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देविका रानी से इस मुलाक़ात ने बदल दी थी दिलीप कुमार की ज़िन्दगी

वर्ष 1940 में दिलीप साहब ने अपने करियर की शुरूआत की। उस समय भारत में ख़ासकर अभिनेताओं के लिए मैनेजमेंट जैसा कोई कॉन्सेप्ट प्रचलन में नहीं था।अभिनेताओं को प्रोफेशनलिज्म का पाठ नहीं सिखाया जाता था,उसके लिए उन्हें पहले से मानसिक रूप से तैयार होकर आना होता था। अधिकतर अभिनेता यही मानते थे कि उनका काम सिर्फ़ निर्देशक के इशारे पर काम करना है, थोड़ा समय मिले तो यह अभ्यास करना है कि अपने काम को और बेहतर कैसे किया जा सकता है। उस दौर में फिल्म के हिट होने और उसकी सफलता का सारा दारोमदार निर्देशकों पर ही होता था। फ़िल्म के अभिनेता के ऊपर इस बात की कोई जिम्मेदारी नहीं होती थी।

लेकिन दिलीप कुमार उन अभिनेताओं में से बिल्कुल नहीं थे। वे उन अभिनेताओं में थे जो थोड़ा अलग सोचते थे। दिलीप साहब की पहली फ़िल्म ‘ज्वार भाटा’ थी,जो वर्ष 1944 में रिलीज़ हुई थी। लेकिन उनकी पहली फ़िल्म जिसने बॉक्स ऑफिस पर धमाल मचा दिया था वह थी 1947 में रिलीज़ फ़िल्म ‘जुगनू’।

वे दिलीप कुमार ही थे जिन्होंने अपने अनुभवों से फ़िल्म को और कैसे बेहतर किया जाए और इसकी मार्केटिंग कैसे की जाए, उसमें अपने फ़िल्म निर्देशकों की मदद की। कुछ ही सालों में फ़िल्म जगत में यह बात आग की तरह फैल गयी कि दिलीप कुमार ही वो अभिनेता हैं जो किसी भी फ़िल्म को सफल बना सकते हैं।

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कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि हिन्दी सिनेमा में फ़िल्म को हिट कराने में अभिनेता का भी महत्त्वपूर्ण रोल होता है इस बात को स्थापित पहली बार दिलीप कुमार ने ही किया यानी अब अभिनेता सिर्फ़ निर्देशक के इशारे पर अभिनय करने वाला शख्स नहीं रह गया था ,अब वह फ़िल्म को कमर्शियली कैसे हिट कराया जा सकता है इसका भी हिस्सा था।

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उनकी एक किताब के अनुसार दिलीप कुमार में औरों से हटकर सोचने का गुण पूना में ब्रिटिश आर्मी क्लब के लोगों की संगत में रहकर आया। दिलीप कुमार एक जगह कहते भी हैं कि,’क्यों नहीं अलग हटकर सोचा जाए, फ़िल्म बनाने के डिफरेंट डिपार्टमेंट में क्रिएटिव मैनेजमेंट की भूमिका के तौर पर इन्वॉल्व होकर उसकी गुणवत्ता पर ध्यान दिया जाना ही चाहिए , यह सुनिश्चित किया जाए कि आख़िर एक प्रोडक्ट के तौर पर हम दर्शकों को क्या डिलीवर कर रहे हैं ?’

देविका रानी से मुलाक़ात के बाबत उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘द सस्टेनेबल एंड द शैडो’ में पूरा एक चैप्टर लिखा है जिसे उन्होंने नाम दिया है ‘द टर्निंग पॉइंट’। उन्होंने लिखा है कि,’एक सुबह मैं चर्चगेट स्टेशन पर दादर, सेंट्रल बॉम्बे जाने वाली लोकल ट्रेन का इंतज़ार कर रहा था, मुझे अपने एक काम के सिलसिले में किसी से मिलने जाना था। वहाँ मैंने देखा डॉ मसानी को, वे एक मनोवैज्ञानिक थे जो कभी कभार विल्सन कॉलेज आया करते थे, यहां का मैं एक साल छात्र था। डॉ मसानी उन छात्रों को लेक्चर देने आते थे जिन बच्चों ने वोकेशनल चॉइस के तौर पर आर्ट को अपना एक विषय चुना था।

वहीं चर्च गेट पर ही मैं उनके पास गया और अपना परिचय दिया। वे मुझे पहले से भी जानते थे क्योंकि वे आघाजी के भी जानने वाले थे। उन्होंने मुझे देखते ही कहा,’यहाँ क्या कर रहे हो यूसुफ़?’ मैंने बताया कि, एक काम की तलाश कर रहा हूँ। उन्होंने मुझसे कहा कि,’मैं बॉम्बे टॉकीज़ की मालकिन से मिलने मलाड जा रहा हूँ, यह अच्छी बात होगी अगर तुम मेरे साथ उनसे मिलने चलो। शायद उनके पास तुम्हारे लिए कोई काम हो।’

पहले तो मैं थोड़ा हिचका फिर मन ने कहा जाना चाहिए और फिर मैं उनके साथ पड़ा। हम मलाड से कैब करके बॉम्बे टॉकीज़ पहुंचें ,वह समय लंच टाइम का था। मैंने इससे पहले कभी भी स्टूडियो नहीं देखा था।सच कह रहा हूँ, किसी फोटोग्राफ़ में भी नहीं।’

वे आगे लिखते हैं कि,’बॉम्बे टॉकीज किसी सरप्राइज से कम नहीं था। वह कई एकड़ में फैला हुआ था। वहां गार्डन भी था और गार्डन में फुव्वारा भी लगा हुआ था। ऑफिस की बिल्डिंग किसी बंगले की तरह फव्य लग रही थी, वहां एक टिपिकल ऑफिस की तरह कुछ भी नहीं था। ख़ैर, डॉ मसानी साहब ने मेरा परिचय कराते हुए मुझे देविका रानी से मिलवाया।

 

उन्होंने मुझे नमस्ते कह कर , कुर्सी खींच कर बैठ जाने के लिए कहा। वो मुझे बड़ी ध्यान से देखती रहीं फिर बाद में हमें उस दौर के प्रसिद्ध निर्देशक अमिया चक्रवर्ती से भी मिलवाया। उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या तुम्हें उर्दू आती है? मैंने हां में अपना सिर हिलाया। फिर डॉ मसानी ने मेरे परिवारिक बैकग्राउंड के बारे में उनको बताया। कुछ बातों के बाद देविका रानी मेरी तरफ़ मुड़ी और मुस्कुराते हुए बोलीं, ‘अभिनय करोगे? ‘ मैं क्या करता मैंने बॉम्बे टॉकीज़ में 1250 रुपये महीना के हिसाब से नौकरी स्वीकार कर ली।

और फिर क्या हुआ…..वो दुनिया जानती है। हिन्दी सिनेमा को मिला एक मेथड एक्टर और महान शख्सियत दिलीप कुमार। आज भले ही अब वो इस दुनिया में नहीं है लेकिन उनकी यादें ख़ासकर भारत और पाकिस्तान के सिनेमा प्रेमियों के दिलों में हमेशा जीवित रहेंगी।

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