संसद के दोनों सदनों में महिला आरक्षण की माँग को विधेयक की शक्ल में संसद में पेश हुए लगभग 26 वर्ष हो गए है,लेकिन देश की संसद आज तक उस पर चुप्पी साधे बैठी हुई है।वह भी तब जब भाजपा सहित सभी प्रमुख राजनीतिक दलों ने अपने घोषणापत्र में इसे लागू करने का वादा किया हुआ है। इसी को लेकर 28 जुलाई को एनसीपी के राज्यसभा सांसद डॉक्टर फौज़िया ख़ान ने संसद में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को बढ़ाने को लेकर केंद्र की भाजपा सरकार से सवाल पूछा कि आखिर क्यों इतने वर्षो से यह बिल पारित नहीं हो पा रहा है।
राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के राज्यसभा सांसद डॉ फौजिया खान ने राज्यसभा में चार सवाल पूछे थे। इसमें पहला सवाल यह था कि क्या भारतीय संसद में महिलाओं के प्रतिनिधित्व का मौजूदा प्रतिशत अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस,इग्लैंड , डेनमार्क और आयरलैंड जैसे लोकतांत्रिक देशों और देश में इनकी आबादी की तुलना में बहुत ही कम है? दूसरा सवाल था कि अगर हां तो इसके क्या कारण हैं? वहीं डॉ फौजिया खान का तीसरा सवाल था देश की अलग-अलग विधानसभाओं और स्थानीय स्वशासनों में महिला प्रतिनिधियों की संख्या कितनी है? चौथा, क्या सरकार का इरादा है संसद और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण सुनिश्चित करने का?
राज्यसभा संसद डॉ फौजिया खान की बात से यह स्पष्ट हो रहा है कि वो देश राजनितिक में महिलाओं कि भागीदारी की जानकारी चाह रही है। लेकिन हर बार की तरह इस बार भी केंद्र भाजपा की सरकार का जवाब निराशाजनक ही रहा,केंद्र भाजपा की सरकार की ओर से कानून मंत्री किरन रिजिजू ने अपने आधिकारिक जवाब में लिखा है कि,सूचना एकत्रित की जा रही है और सदन के पटल पर रख दी जाएगी। केंद्रीय मंत्री का ये जवाब थोड़ा हैरान परेशान करने वाला है, या यूं कहें कि सरकार पूरे मामले को ही ठंडे बस्ते से नहीं निकालना चाहते। वैसे महिला अधिकारों पर लंबे-चौड़े भाषण देने वाली भाजपा, महिला सशक्तिकरण के नाम पर वोट मांगने वाली भाजपा अक्सर महिला आरक्षण बिल पर कन्नी ही काटती दिखती है, जबकि वो सदन में अपने बहुमत से पहले ही कई विवादित बिल पास करवा चुकी है।
इस समय देश को पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति मिली हैं, इस पहचान कोभाजपा ख़ूब भुनाने में लगी है। भाजपा महिलाओं के लिए पार्टी और सरकार की तरफ़ से किए गए काम की लिस्ट गिनाने से नहीं थकती। फिर चाहे उज्ज्वला योजना का लाभ हो या फिर आवास योजना में घर महिलाओं के नाम करने की बात हो। आज भाजपा अपने अकेले के दम पर पूर्ण बहुमत की सरकार चला रही है। लेकिन इसके बावजूद महिलाओं की वर्षो पुरानी 33 फीसदी आरक्षण की मांग को क़ानूनी रूप नहीं दे पा रहिए है। महिलाओं के हक़ की अब तक की सबसे बड़ी लड़ाई- महिला आरक्षण बिल पास कराने में भाजपा की कोई पहल नहीं दिखाई देती।
राज्यसभा से पास लेकिन लोकसभा में अटका
वर्ष 1996 में पहली बार महिला आरक्षण बिल को पूर्व प्रधानमत्री एच.डी. देवगौड़ा में नेतृत्व वाली सरकार ने 81वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में संसद में पेश किया था। लेकिन देवगौड़ा की सरकार बहुमत से अल्पमत की ओर आ गई जिस कारण यह विधेयक पास नहीं कराया जा सका। फिर वर्ष 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने लोकसभा में फिर से यह विधेयक पेश किया। लेकिन गठबंधन की सरकार में अलग अलग विचारधाराओं की बहुलता के चलते इस विधेयक को भारी विरोध का सामना करना पड़ा। वर्ष 1999, 2002 और 2003 में इस विधेयक को दोबारा लाया गया लेकिन इसका भी कोई फायदा नहीं हुआ।
वर्ष 2008 में मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार ने लोकसभा और विधानसभाओं में 33 फ़ीसद महिला आरक्षण से जुड़ा 108वां संविधान संशोधन विधेयक संसद के उच्च सदन राज्यसभा में पेश किया जिसके दो वर्ष बाद 2010 में तमाम तरह के विरोधों के बावजूद यह विधेयक राज्यसभा में पारित करा दिया गया। लेकिन लोकसभा में सरकार के पास बहुमत होने के बावजूद यह पारित न हो सका। तब से लेकर आज तक यह विधेयक पास नहीं हो पाया है।
