पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-55
नेहरू निश्चित ही लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति समर्पित राजनेता थे लेकिन यह भी ऐतिहासिक सत्य है कि उनके शासनकाल के दौरान विभिन्न राज्यों की गैर कांग्रेसी सरकारों को बर्खास्त किया गया। 1952 से 1964 के दौरान पांच गैर कांग्रेसी सरकारें अलग-अलग कारणों को आधार बना चलता कर दी गई थीं। नेहरू के नेतृत्व में लड़े गए चुनावों के दौरान एक नारा खूब प्रचलित हुआ था। ‘कांग्रेस ही भारत है, भारत ही कांग्रेस है।’ यह नारा एक बहुदलीय लोकतंत्र को एक दलीय शासन व्यवस्था की तरफ ले जाता है जो बुनियादी तौर पर मजबूत लोकतंत्र के खिलाफ है।
केरल में 1957 में हुए राज्य विधानसभा चुनाव बाद बनी पहली वामपंथी सरकार को 1959 में राष्ट्रपति शासन लगा बर्खास्त किया जाना नेहरू की एक और बड़ी भूल और अलोकतांत्रिक कदम रहा। पांच अप्रैल, 1957 को ईएमएस नम्बूदरिपाद ने केरल के पहले वामपंथी मुख्यमंत्री बतौर शपथ ली थी। यह सरकार पूरे विश्व में पहली ऐसी कम्युनिस्ट सरकार थी जो लोकतांत्रिक तरीकों से सत्ता में आई थी। केरल की सामाजिक परिस्थितियों ने वामपंथ के लिए मजबूत आधार तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। वहां का समाज जातिगत आधार पर खासा विभाजित था और जमींदारों और पूंजीपतियों द्वारा दलितों संग बेहद अमानवीय व्यवहार आम प्रचलन था। नम्बूदरिपाद ने सत्ता संभालने के साथ ही बड़े पैमाने पर सुधार लागू करने शुरू कर दिए जिनमें कामगारों के वेतन में वृद्धि, कड़ा भू-कानून आदि शामिल थे। उनकी सरकार के इन सुधारों ने वहां वर्ग संघर्ष की स्थिति पैदा करने का काम किया। जब नम्बूदरिपाद ने शिक्षा के क्षेत्र में सुधारों की घोषणा की तो उसका भारी विरोध निजी स्कूल और कॉलेजों के प्रबंधन द्वारा किया गया। ज्यादातर निजी शिक्षण संस्थाएं बड़े जमींदारों, धार्मिक संस्थाओं के द्वारा संचालित थीं। नम्बूदरिपाद ने यहां कार्यरत शिक्षकों के वर्तमान में वृद्धि एवं उनकी सेवा नियमावली में पारदर्शिता लाने के लिए कानून बना डाला जिसका पालन न करने वाले शिक्षण संस्थाओं को सरकार द्वारा अपने अधिकार में लिए जाने का प्रावधान था। जल्द ही राज्य के संपन्न वर्ग जिसमें ईसाई मिशनरी, हिंदू संगठन, ट्रस्ट आदि शामिल थे, ने इस कानून के खिलाफ मोर्चा खोल डाला। इस सुधारवादी कदम का विरोध करने वालों को कांग्रेस और यूनियन मुस्लिम लीग ने अपना खुला समर्थन दे वाम सरकार के समक्ष बड़ी चुनौती पेश कर दी। एक तरफ मामला सुप्रीम कोर्ट तक जा पहुंचा था तो दूसरी तरफ सड़कों पर इसके पक्ष और विरोध में प्रदर्शन होने लगे थे। कुछ स्थानों पर हिंसा तक भड़क उठी और पुलिस कार्रवाई में इस कानून का विरोध कर रहे कई लोगों की मौत हो गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने नम्बूदरिपाद सरकार के पक्ष में अपना ऐतिहासिक फैसला सुना सरकार को बड़ी राहत देने का काम किया। यह वही समय था जब कांग्रेस पार्टी की कमान इंदिरा गांधी के हाथों आ चुकी थी। 2 फरवरी, 1959 को इंदिरा गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष का पद संभाला। उन्होंने केरल में बिगड़ती कानून व्यवस्था का हवाला देकर प्रधानमंत्री नेहरू पर भारी दबाव बनाना शुरू कर दिया कि केंद्र सरकार केरल में राष्ट्रपति शासन लागू कर दे। इंदिरा गांधी बतौर पार्टी अध्यक्ष अप्रैल, 1959 में केरल यात्रा पर गईं जहां उन्होंने वामपंथियों पर तीखा हमला बोलते हुए उन्हें ‘चीन का एजेंट’ तक कह डाला था। शिक्षा में सुधारों के खिलाफ हुए घटना-प्रदर्शनों के दौरान करीब 20 लोगों की पुलिस कार्रवाई में मौत के बाद इंदिरा गांधी ने नेहरू सरकार को सख्त कार्रवाई का अल्टीमेटम दे दिया। नेहरू लेकिन ऐसा नहीं करना चाहते थे। उन्होंने नम्बूदरिपाद से सीधे वार्ता कर उन्हें इस्तीफा देने की सलाह कई बार दी ताकि राज्य में चुनाव कराए जा सकें। नेहरू का मानना था कि