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हिन्दुत्व के हार्टलैंड में मोदी पर भारी पड़ते योगी

23 मई: दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा और संघ के सर कार्यवाहक दत्तात्रेय हौसबले की बैठक । उत्तर  प्रदेश के सियासी हालात पर गहन चिंतन मनन। जिसमें यूपी भाजपा के प्रदेश संगठन महामंत्री सुनील बंसल शामिल। लेकिन मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ नहीं थे शामिल। आश्चर्यजनक यह कि जिस प्रदेश को लेकर चिंतन मनन हो रहा था उसके सीएम मीटिंग में नही थे शामिल।
24 से 26 मई :  दत्तात्रेय हौसबले और सुनील बंसल पहुंचे लखनऊ। दोनों की नेताओ के साथ अलग-अलग बैठक।  पदाधिकारियों के साथ बातचीत । 2 दिन तक करते रहे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मिलने का इंतजार। लेकिन नहीं मिले मुख्यमंत्री योगी।
27 की शाम : मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ प्रदेश की राज्यपाल आनंदीबेन पटेल से मिले। प्रदेश  में कैबिनेट विस्तार की चर्चा। राज्यपाल से मिलने के बाद प्रदेश सरकार के प्रवक्ता ने बताया शिष्टाचार भेंट।
31 मई : भाजपा के राष्ट्रीय संगठन मंत्री बीएल संतोष और प्रदेश के पार्टी प्रभारी राधा मोहन सिंह 3 दिन के दौरे पर पहुंचे लखनऊ। दोनों ने डिप्टी सीएम  केसव प्रसाद मौर्य और दिनेश शर्मा से अलग-अलग की मुलाकात। मंत्रियों के साथ अलग-अलग बंद कमरे में मुलाकात कर लिया फीडबैक। पूछा कि पार्टी के विधायक योगी सरकार से नाराज क्यों?

 

31 मई की शाम : बीएल संतोष और राधा मोहन सिंह ने की मुख्यमंत्री आवास पर बैठक । इसके बाद दोनों नेताओं ने अलग-अलग की भाजपा नेताओं से बात। यूपी की सियासत में 4 साल में पहली बार कोई केंद्रीय नेता मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की गैर मौजूदगी मिले।
3 जून : दिल्ली में आरएसएस की बैठक। सरसंघचालक मोहन भागवत सर कार्यवाह दत्तात्रेय हसबोले  सहित संघ के सभी प्रमुख पदाधिकारी रहे मौजूद। यूपी की राजनीतिक स्थिति पर गंभीर चिंतन मनन।  दत्तात्रेय हसबोले  और बीएल संतोष की लखनऊ यात्रा के बाद मंत्रियों की रिपोर्ट पर डिस्कस।
6 जून : भाजपा के संगठन महामंत्री बीएल संतोष ने योगी सरकार के मंत्रियों के फीड बैक की रिपोर्ट सौपी हाईकमान को। भाजपा अध्यक्ष जे पी नड्डा के घर हुई बैठक । बैठक में मोदी, बीएल संतोष और अरुण सिंह समेत कई राष्ट्रीय महासचिव रहे शामिल। उत्तर प्रदेश की मौजूदा  स्थिति पर विशेष फोकस।
15 दिन तक चले घटनाक्रम के बाद आखिर तय हुआ कि अब 2022 का विधानसभा चुनाव मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा । साथ ही मंत्रीमंडल विस्तार भी टाल दिया गया है।  उस प्रदेश में जिसे भाजपा हिंदुत्व का हार्टलैंड कहा जाता है। उस हार्टलैंड में पिछले एक पखवाड़े से भाजपा के अंदर राजनीतिक सरगर्मियां ने यूपी में तरह-तरह की चर्चाओं को बल दे दिया।
जिसमें कहा गया कि केंद्र और राज्य जो डबल इंजन कहे जाते हैं वह अब राजनीतिक पटरी से उतर चुके हैं। कहा तो यह भी जाने लगा था कि केंद्र अब योगी की सियासी पटरी को उखाड़ देने पर आमादा है। यानी कि केंद्र नहीं चाहता कि अब 2022 का यूपी विधानसभा चुनाव योगी के नेतृत्व में लड़ा जाए।
 हालांकि उत्तर प्रदेश के भाजपा प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह ने इन चर्चाओं को यह कहकर विराम दे दिया कि देश में योगी जी जैसा मुख्यमंत्री कोई नहीं है । योगी जी जितना किसी ने काम नहीं किया । इससे पहले की सरकारें सभी ने देखी है जो प्रदेश को लूट लेती थी। लेकिन योगी जी की सरकार में कानून का राज है। आखिर भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष को यह सफाई क्यों देनी पड़ी ? उस समय जब प्रदेश में रोज-रोज नए-नए राजनीतिक घटनाक्रम सामने आ रहे हैं।

