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Uttarakhand

दिग्गजों की दूरी, क्या है मजबूरी

आगामी 2024 के लोकसभा चुनाव में सत्तारूढ़ भाजपा के नेता टिकट पाने के लिए देहरादून से दिल्ली तक दौड़ लगा रहे हैं। भाजपा नेताओं में जोर आजमाइश का दौर जारी है तो वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस के नेता चुनाव में अभी से दूरी बनाते नजर आ रहे हैं। वह भी ऐसे दिग्गज नेता जिनका सियासी कद फलक पर रहा है। चुनावी महासमर में कूदने की बजाय कांग्रेस के ऐसे दिग्गज स्वघोषित तौर पर चुनावों से दूरी क्यों बना रहे हैं? क्या उन्हें अपनी हार का डर है या उनकी कोई और मजबूरी है

वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में महज कुछ माह ही बचे हैं। लेकिन प्रदेश में भाजपा औेर कांग्रेस दोनों ही पार्टियों में चुनावी तैयारियां अभी शुरू होती नजर नहीं आ रही है। कांग्रेस की तुलना में भाजपा में चुनाव को लेकर अपनी दावेदारी करने वाले नेताओं का जनसंपर्क पहले से ज्यादा नजर आने लगा है जिससे माना जा रहा है कि भाजपा में अगर कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ तो दावेदारों की एक बड़ी फौज है जो चुनाव में अपनी उम्मीदवारी कर सकती है। जबकि इसके विपरीत कांग्रेस के हालात उदासीन नजर आ रहे हैं। दिलचस्प यह है कि पूर्व में टिकट पाने के लिए तमाम तरह के जतन करने वाले नेता 2024 के चुनाव में उतरने के लिए ही तैयार नहीं हैं। इसके चलते कांग्रेस की चुनावी रणनीति पर ही पार्टी के कार्यकर्ता और वरिष्ठ वयोवृ़द्ध नेता ही सवाल खड़े करने लगे हैं। जबकि राजनीतिक जानकार इसे कांग्रेस के नेताओं में हार का डर मान रहे हैं।
राजनीतिक जानकारांे की मानें तो अभी कांग्रेस के कई बड़े नेता ‘देखो और इंतजार करो’ की नीति पर ही चल रहे हैं। बताया जा रहा है कि पांच राज्यों के चुनावी परिणाम आने के बाद ही कांग्रेस और भाजपा लोकसभा चुनाव की रणनीति और चुनावी तैयारी में आएंगे। इस दौरान ही कांग्रेस के नेताओं की रणनीति सामने आ सकती है। माना जा रहा हैं कि जिस तरह से उत्तराखण्ड कांग्रेस के भीतर जमकर खेमेबाजी और एक-दूसरे को कमतर करने की राजनीति चल रही है उसका बड़ा असर लोकसभा चुनाव में देखने को मिल सकता है। साथ ही जिन बड़े नेताओं को पार्टी का संगठन और चुनावी राजनीति का प्रमुख चेहरा माना जाता रहा है उनके पास बड़ा पद होने के चलते अपना कद और प्रभाव बनाए रखने में ज्यादा सहूलियत नजर आ रही है। चुनाव में अनुकूल परिणाम नहीं आए तो ऐसे में उनके पद पर भी गंभीर सवाल खड़े हो सकते हैं जिसका भय कांग्रेस के बड़े नेताओं में साफ झलक रहा है।

कांग्रेस के ऐसे बड़े नेताओं की एक पूरी जमात है जो वर्षों से प्रदेश की राजनीति में अपना दमखम बनाए हुए हैं जिसके चलते उनको संगठन और कांग्रेस सरकार में भी स्थान भी मिलता रहा है। ऐसे नेताओं में प्रीतम सिंह, नव प्रभात, यशपाल आर्य जैसे प्रमुख नेता हैं जो कांग्रेस की राजनीति के पुरोधा रहे हैं। हैरत की बात यह है कि इनमें से कोई भी नेता लोकसभा चुनाव में अपनी दावेदारी करने से परहेज कर रहा है। हालांकि अभी कांग्रेस में लोकसभा चुनाव को लेकर कोई दिशा निर्देश जारी नहीं हुआ है इसलिए दावेदारांे के नाम भी सामने नहीं आए हैं लेकिन कांग्रेसी कार्यकर्ताओं और मीडिया में पार्टी के कई नेताओं की दावेदारी की चर्चाएं जमकर हो रही है। साथ ही पार्टी में ऐसे संभावित दावेदार भी हैं जिनके द्वारा अपने-अपने क्षेत्रों में भ्रमण और समर्थकों के साथ कार्यक्रम में कोई कमी नहीं की जा रही है जिससे उनकी दावेदारी पर संदेह नहीं किया जा सकता।

