कर दिल्ली पोस्टिंग लालू यादव ने दे डाली थी। कालांतर में यही रंजीत सिन्हा सीबीआई के डायरेक्टर बना दिए गए। यहां आते ही पहला काम उन्होंने लालू यादव के खिलाफ चारा घोटाले की जांच कर रहे अफसरों का तबादला करने का काम किया। इस बार उन्हें सुप्रीम कोर्ट की नाराजगी मिली जिसने सभी ऐसे ट्रांसफर खारिज कर डाले थे। फिर कोयला घोटाले की सीबीआई जांच रिपोर्ट का मामला सामने आया। रंजीत सिन्हा ने इस जांच रिपोर्ट को तत्कालीन कानून मंत्री अश्विनी कुमार से साझा कर लिया था। सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में चल रही इस जांच रिपोर्ट को बगैर इजाजत कानून मंत्री को दिखाए जाने से कुपित कोर्ट ने तब सीबीआई की तुलना ‘पिंजरे’ में बंद तोते से कर डाली। एक जांच एजेंसी के लिए इससे ज्यादा शर्मनाक कुछ और हो नहीं सकता है। अश्विनी कुमार को इस्तीफा देना पड़ा और सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को तत्काल ऐसा कानून मंत्री बनाने के निर्देश दे डाले जिससे सीबीआई को सरकार के दबाव से मुक्त रखा जा सके। 2013 में ही रंजीत सिन्हा पर गुप्त रूप से तत्कालीन रेल मंत्री पवन बंसल के फोन टेप कराने का आरोप भी लगा था। पवन बंसल संग सिन्हा के रिश्ते बेहद खराब थे। कारण था रेलवे प्रोटेक्शन फोर्स का डीजी रहते उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की बंसल द्वारा जांच कराना। सीबीआई ने रेलवे में नियुक्तियों में भारी भ्रष्टाचार का पर्दाफाश किया जिसके चलते बंसल को इस्तीफा देना पड़ा था। मीट कारोबारी मोइन कुरैशी संग संबंधों के चलते भी रंजीत सिन्हा पर नाना प्रकार के आरोप सीबीआई निदेशक रहते लगे थे। केंद्रीय जांच एजेंसी ईडी का आरोप है कि मीट कारोबारी होने के साथ-साथ मोइन कुरैशी एक बड़ा हवाला डीलर भी है। रंजीत सिन्हा के घर पर रखी गई विजिटर एंट्री बुक से यह सामने आई थी कि मोइन कुरैशी संग सिन्हा ने 15 महीनों में सत्तर बार अपने घर में मुलाकात की थी। इस विजिटर बुक से ही यह भी पता चला था कि सिन्हा से ऐसे कई लोग मुलाकात करने आते थे जिसकी जांच सीबीआई कर रही होती थी।

एडोल्फ हिटलर का एक प्रसिद्ध कथन मुझे याद आ रहा है। हिटलर ने कहा था ‘जिस व्यक्ति को इतिहास की समझ नहीं वह बगैर आंख और कान वाला व्यक्ति है।’ इससे बड़ी त्रासदी और क्या हो सकती है कि इतिहास से सबक लेने की बात करने वाला स्वयं ऐसा करने से चूक गया और तानाशाह बन गया। आज इतिहास उसे एक क्रूर और दंभी के तौर पर भी याद करता है।

इतिहास कैसे किसी को याद रखेगा इसको लेकर एक प्रसंग आपसे साझा करता हूं। मेजर जनरल भुवन चंद्र खण्डूड़ी जी का पहला मुख्यमंत्रित्वकाल बेहद विवादास्पद रहा था। उनकी सरकार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे जिसके चलते उन्हें हटाकर डाॅ रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ को राज्य की कमान सौंपी गई थी। डाॅ निशंक ने खण्डूड़ी जी की सरकार पर लगे आरोपों से, इतिहास से कोई सबक लिया नहीं, नतीजा उनकी सरकार भी भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी सरकार में तब्दील हो गई। राज्य विधानसभा चुनावों से कुछ महीने पहले ही उनको हटा दोबारा खण्डूड़ी जी के हाथों भाजपा आलाकमान ने राज्य की बागडोर सौंप दी। यह सितंबर 2011 की बात है। इंडिया अगेंस्ट करप्शन के बैनर तले अन्ना हजारे एंड टीम आंदोलन देशभर में छा चुका था। टीम अन्ना संग मेरा गहरा नाता रहा है। उन्होंने इच्छा जताई कि जनरल खण्डूड़ी को राज्य में कठोर लोकायुक्त बनाने के लिए मैं तैयार करूं। जनरल साहब से मैंने जब बात की तो वे खास उत्साहित नजर नहीं आए। उन्होंने मुझसे पूछा क्यों? मेरा जवाब उन्हें हिट कर गया। मैंने कहा था ‘सर बतौर केंद्रीय मंत्री आपका कार्यकाल श्रेष्ठ रहा लेकिन बतौर सीएम उतना ही दागदार। अब आपको तय करना है कि इतिहास किस रूप में आपको याद रखे।’ खण्डूड़ी को बात समझ में आ गई। बाकी सब इतिहास है। उन्होंने मात्र कुछ ही महीनों में लोकायुक्त समेत कई कठोर कानून बना डाले। नतीजा भाजपा को भारी लाभ मिला। दोबारा उसकी सरकार बनते-बनते रह गई। इतिहास जनरल को लेकिन ऐसे सेनापति के बतौर याद रखेगा जिसने सार्वजनिक जीवन में सुचिता लाने के लिए अभूतपूर्व कदम उठाए। ठीक ऐसे ही इतिहास उन राजनेताओं का लेखा- जोखा सामने रखेगा जो आज सत्ता के मद में चूर हैं, जिनके बाहरी आवरण को सच मान भक्तों की भारी-भरकम फौज ताली-थाली आज उनके इशारे पर बजाती है। तमाम विसंगतियों को दरकिनार कर उनका गुणगान कर रही है। इतिहास ऐसा कतई नहीं करेगा। लेकिन इतिहास की परवाह भला है किसको?

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