इसको समझने के लिए आपको 14 साल पीछे जाना होगा। याद कीजिए 12 मार्च 2007। तब वामपंथी नेता सोमनाथ चटर्जी लोकसभा के अध्यक्ष हुआ करते थे। केन्द्र में यूपीए की सरकार थी। इस दिन तत्कालीन सांसद योगी आदित्यनाथ ने बोलने की इजाज़त माँगी। उस दिन उनकी आवाज़ में कंपन था और आँखों में आँसू। संसद में हर कोई उनकी तरफ देख रहा था। तभी योगी ने आँखो में आंसू भरते हुए कहा था “अध्यक्ष जी, पिछले कुछ समय से जिस तरह से मुझे राजनीतिक विद्वेष के साथ राजनीतिक पूर्वाग्रह का शिकार बनाया जा रहा है, मैं आपसे अनुरोध करने आया हूँ कि मैं इस सदन का सदस्य हूँ या नहीं? अगर यह सदन मुझे संरक्षण नहीं दे सकता है तो मैं आज ही इस सदन को छोड़कर वापस जाना चाहता हूँ। मेरे लिए यह कोई महत्व नहीं रखता है।”

योगी को भावनात्मक होते देख लोकसभा में सन्नाटा पसर गया। योगी ने कहा कि महोदय मैंने अपने जीवन से संन्यास लिया है। समाज के लिए मैंने अपने परिवार को छोड़ा है। मुझे अपराधी बनाया जा रहा है, केवल राजनीतिक पूर्वाग्रह के साथ। क्योंकि मैंने वहाँ भ्रष्टाचार के मामले उजागर किए थे। क्योंकि मैंने भारत-नेपाल सीमा पर आईएसआई और राष्ट्र विरोधी गतिविधियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई थी और उसके ख़िलाफ सदन का ध्यान भी आकर्षित करता रहा हूँ। इसलिए मेरे ख़िलाफ सारे मामले बनाए जा रहे हैं।

इन 14 सालों में योगी के आँसुओ के साथ ही गंगा में बहुत पानी बह गया। अब योगी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री है। उन्हें अब हठयोगी भी कहा जाता है। यह गत 24 से 26 मई तक उस समय देखने को मिला जब उन्होंने लखनऊ आए संघ के डिप्टी दत्तात्रेय होसबोले को भी दो दिन तक इंतज़ार करा दिया था। योगी दिल्ली से आए होसबोले से मिलने की बजाय पहले सोनभद्र गए और फिर वहाँ से मिर्जापुर और गोरखपुर चले गए। होसबोले जब लखनऊ आये तो यहाँ भी उन्हें तीन दिन तक पार्टी जनों के बीच योगी आदित्यनाथ की असंतोष से भरी तस्वीर ही देखने को मिली।

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बताया जाता है कि अधिकांश लोगों ने होसबोले के समक्ष साफ़ कर दिया कि मौजूदा सरकार के चलते अगला चुनाव जीतना असंभव है। कई लोगों ने अपने लिखित वक्तव्य भी होसबोले को सौंपे। इसके बावजूद भी केंद्रीय आलाकमान योगी को टस से मस नहीं कर पाए। सब जानते है कि यूपी को मॉडल बनाने के लिए 2017 के विधानसभा चुनाव में जीत के बाद आरएसएस ने नरेंद्र मोदी की मर्जी के विपरीत योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनवाया था। जबकि मोदी अपने पसंदीदा गाजीपुर के सांसद मनोज सिन्हा को मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे।  लेकिन आरएसएस के दबाव में योगी आदित्यनाथ की ताजपोशी हुई। या यूँ कहे कि योगी की मुख्यमंत्री बनने की हठधर्मिता के सामने मोदी चाहते हुए भी कुछ नहीं कर सके।

 

यहां यह भी बताना जरुरी है कि वर्ष 2017 में यूपी के विधानसभा चुनावों के दौरान भी एक प्रकरण सामने आया था। वह यह कि पहले चरण के चुनाव प्रचार में योगी का नाम भाजपा के चालीस स्टार प्रचारकों की लिस्ट में भी शामिल नहीं था। 2017 में यूपी में भाजपा ने नरेंद्र मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ा था।  लेकिन किस्मत से कुर्सी मिली योगी को। जिस दिन योगी ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली,  उसी दिन से इस बात पर बहस शुरू हो गई कि क्या किसी मंदिर का एक महंत देश के सबसे बड़े प्रदेश की सरकार को चला सकता है?