सबसे पहले प्रीतम सिंह की बात करें तो अविभाजित उत्तर प्रदेश के समय से ही प्रीतम सिंह राजनीति के मजबूत क्षत्रप रहे हैं। जबकि इनके पिता स्वर्गीय गुलाब सिंह पछुआदून और चकराता सीटांे पर 8 बार चुनाव जीते हैं तो प्रीतम सिंह भी 1993 में पहली बार चकराता सीट से चुनाव जीते थे। राज्य बनने के बाद 2002 से लेकर अब तक प्रीतम सिंह लगातार चकराता सीट से चुनाव जीतते रहे हैं। प्रीतम सिंह का जौनसार बाबर क्षेत्र में आज भी बड़ा राजनीतिक रसूख है। यहां तक कि पंचायत, क्षेत्र पंचायत और जिला पंचायत में स्वर्गीय गुलाब सिंह और उसके बाद उनके पुत्र प्रीतम सिंह का ही दबदबा चला आ रहा है। राज्य बनने के बाद पहली निर्वाचित कांग्रेस की तिवारी सरकार में प्रीतम सिंह खेल और पंचायती राज मंत्री भी बने। इस तरह से बहुगुणा और हरीश रावत सरकार में भी प्रीतम सिंह कैबिनेट मंत्री रहे हैं। 2017 में प्रीतम सिंह को उत्तराखण्ड कांग्रेस कमेटी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया और 2021 में उन्हें नेता प्रतिपक्ष बनाया गया। 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने प्रीतम सिंह पर दांव खेलते हुए उन्हें टिहरी लोकसभा सीट से चुनावी मैदान में उतारा लेकिन प्रीतम सिंह तकरीबन 3 लाख मतों से बुरी तरह से पराजित हो गए। गौर करने वाली बात यह है कि टिहरी लोकसभा सीट पर 14 विधानसभा सीटों में से केवल चकराता ही एक मात्र सीट थी जिस पर प्रीतम सिंह को भाजपा से ज्यादा मत मिले जबकि अन्य सभी सीटों पर उन्हें भाजपा से बहुत कम मत मिले। इससे प्रीतम सिंह पर चकराता का नेता होने का ठप्पा एक तरह से सही प्रतीत होता दिखाई दिया।

कांगेस के कई वरिष्ठ नेता दबी जुबान से यह मानते हैं कि प्रीतम सिंह केवल चकराता तक ही सिमट कर रह गए है। अन्य क्षेत्रों में यहां तक कि विकास नगर, सहसपुर, पुरोला और यमनोत्री जैसी सीटंे जो सीधे तौर पर जौनसार भावर क्षेत्र को प्रभावित करती हैं, में भी प्रीतम का जनाधार नहीं के बराबर है। पूर्व में जब 3 लाख मतों से हारे थे तब वे कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष के पद पर थे। उस दौरान एक प्रदेश अध्यक्ष की अपने ही क्षेत्र में करारी हार के कई राजनीतिक मायने निकाले गए। दूसरे सबसे बड़े नेता यशपाल आर्य की बात करें तो वह भी अविभाजित उत्तर प्रदेश के समय से ही प्रदेश की राजनीति में प्रभावी भूमिका निभारते रहे हैं। राज्य बनने के बाद विधानसभा अध्यक्ष, पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष और बहुगुणा सरकार में कई अहम विभागों के कैबिनेट मंत्री रहे हैं। यशपाल आर्या की राजनीति में कितनी धमक रही है इसका अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि 2017 के विधानसभा चुनाव से ठीक पूर्व कांग्रेस छोड़ कर वे भाजपा में शामिल हुए और अपने साथ अपने पुत्र संजीव आर्य को भी भाजपा से टिकट पाने में कामयाब हुए। तब वे चुनाव जीतकर त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार में कैेबिनेट मंत्री बने।

