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लैंगिक भेद अनुपात में भी फिसड्डी निकला संस्कारी भारत 

कहा जाता है और माना भी जाता है कि दुनिया की आधी आबादी महिलाएं हैं। लेकिन जब आंकड़ों की बात आती है तो सब सामने होता है कि महिलाएं पुरुष प्रधान समाज में किस स्थान पर हैं और कितना विकास कर रही हैं?

दुनिया के बड़े लोकतांत्रिक देश भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा पिछले साल ही अंतर्राष्ट्रीय न्यायिक सम्मेलन में कहा गया था कि कोई भी देश या समाज लैंगिक न्याय के बिना संपूर्ण विकास हासिल करने का दावा नहीं कर सकता है या न्यायपूर्ण समाज नहीं बन सकता है। उस दौरान देश के पीएम ने अंतर्राष्ट्रीय न्यायिक सम्मेलन में ये भी कहा था, “सरकार कई परिवर्तन लाई है, चाहे वह सैन्य सेवा में महिलाओं की नियुक्ति हो या लड़ाकू पायलटों की चयन प्रक्रिया में हो या रात में खानों में काम करने की उनकी आजादी के बारे में हो।”

लेकिन वर्ल्‍ड इकोनोमिक फोरम की रिपोर्ट इससे कुछ इतर ही बता रही है। वर्ल्‍ड इकोनोमिक फोरम यानी विश्व आर्थिक मंच पर हर साल ही दुनिया में लैंगिक भेदभाव का सूचकांक जारी होता है। इसमें अलग-अलग देशों में लैंगिक भेदभाव की विस्तृत जानकारी दी जाती है।

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ताजा आंकड़ा वर्ष 2021 का है। मंगलवार, 30 मार्च को जेंडर इक्वेलिटी 2021  रिपोर्ट जारी हुई। वर्ल्‍ड इकोनोमिक फोरम की ताजा रिपोर्ट के अनुसार, भारत ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स यानी लैंगिक भेदभाव की खाई के मामले में पिछले साल की तुलना में और नीचे पहुंच गया है। जहां 2020 में अपने देश की रैंक 112 थी वो 2022 में 28 पायदान गिर कर 140 पर आ गई है। यह रैंक दुनिया के 153 देशों में से तय हुई है। जो विशेषज्ञ संस्थाएं इस तरह का सूचकांक निकालती हैं वे कई पैमानों पर इस तरह का आकलन करती हैं।  लैंगिक समानता नापने के लिए ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स मेंचार पैमाने इस्तेमाल किए जाते हैं।

इकोनोमिक पार्टीसिपेशन एंड ऑपरच्यूनिटी पहला पैमाना होता है। इसमें यह देखा जाता है कि महिलाओं और पुरुषों के बीच वेतन के मामले में कितना अंतर है। यह भी देखा जाता है कि अतिकुशल कार्यों में महिलाओं की भागीदारी में किस तरह की समानता है। यानी महिलाओं की उच्च पदों पर पहुंच पाने की स्थिति क्या है?

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दूसरा पैमाना है लैंगिक आधार पर शिक्षा तक किसकी कितनी पहुंच। इस मामले में भारत140वें नंबर पर हैं। जिससे पता लगाया जाता है कि देश में लड़कों की तुलना में लड़कियां तक उच्च शिक्षा कितनी पहुंची।

लैंगिक समानता के आकलन का तीसरा पैमाना हेल्थ एंड सरवाइवल यानी स्वास्थ्य और जीवन संभाव्यता का है। यह आंकड़ा चौंकाने वाला है कि इस मामले में 153 देशों में भारत अब भी निचले पायदान पर है।

चौथा पैमाना लैंगिक समानता के आकलन कामहिलाओं के राजनीतिक सशक्तीकरण की नापतौल करता है। इसमें देखा जाता है कि राजनीतिक क्षेत्र में नीति निर्धारण में महिलाओं की भागीदारी कितनी है।

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रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2019 में लैंगिक समानता में भारत की हिस्सेदारी 62.5 प्रतिशत थी। तब भारत का स्थान 112वां था। लेकिन अब सूचकांक में भारत की आर्थिक भागीदारी और अवसरों में गिरावट आई है, और इस वर्ष कुछ मामलों में इस क्षेत्र में भारत की लैंगिक भेद अनुपात3 प्रतिशत बढ़कर 32.6 प्रतिशत हो गया है।

राजनीतिक सशक्तीकरण सब इंडेक्स में भारत को कड़ी टक्कर मिली है। इस क्षेत्र में वर्ष 2019 में, भारत का प्रतिशत 23.1 प्रतिशत था, 2021 में यह 9.1 प्रतिशत हो गया है। इसका मुख्य कारण कार्यबल में महिलाओं की घटती भागीदारी है, जो 24.8 प्रतिशत से बढ़कर 22.3 प्रतिशत हो गई है। इसके अलावा, पेशेवर और तकनीकी भूमिकाओं में महिलाओं की भागीदारी घटकर 29.2 प्रतिशत हो गई है। वरिष्ठ और प्रबंधकीय स्तरों पर, महिलाओं की भागीदारी कम है और वरिष्ठ पदों पर 14.6 प्रतिशत महिलाएं हैं। प्रबंधन पदों पर महिलाओं का अनुपात 8.9 प्रतिशत है। भारत में महिलाओं की आय पुरुषों की तुलना में कम है। इसलिए भारत निचले दस देशों में चला गया है।

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महिलाओं के खिलाफ भेदभाव अधिक है और भारत ने स्वास्थ्य और जीवन स्थिरता सूचकांक में खराब प्रदर्शन किया है। इसलिए भारत सूचकांक में नीचे के पाँच देशों में शामिल हो गया है।

लैंगिक असमानता जन्म के समय बनी रहती है और चार में से एक महिला अपने जीवन में किसी समय शारीरिक या यौन शोषण के संपर्क में रहती है।

अंतर माध्यमिक और अन्य शैक्षिक स्तरों पर रहता है, जिसमें तीन में से एक महिला निरक्षर होती है। यह कुल मिलाकर 34.2 प्रतिशत है। पुरुषों में यह 17.6 प्रतिशत है।

बांग्लादेश 65, नेपाल में 106, पाकिस्तान में 153, अफगानिस्तान में 156, भूटान में 130, श्रीलंका 116वें  नंबर पर हैं। दक्षिण एशिया में, भारत 62.3 प्रतिशत पर दूसरा सबसे खराब प्रदर्शन करने वाला देश है। असमानता बांग्लादेश में 71.9 प्रतिशत और अफगानिस्तान में 44.4 प्रतिशत है।

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