[gtranslate]
Editorial

चीन के उकसावे पर आधारित है नेपाल का दावा

वर्ष 1950 में हुई मित्रता संधि का नेपाल में विरोध तत्काल ही शुरू हो गया था। 1960 में इसमें संशोधन कर एक नई संधि पर हस्ताक्षर किए गए। इसे हम ‘Trade and Immigration Treaty’ के नाम से जानते हैं। नेपाल ने इस नई संधि के बाद पाकिस्तान और चीन के साथ अपने व्यापारिक संबंध मजबूत करने शुरू कर दिए। नई संधि के अनुसार नेपाल किसी भी देश से अपनी जरूरत का समान आयात कर सकता था और इस समान पर भारत द्वारा कोई टैक्स नहीं लगाया जाना तय हुआ था। नेपाल ने पाकिस्तान के साथ भी ठीक ऐसी ही संधि कर डाली जिससे कि भारत पर उसकी निर्भरता कम हो सके। चीन के साम्राज्यवादी चरित्र के चलते भारत के पास कोई विकल्प था नहीं इसलिए पाकिस्तान से नेपाल के माल को बाघा बॉर्डर के जरिए बगैर टैक्स लाए जाने पर भारत को सहमत होना पड़ा। हालांकि 1965 के भारत-पाक युद्ध के बाद बॉर्डर पूरी तरह सील होने के चलते नेपाल को इसका लाभ नहीं मिल सका। 1971 में इस संधि में कुछ सुधार किए गए। 1971 से 1976 तक नेपाल संग हमारे रिश्ते बेहद मधुर थे। इंदिरा गांधी सरकार के बाद आई जनता पार्टी की सरकार ने नेपाल के साथ संबंधों को नई ऊंचाई तक पहुंचाने का प्रयास किया। उसने पांच नए रास्तों को नेपाल के लिए खोल दिया। अब कुल 15 भारतीय राजमार्गों से नेपाल का माल बगैर टैक्स जाने लगा। नेपाल को कोलकाता के साथ ही हल्दिया पोर्ट से भी माल मंगाने की छूट दे दी गई। इतना ही नहीं इन सभी रास्तों के जरिए नेपाली समान का निर्यात भी शुरू हो गया।

वर्ष 1989 और 2015 में बंद भारत-नेपाल बॉर्डर

 

23 मार्च 1989 तक हालात सामान्य रहे। इस दिन लेकिन संधि समाप्त होने के साथ ही मामला गड़बड़ाने लगा। भारत ने अपनी नीति में बदलाव करते हुए 15 स्थानों के बजाय केवल दो स्थानों रक्सौल और जोगबनी के जरिए ही नेपाल को सामान लाने ले जाने को कह डाला। नतीजा इन दो बॉर्डर चेक पोस्ट में भारी ट्रैफिक जाम होने लगा और नेपाली सामान से लदे ट्रक कई-कई दिन रूकने को मजबूर हो गए। नेपाल में भारत विरोधी नारे गूंजने लगे। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि दोनों देशों के मध्य शीतयुद्ध का माहौल बन गया। यह वह दौर था जब नेपाल में राजशाही का विरोध चरम पर पहुंच चुका था और भारत अपने हितों की रक्षा के नीयत से नेपाली राजपरिवार के संग खड़ा था। नेपाल ने चीन के रास्ते व्यापार शुरू किया लेकिन दुर्गम रास्तों और चीन से दूरी के चलते इसका खास लाभ नहीं हुआ। राजशाही के हाथों सत्ता निकलने और नेपाल में लोकतंत्र की स्थापना के बाद एक बार फिर से दोनों राष्ट्रों के बीच नई संधि 1991 में हुई जिससे Land Locked नेपाल को राहत पहुंची। हालांकि नेपाल इससे पूरी तरह संतुष्ट नहीं हुआ। उसकी लगातार मांग दो अन्य पोर्ट से भी अपना माल लाने ले जाने की बनी हुई है।

 

 