महिला आरक्षण बिल को राज्यसभा में पेश किए जाने के कारण यह विधेयकअभी भी जीवित है जिसमें अभी की केंद्र भाजपा सरकार चाहे तो बहुत ही आसानी से महिला आरक्षण बिल को पास करा सकती है। वैसे तो देश की राजनीतिक पार्टिया राजनीति में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ाने की बात बढ़-चढ़ करती है लेकिन सच्चाई यह है कि विधानसभाओं और पंचायती राज संस्थानों में महिलाओं हिस्सेदारी बढ़ने की बजाय घट रही है। सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय की ओर से सतत विकास के लक्ष्यों की प्रगति को लेकर हाल में जारी एक रिपोर्ट में यह दावा किया गया है कि पंचायती राज संस्थानों में वर्ष 2014 में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 46.14 फीसदी था, जो वर्ष 2019 में घटकर 44.37 फीसदी रह गया। वहीं, शहरी निकायों में 2019 में महिलाओं की हिस्सेदारी 43.16 फीसदी पाई गई। हालांकि, इसका 2014 का आंकड़ा उपलब्ध नहीं है।
रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2019 में विधानसभाओं की 11 फीसदी सीटों पर महिलाएं अधिकारकृत थीं। वर्ष 2020 में भी यह स्थिति कायम रही है। लेकिन वर्ष 2021 में यह हिस्सेदारी घटकर 9 फीसदी रह गई। लोकसभा में हालांकि, महिला सांसदों की हिस्सेदारी बढ़ी है। 2014 में जहां उनके पास 11.42 फीसदी सीटें थी वहीं 2019 में यह 14.36 तक पहुंच गई। हालांकि चुनाव मैदान में उतरने वाली महिलाओं की संख्या पुरुषों की अपेक्षा बहुत कम है। 2014 में जहां कुल उम्मीदवारों में महिलाएं 8.19 फीसदी थी, वहीं 2019 में इसमें मामूली बढ़ोतरी हुई और आंकड़ा नौ फीसदी तक ही पहुंचा। इस हिसाब से से देखा जाए तो महिलाओं की जीतने की दर काफी अच्छी है, बशर्ते उन्हें आगे बढ़ने का मौका मिले।
गौरतलब है कि भारतीय संसदीय व्यवस्था में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के संकट को मौजूदा महिला सदस्यों की संख्या के आधार पर आसानी से समझा जा सकता है। इंटर पार्लियामेंटरी यूनियन के मुताबिक वैसे भी देश के संसदों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व में पूरी दुनिया में भारत का 148वां स्थान है। वंही चीन 46वें स्थान पर है। पाकिस्तान 116वें और बांग्लादेश 111वें स्थान पर हैं। अभी देश संसद के दोनों सदनों में कुल मिला कर 788 सदस्य हैं जिनमें से सिर्फ 103 महिलाएं हैं। यानी सिर्फ 13 प्रतिशत महिलाएं है।। राज्यसभा के 245 सदस्यों में से सिर्फ 25 महिलाएं सांसद हैं। यानी लगभग 10 प्रतिशत महिला सांसद है। लोकसभा की बात करे तो यंहा 543 सदस्यों में से सिर्फ 78 महिलाएं सांसद हैं, यानी 14 प्रतिशत महिलाएं सांसद है। केंद्र की भजपा सरकार की मंत्रियो की बात करे तो यंहा सिर्फ 14 प्रतिशत महिलाएं केंद्रीय मंत्रीहैं।
देश के विधानसभाओं में तो स्थिति इससे भी ख़राब है। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 4,120 विधायकों में से सिर्फ 9 प्रतिशत विधायक महिलाएं हैं। इतना ही नहीं देश में महिलाओं को चुनाव लड़ने के अवसर भी काम मिलते है।
भारतीय चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2002 से 2019 तक लोक सभा चुनावों में लड़ने वाले उम्मीदवारों में से लगभग 93 फीसदी उम्मीदवार पुरुष थे। इसी अवधि में राज्य विधानसभा चुनावों में लड़ने वाले उम्मीदवारों में से 92 प्रतिशत पुरुष थे। यानी इन दोनों चुनावो में महिलाएं दूर -दूर तक बराबरी करती हुई नजर नहीं आ रही है। कल्पना कीजिए सिर्फ 33 फ़ीसद आरक्षण के लिए इसे संसद में सहयोग नहीं मिल पा रहा है फिर बाकी के महिलाओं के मामलों में केंद्र सरकार से क्या उम्मीद रखे ? इस बात को अच्छे से समझा जा सकता है कि वर्ष 2014 लोकसभा चुनाव से पहले भारी भरकम वायदों की सूची को घोषणा पत्र में शामिल करने वाली केंद्र की भाजपा सरकार ने महिला आरक्षण बिल को भी पारित करने का वादा किया था लेकिन वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने यह मुद्दा अपने संकल्प पत्र में भी शामिल करना ज़रूरी नहीं समझा था। ये विडंबना ही है कि दिवंगत पूर्व विदेश मंत्री सुषमा स्वराज इस बिल की सबसे प्रमुख पैरोकारों में एक थीं। लेकिन आज उन्ही की पार्टी भाजपा बहुमत के साथ दूसरी बार सत्ता में हैं,लेकिन महिलाओं को मज़बूत करने वाली बिल पर चुप्पी साधे हुए है।