फ़िलहाल , योगी उत्तर प्रदेश की सत्ता पर साढ़े चार साल से काबिज है। वह पिछले दिनों कोरोनाकाल में उस समय घिर गए जब मिडिया ने गंगा में बहती लाशों को दिखाया। गत पंचायत चुनावो में भी वह भाजपा को वह जीत नहीं दिला पाए जिसकी संभावना केंद्र ने पाल रखी थी। पंचायत चुनावो में पिछड़ने के साथ ही प्रदेश में ठाकुरवाद का मुद्दा और ब्रह्मण लॉबी का उनके खिलाफ एकजुट हो जाना भी केंद्रीय आलाकमान को वह मौका दे गया जिसकी तलाश में वह बरसो से था। इसके चलते ही प्रदेश में मंत्रिमंडल विस्तार और फेरबदल की चर्चाओं को बल मिला। प्रधानमंत्री मोदी के बेहद करीबी पूर्व नौकरशाह से विधान परिषद् सदस्य बने अरविन्द शर्मा यानी एके की सत्ता में एंट्री की उड़ती खबरों ने भी योगी को असहज कर दिया। इसके चलते एक बार फिर योगी अपनी उस हठ में आ गए जिसमे वह 2017 में दिखाई दिए थे।

 

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बताया जा रहा है कि उन्होंने केंद्रीय हाईकमान के पास दो टूक संदेश दे दिया है कि अगर उनको डिस्टर्ब किया गया तो वे अपनी हिंदू युवा वाहिनी के बैनर पर आठ माह बाद होने वाले विधानसभा चुनावो में अपने प्रत्याशी उतार सकते है। बताया जा रहा है कि इससे भाजपा हाईकमान ने यूपी के मामले में यूटर्न ले लिया है। इसके चलते ही यह तय हो गया है कि 2022 का विधानसभा चुनाव योगी के नेतृत्व में ही होगा।

 

इससे पहले 2002 के विधानसभा चुनावों में  योगी ऐसा करके दिखा भी चुके है। जब यूपी में विधानसभा चुनावों में भाजपा ने उनकी पसंद के उम्मीदवार की बजाय अपने कैबिनेट मंत्री शिव प्रताप शुक्ल को टिकट दे दिया था। तब योगी ने भाजपा के ख़िलाफ़ अपने उम्मीदवार राधा मोहन दास अग्रवाल को हिन्दू महासभा के टिकट से उतार दिया था और जीत दिलवाई थी। यही नहीं बल्कि वर्ष 2007 और 2012 के चुनावों में भी उन्होंने अपने बहुत से उम्मीदवारों को टिकट दिलाने में कामयाबी हासिल की।

ऐसा नहीं है कि यह पहली बार है जब योगी ने केंद्र को अपनी ताकत का अहसास कराया हो, वह भाजपा को अपनी ताक़त दिखाने के लिए अक्सर कुछ न कुछ करते रहते है। जिससे कि भाजपा को उनकी ज़रूरत और ताक़त समझ में आती रहे। इसके अलावा वर्ष 2006 में 22 से 24 दिसम्बर तक लखनऊ में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक चल रही थी। उस समय योगी ने गोरखपुर में तीन दिन के विराट हिन्दू सम्मेलन का आयोजन कर भाजपा को आइना दिखा दिया था। उस समय भी संघ और विश्व हिन्दू परिषद के कई बड़े नेताओं ने इस हिन्दू सम्मेलन में हिस्सा लिया था। लेकिन भाजपा मूकदर्शक बनी रही थी और कुछ नहीं कर पाई थी। एक बार फिर यूपी की सियासत में अपना सिक्का चलाकर योगी ने अपना राजनीतिक वजूद दिखा दिया है। फिलहाल वह मोदी पर भारी पड़ते दिख रहे है।

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