दरअसल, नेपाल-भारत के मध्य बॉर्डर को भले ही ओपर बॉर्डर कहा जाता है, कई बार भारत द्वारा इसे बंद किए जाने के चलते नेपाल में भारत विरोधी भाव खासा गहरा चुका है। 1989 में भारत ने एकपक्षीय कार्यवाही करते हुए 22 बॉर्डर प्वाइंट और पंद्रह Transit Point बंद कर दिए थे जिसके चलते नेपाल त्राहि-त्राहि करने लगा था 2015 में एक बार फिर भारत ने ऐसा ही किया जिसके चलते एक नेपाल में अन्न, पेट्रोल एवं अन्य आवश्यक सामानों की भारी कमी हो गई थी। भारत के इस कदम की तब भारी निंदा हुई, क्योंकि पांच माह पहले ही 25 अप्रैल को नेपाल में भारी नुकसान हुआ था। रिएक्टर स्केल में 7.8 का यह भूकंप नौ हजार के जानलेवा साबित हुआ था। तब भारत पहला देश था जिसने नेपाल के लिए बड़ी मात्रा में राहत पहुंचाई थी। लेकिन पांच माह बाद ही सितंबर माह में नेपाल के लिए फिर भारत की सीमाएं सील कर दी गई। हालांकि भारत सरकार ने नेपाल में चल रहे मधेशी आंदोलन के चलते उत्पन्न कानून व्यवस्था की बात कही थी लेकिन इसके चलते तार बकौल सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मार्कण्डेय काटजू और सेवानिवृत्त ले. जनरल अशोक मेहता 2015 के बिहार चुनाव से जुड़े थे। नेपाल में तब बिहार मूल के मधेशी लोगों का आंदोलन चल रहा था जो अपने लिए नए नेपाली संविधान में की गई व्यवस्था से खुश नहीं थे। ऐसा आरोप तब नेपाल सरकार ने भी लगाया था कि भारत इस आंदोलन को हवा दे रहा है।

डॉ. शेखर पाठक और ललित पंत द्वारा लिखित पुस्तक

 

चलिए, एक बार फिर से वापस लौटते हैं सीमा विवाद पर। ताजा सीमा विवाद पर। इस मुद्दे को सरलता से समझने के लिए मेरी राय है ऐसे इच्छुक व्यक्ति को डॉ. शेखर पाठक और ललित पंत की रिसर्च को पढ़ना चाहिए। यह रिसर्च एक पुस्तक के रूप में अभी-अभी आई है और इसमें गहराई से जाकर पूरे मामले पर प्रकाश डाला गया है। पुस्तक का नाम है ‘कालापानी और लीपूलेख’। लीपूलेख की बाबत यह पुस्तक कहती है ‘दो ओर से दो कठिन पड़ोसियों से घिरे नेपाल के तिब्बत के साथ मूलतः व्यापारिक-धार्मिक पर भारत के साथ सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और आर्थिक रिश्ते सदियों से रहे हैं। बहुत से मामलों में भारत और नेपाल की विरासत एक-सी रही है। इसका मिथकों से इतिहास तक में वर्णन है। सिर्फ तीन उदाहरण देने पर्याप्त होंगे। रामकथा और बुद्ध कथा इन दोनों देशों की सबसे यादागार साझा विरासत है। पशुपतिनाथ को कैलाश और केदारनाथ के बीच की हैसियत प्राप्त है और यहां आने वालों मं भारतीय ज्यादा होते हैं। पशुपतिनाथ के पुजारी कर्नाटक से हैं। हरिद्वार सहित भारतीय तीर्थों में आयोजित कुंभों तथा बौद्ध तीर्थों में नेलियों की बहुत बड़ी उपस्थिति होती है। नेपालियों की बड़ी संख्या भारत में कार्यरत है और नेपाल में भी बड़ी संख्या में भारतीय अपनी रोजी-रोटी कमा रहे हैं।’।

इतना ही नहीं इस पुस्तक में एक बेहद वाजिब प्रश्न भी उठाया गया है ‘स्थानीय सामंतशाहियों के बीच काली नदी के दोनों ओर सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक आदान-प्रदान की प्रक्रिया चलती रही। आगमन और गमन की दो तरफा प्रक्रिया को इतिहास, परंपरा, भाषा और संस्कृति के माध्यम से समझा जा सकता है। एक रोचक पक्ष का जिक्र भर करना उचित होगा। बीसवीं सदी में विशेष रूप से पश्चिमी नेपाल में अधिकांश शिक्षक कुमाऊं से गए और बहुत से नौजवान शिक्षा प्राप्त करने कुमाऊं (पिथौरागढ़, अल्मोड़ा तथा नैनीताल) आए, जिनमें भविष्य में नेपाल के प्रधानमंत्री बनने वाले लोक बहादुर चंद तथ राजदूत बनने वाले उद्धवदेव भट्ट सहित सैकड़ों विद्यार्थी थे, पर अभी उसके विस्तार में जाने की जरूरत नहीं है।’।