2022 के विधानसभा चुनाव से पूर्व आर्य भाजपा को छोड़कर फिर से कांग्रेस में शामिल हुए। कांग्रेस के टिकट पर बाजपुर सीट से चुनाव जीतकर विधायक बने। कांग्रेस ने तमाम कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं को दरकिनार करते हुए आर्य को नेता प्रतिपक्ष बनाया। इससे आर्य की राजनीतिक शक्ति का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। इससे यह माना जा सकता हैे कि कुमाऊं क्षेत्र में यशपाल आर्य एक मजबूत और ताकतवर नेता हैं जिनके लिए किसी भी पार्टी का सिंबल कोई भी हो लेकिन आर्य का जनाधार पर कोई असर नहीं पड़ता है। हैरत की बात यह है कि कुमाऊं के अग्रणी नेता के तौर पर पहचान बनाए रखने वाले आर्य भी लोकसभा चुनाव में उतरने से दूरी बना रहे हैं। जबकि कांग्रेस के अधिकतर नेताओं का मानना है कि यशपाल आर्य दलित नेता भी हं और अल्मोड़ा पिथौरागढ़- लोकसभा सीट पर सबसे योग्य उम्मीदवार हो सकते हैं। बावजूद इसके आर्य लोकसभा चुनाव लड़ने से अपने आप को अलग बनाए रखने की रणनीति पर ही चल रहे हैं।

राजनीतिक जानकार इसे भले ही कांग्रेस के संभावित उम्मीदवार प्रदीप टम्टा के सम्मान में चुनाव न लड़ने की रणनीति बता रहे हैं लेकिन असल में इसका सबसे बड़ा असर नेता प्रतिपक्ष के पद को लेकर माना जा रहा है। कहा जा रहा है कि अगर चुनाव परिणाम आर्य के पक्ष में नहीं आते तो आर्य के लिए कांग्रेस में अपना कद और प्रभाव बनाए रखना आसान नहीं रहने वाला है साथ ही नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी भी जाने का बड़ा खतरा हो सकता है। इसी के चलते यशपाल आर्य लोकसभा चुनाव लड़ने से बच रहे हैं। जबकि पूर्व के इतिहास को देखंे तो आर्य न सिर्फ अपने लिए, बल्कि अपने पुत्र की राजनीतिक जमीन को पुख्ता करने और कांग्रेस से पुत्र को टिकट दिलावाने के लिए दबाव बना चुके थे। माना जाता है कि आर्य ने इसी के चलते कांग्रेस को छोड़कर भाजपा का दामन थामा था।

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता नव प्रभात भी लोकसभा चुनाव से कन्नी काटने वाले नेताओं की जमात में शामिल हो गए हैं। स्वर्गीय ब्रहमदत्त के पुत्र नव प्रभात अविभाजित उत्तर प्रदेश के समय से ही कांग्रेस की राजनीति में अपना प्रभाव रखते रहे हैं। कांग्रेस में तकनीकी ज्ञान और बौद्धिक क्षमता वाले नेता का तमगा पाए नव प्रभात विकासनगर विधानसभा में कांग्रेस के सबसे बड़े दिग्गज नेता माने जाते हैं। नवप्रभात की छवि परंपरागत राजनीतिक नेता के रूप में रही है। पूर्व में नव प्रभात विधान परिषद के सदस्य भी रह चुके हैं। अविभाजित उत्तर प्रदेश के समय में ही नव प्रभात पहली बार मसूरी विधानसभा से चुनाव लड़ चुके हैं। उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद विकासनगर से विधायक का चुनाव जीतकर पहली बार विधायक बने और तत्कालीन कांग्रेस की तिवारी सरकार में वन एवं शहरी विकास मंत्री बने। 2012 में फिर से विकासनगर से चुनाव जीते लेकिन तत्कालीन बहुगुणा ओैर हरीश रावत सरकार के समय में राजनीतिक समीकरणों के चलते मंत्री नहीं बन पाए। कांग्रेस पार्टी के घोषणा पत्र कमेटी के अध्यक्ष पद पर भी नव प्रभात अपना बेहतर काम दिखा चुके हैं। विकासनगर के अलावा सहसपुर क्षेत्र में भी नव प्रभात का अपना मजबूत जनाधार रहा है।