चुनाव परिणामों से तय हो जाएगा कि राज्य की जनता क्या चाहती है। मुख्यमंत्री नम्बूदरिपाद लेकिन इसके लिए तैयार नहीं हुए। अंततः 31 जुलाई, 1959 को उनकी सरकार को बर्खास्त कर दिया गया। इस बर्खास्तगी में अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए की सक्रिय भूमिका बताई जाती है। भारत में तत्कालीन अमेरिकी राजदूत इल्सवर्थ बंकर (1956-61) ने एक साक्षात्कार में यह स्वीकारा था कि अमेरिका ने इंदिरा गांधी को वामपंथी सरकार बर्खास्त किए जाने में मदद की थी। बंकर के अनुसार ऐसा इसलिए किया गया था क्योंकि रूस नम्बूदरिपाद सरकार को समर्थन दे रहा था। 1973 से 1975 तक भारत में अमेरिका के राजदूत रहे डेनियल पैट्रिक मोयनिहान ने अपनी आत्मकथा ‘ए डेन्जरस प्लेस’ (A Dangerous Place) में तो सीधा सीआईए द्वारा तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष इंदिरा गांधी को इस काम के लिए आर्थिक मदद दिए जाने की बात कहीं है। नेहरूकाल में कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों को कमजोर किए जाने और केंद्र की पसंद के जनाधारविहीन नेताओं को जबरन राज्यों में थोपे जाने का चलन भी देखने को मिलता है। राज्य में अपनी पकड़ बनाए रखने की नीयत से ऐसा किए जाने का एक उदाहरण कैलाशनाथ काटजू का है जिन्हें 1963 में केंद्रीय रक्षा मंत्री के पद से इस्तीफा करा नेहरू ने मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री नियुक्ति किया था। कुछ ऐसा ही नेहरू काल के दौरान राज्यों में राज्यपालों की नियुक्ति में भी हुआ। गैर कांग्रेसी राज्यों में ऐसे राज्यपालों की नियुक्ति की गई जिन्होंने केंद्र के इशारे पर राज्य सरकारों पर नकेल डालने का काम किया।
नेहरू और परिवारवाद
जवाहर लाल नेहरू के आलोचकों की दृष्टि से नेहरू ने कांग्रेस संगठन में सोची-समझी रणनीति के तहत अपनी एकमात्र संतान इंदिरा गांधी को आगे बढ़ाया। समाजवादी नेता डॉ ़ राम मनोहर लोहिया ने 1963 में लोकसभा में अपने पहले भाषण में नेहरू सरकार पर तीखा हमला बोलते हुए प्रधानमंत्री पर वंशवाद को प्रश्रय देने का आरोप लगाया था-‘…12 अक्टूबर को उन्होंने (प्रधानमंत्री) कहा कि चीनियों को खदेड़ बाहर करो, यह शेर की दहाड़ थी और 37 दिन बाद 19 नवंबर को जब बोमडीला और बलोंग गिर गए तब रेडियो पर उन्होंने भाषण दिया, धिग्गी बंधी हुई थी, वह बकरी की पुकार थी’। लोहिया ने नेहरू सरकार को जाति परस्ती और कुनबा-परस्ती की सरकार करार देते हुए कहा ‘इससे बहुत ज्यादा मामले बिगड़ जाया करते हैं। इतने बिगड़ जाते हैं कि पिता बन जाता है सरकार का मालिक और पुत्री बन जाती है जनता की मालिक।’ लोहिया के इस कथन और अन्य नेहरू विरोधियों द्वारा समय-समय पर लगाए गए ऐसे ही आरोपों के विपरीत कई इतिहासकारों का मानना है कि नेहरू जयप्रकाश नारायण को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे। जयप्रकाश नारायण आजादी के संग्राम काल के दौरान अपनी सांगठनिक क्षमताओं और अमेरिका से प्राप्त उच्च शिक्षा चलते नेहरू की नजरों में उनकी राजनीतिक विरासत के सही वारिस थे। 1952 में हुए पहले आम चुनाव में कांग्रेस को मिली भारी सफलता बाद नेहरू ने जेपी को केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल होने का आग्रह किया था और उन्हें उपप्रधानमंत्री का पद दिए जाने की पेशकश की थी। नेहरू ने जेपी से यहां तक अनुरोध किया था कि वे अपनी ‘प्रजा सोशलिस्ट पार्टी’ का कांग्रेस में विलय कर लें। जेपी लेकिन न तो मंत्री बनने के लिए तैयार हुए, न ही उन्होंने अपनी पार्टी का कांग्रेस में विलय के सुझाव को स्वीकारा था। पत्रकार एचवाई शारदा प्रसाद ने तब इस पर टिप्पणी करते हुए लिखा था-‘JP’s persistent refusal to assume political authority is a real waste of vast and unusual national resource…JP is a very baffling philosophical anarchist, ready to fight the aberration of the state but reluctant to assume any