पुस्तक में उत्तराखण्ड के पूर्व मुख्य सचिव नृप सिंह नपलच्याल के संदर्भ से बताया गया कि ‘काली नदी अंततः लीपूलेख दर्रे के पास से आती थी। यह दर्रा भारत-तिब्बत विनिमय व्यापार के लिए अपरिहार्य था और ऐतिहासिक रूप से सदियों से कुमाऊं का हिस्सा था। लिम्पियाधूरा सिर्फ कुटी के निवासियों द्वारा इस्तेमाल होता था और अनेक बार सिर्फ वापसी के लिए। नेपाल ने फिर इस हेतु कभी आग्रह भी नहीं किया। 1857 के विद्रोह के समय स्वयं नेपाल के शासक जंगबहादुर ने अपनी सेना का नेतृत्व करते हुए गोरखपुर तथा लखनऊ में विद्रोह को कुचलकर सामान्य स्थिति लाने में योगदान दिया। इसके बाद जंगबहादुर ने नेपाल की गोरखपुर, अवध तथा रुहेलखण्ड से लगी सीमाओं की अस्पष्टता की शिकायत कंपनी से की। परिणाम स्वरूप कंपनी ने अवध की सीमा से लगे अनेक क्षेत्र (नया देश) नेपाल को लौटा दिए। पर जंगबहादुर ने कालापानी-लीपूलेख का मामाल नहीं उठाया। इसका स्पष्ट अर्थ है कि नेपाल ने भी कंपनी द्वारा निर्णित कालापानी-लीपूलेख सीमा को मान लिया था। फिर यह सवाल कभी नहीं उठा। अतः यह स्पष्ट है कि किसी नदी के बड़ी या छोटी होने का सवाल नहीं था, बल्कि काली नदी कालापानी और लीपूलेख की ओर से आ रही थी और परंपरा के अनुसार कालापानी को ही स्रोत माना जाता था। यह दर्रा कुमाऊं से तिब्बत में जाने वाले व्यापार और तीर्थ यात्रा मार्गों में प्रमुख था।

नेपाल के दावे का पक्ष ले रहे विद्वानों को यह भी सोचना चाहिए कि 1952 से भारत के हर संसदीय तथा विधानसभा चुनाव में वोट देने वालों को, दो बार एक बनराजी तथा एक बार उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री के प्रत्याशी को अपना विधायक चुनने वालों को तथा तिब्बत व्यापार की समाप्ति के बाद 1967 में अनुसूचित जनजाति की संवैधानिक सुविधा पाने वाले भारतीय नागरिकों को नेपाली नागरिक और उनके गांव और क्षेत्र को नेपाली जमीन बताना कहां तक उचित और तार्किक है?

किताब आगे कहती है – कुटी यांगती भारत की आंतरिक नदी है और लीपूलेख तथा लिम्पियाधूरा सदियों से तिब्बत (अब चीन) से हमारी निर्विवाद सीमा को बनाते हैं। तिब्बत का यह पारंपरिक मार्ग है। यदि थोड़ी देर के लिए यह मान लिया जाए कि कुटी ही काली है तब भी औपनिवेशिक शासक कालापानी-लीपूलेख को ही सीमा बनाते। यह तिब्बत व्यापार, तीर्थयात्रा और सदियों से प्रचलित मार्ग का तकाजा था। कुटी को कभी भी किसी नक्शे में सीमा की तरह नहीं दिखाया गया था। वास्तव में यह मुद्दा 1820-21 के 175 साल बाद 1996 में उठाया गया था। इस तरफ सिर्फ नक्शों के आधार पर बात करने वाले विद्वानों को ध्यान देना चाहिए। अगर सच सिर्फ नक्शों में छिपा होता तो दुनिया में कहीं सीमा विवाद नहीं होते।

यह तो रही सीमा विवाद की। जाहिर है जिन इलाकों को अब नेपाल दमखम के साथ अपना बता रहा है वह भारत का हिस्सा थे, हैं और रहेंगे। यह भी स्पष्ट है कि चीन का इस पूरे मामले को हवा देने में बड़ा हाथ है। पाकिस्तान तो है ही है। लेकिन इस सबके बावजूद हमें नेपाल और अपने प्रगाढ़ संबंधों को कभी नहीं भूलना चाहिए। कुछ दिन हुए एक ‘राष्ट्रवादी चैनल’ जिसके मालिक कम चीफ एडिटर गला फाड़ चीखने के लिए जाने जाते हैं, इस चैनल में चल रहा था-‘भारत से लिया पंगा-नेपाल हुआ नंगा’।

इतनी घटिया स्तर की पत्रकारिता। यह सुन मेरा सिर शर्म से झूक गया। ऐसे नालायकों को याद दिलाने के लिए कल उन प्रसंगों की चर्चा करूंगा जहां नेपाल के शूरवीरों ने भारत की रक्षा करते प्राण गंवाए।

You may also like

MERA DDDD DDD DD