2024 में लोकसभा चुनाव नहीं लड़ने के पीछे नव प्रभात अपनी पारिवारिक स्थिति के कारणों को गिना रहे हैं। हालांकि नव प्रभात यह भी मान रहे हैं कि अगर पार्टी को कोई उम्मीदवार नहीं मिलता तभी वे चुनाव लड़ने को तैयार होंगे। जबकि दूसरी तरफ प्रीतम सिंह का तो साफ तौर पर कहना है कि वे न तो दावेदारी कर रहे हैं और न ही वे लोकसभा चुनाव लड़ना चाहते हैं। कांग्रेस के इन तीनों बड़े नेताओं द्वारा लोकसभा चुनाव मंे उतरने से परहेज करने की बातें न तो कार्यकर्ता पचा पा रहे हैं और न ही वरिष्ठ कांग्रेसी नेता इस तरह से पहले ही मैदान छोड़ने की बात को सही मान रहे हैं। वरिष्ठ कांग्रेसी नेता और तिवारी सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे हीरा सिंह बिष्ट का कहना है कि कोई भी नेता चुनाव में उतरने को मना नहीं कर सकता। जब पार्टी का आदेश होगा तो उन्हें मानना ही पड़ेगा। लेकिन इस तरह से मीडिया में चुनाव नहीं लड़ने का सार्वजनिक बयान पार्टी के कार्यकर्ताओं में हताशा का माहौल तो बनाता ही है साथ ही विपक्ष को भी इसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है जिससे कांग्रेस की चुनावी राणनीति पर भी बुरा असर पड़ सकता है। कांग्रेस के वरिष्ठ प्रदेश प्रवक्ता मथुरादत्त जोशी भी चुनाव नहीं लड़ने की बात को सार्वजनिक तौर पर कहने को पार्टी लाइन के खिलाफ मानते हुए कहते हैं कि अभी कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव को लेकर कोई दिशा-निर्देश जारी नहीं किया है। संगठन स्तर पर कार्य किया जा रहा है। जब पार्टी चुनाव में टिकट के लिए उम्मीदवार के नाम मांगेगी तो कई लोग दावेदारी करेंगे। साथ ही वे बड़े नेताओं को सार्वजनिक तौर पर चुनाव नहीं लड़ने की बात को भी पार्टी की चुनावी रणनीति और तैयारियों के लिए अच्छा नहीं मान रहे हैं।

नाम न छापने की शर्त पर एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता का तो यहां तक कहना है कि जो नेता चुनाव नहीं लड़ने की बात कर रहे हैं उनमें से ज्यादातर अपने आप को मुख्यमंत्री का दावेदार मानते रहे हैं। ये लेाग पार्टी में बड़े पद के लिए जी-तोड़ करके लॉबिंग करते हैं और पद मिलने के बाद पार्टी को ही हाशिए पर खड़ा करने से पीछे नहीं रहते हैं। जबकि एक नेता तो साफ कहते हैं कि सिर्फ मीडिया ने ही इनको दिग्गज बनाया हुआ है। लेकिन हकीकत में ये सिर्फ पद पाने के लिए ही दिग्गज बने हुए हैं।

वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं की यह पीड़ा कितनी सही है यह तो पता नहीं लेकिन जिस तरह से कांग्रेस लोकसभा चुनाव में तैयारियों को लेकर भाजपा से कमतर नजर आ रही है उससे यह लगता है कि प्रदेश की पांचों सीटों पर कांग्रेस के नेताओं की उदासीनता चुनाव में बड़ा असर कर सकती है। केवल हरिद्वार ही एक मात्र ऐसी सीट है जिसमें ‘एक अनार सौ बीमार’ की कहावत चरितार्थ नजर आ रही है। पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत और पूर्व मंत्री हरक सिंह रावत दोनों में ही हरिद्वार सीट से चुनाव लड़ने की चर्चाएं सबसे ज्यादा हो रही है। दोनों ही नेता अपने-अपने लिए इस सीट को सबसे मुफीद मान रहे हैं। पौड़ी सीट पर भी एक मात्र मनीष ख्ंाडूड़ी ही ऐसे नेता हैं जो अपनी दावेदारी को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार चुके हैं। इसके अलावा टिहरी, नैनीताल और अल्मोड़ा सीटों पर कांग्रेस के कोई अन्य नेताओं द्वारा न तो दावेदारी की बात कही जा रही है और न ही इन सीटों पर कोई खास नेता द्वारा तैयारियां नजर आ रही है।

 

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