office of responsibility him self’ (जेपी का राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी से लगातार इनकार करना विशाल और असमान्य राष्ट्रीय संसाधन की बर्बादी समान है…जेपी बहुत अजीब प्रकार के अराजकतावादी दर्शनिक हैं जो सत्ता की विकृत्तियों से लड़ने को तैयार रहते हैं लेकिन खुद जिम्मेदारी का कोई भी पद संभालने से कतराते हैं।) शारदा प्रसाद जो कालांतर में इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व कार्यकाल में उनके अति विश्वस्त रहे और उनके सलाहकार बने, के अनुसार इंदिरा गांधी को आगे बढ़ाने में नेहरू सरकार में गृह मंत्री गोविंद बल्लभ पंत और तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष उच्चगंतय नवल शंकर ढेबक की महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। ये दोनों कांग्रेसी नेता दक्षिणपंथी विचारों के थे और नेहरू की वामपंथियों संग बढ़ती नजदीकी से खासे चिंतित रहा करते थे। इन दोनों ने ही 1959 में इंदिरा गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने का काम किया। शारदा प्रसाद ने अगस्त 1984 को वियना में आयोजित एक कार्यक्रम में कहा था कि ‘इंदिरा गांधी ने एक नहीं अनेकों बार मुझे बताया था कि गोविंद बल्लभ पंत और यू ़एन ़ ढेबक ने उन्हें राजनीति में आगे बढ़ाया, न कि उनके पिता नेहरू ने।’ ख्याति प्राप्त पत्रकार कुलदीप नैयर जो गोविंद बल्लभ पंत और लाल बहादुर शास्त्री के प्रेस सचिव भी रहे, शारदा प्रसाद से ठीक विपरीत मानते हैं कि नेहरू हमेशा से ही इंदिरा को अपने बाद प्रधानमंत्री बनाना चाहते थे। नैयर अपनी बात की पुष्टि एक वाकये से करते हैं। वे लिखते हैं कि एक बार शास्त्री ने उनसे कहा था कि वे वापस इलाहाबाद लौट जाना चाह रहे हैं। नैयर ने इस पर उन्हें याद दिलाया कि वे नेहरू के उत्तराधिकारी हैं तो शास्त्री ने उन्हें पलट कर उत्तर दिया कि नेहरू के दिल में उनकी बेटी है। हालांकि इतनी आसानी से वह प्रधानमंत्री नहीं बन पाएंगी।
बकौल नैयर शास्त्री हमेशा कहा करते थे ‘उनके मन में तो सिर्फ उनकी पुत्री हैं।’ (85.Kuldip Nayar, on leaders and Icons; From Jinnah to Modi,P.52) हालांकि नैयर यह भी लिखते हैं कि जब उन्होंने कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष के कामराज से नेहरू के राजनीतिक वारिस की बाबत पूछा था तो कामराज ने उन्हें बताया कि नेहरू ने शास्त्री को अपने बाद प्रधानमंत्री बनाए जाने की तरफ इशारा किया था। 1959 में भी जब गोविंद बल्लभ पंत और यू ़एन ़ ढेबर ने कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए इंदिरा गांधी का नाम आगे किया था तो नेहरू ने अप्रत्यक्ष तौर पर इसका विरोध करते हुए कहा था-I gave a good deal of thought to this matter and I came to the conclusion that I should firmly keep apart from this bussiness and not try to influence it in a way except rather generally and broadly to say that it has disadvantages…it is not a good thing for my danghter to come in as Congress President when I am Prime Minister.’ (86. The Times of India, Delhi, 8 Feburay 1959)(मैंने इस विषय पर ध्यानपूर्वक सोचा और मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि मुझे इस सबसे दूर रहना चाहिए और इसे किसी भी प्रकार से प्रभावित नहीं करना चाहिए, भले ही इसके अपने कुछ नुकसान क्यों न हों…यह ठीक नहीं होगा कि मेरी बेटी ऐसे समय में कांग्रेस अध्यक्ष बने जब मैं स्वयं प्रधानमंत्री हूं।)
नेहरू ने भले ही इंदिरा गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनाए जाने की प्रक्रिया से खुद को दूर रखा हो, इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि इंदिरा को यह पद अपने पिता के विशाल व्यक्तित्व और प्रभाव चलते मिला। कांग्रेस और देश की राजनीति में वंशवाद ने यहीं से अपनी जड़ें मजबूत करनी शुरू कर दी थी।
क्रमशः