सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आदेश दिया गया है कि देश में चाइल्ड पोर्नोग्राफी”शब्द की जगह “चाइल्ड सेक्सुअल एक्सप्लोइटेटिव एंड एब्यूज मटीरियल (सीएसईएएम) का इस्तेमाल किया जाए। न्यायालय ने केंद्रीय महिला और बाल विकास मंत्रालय को भी इसे लेकर प्रस्ताव दिया है कि वो संसद में अपील करें कि पॉक्सो अधिनियम में संशोधन ले कर आए जिसकी बदौलत अधिनियम में भी “चाइल्ड पोर्नोग्राफी” की जगह “चाइल्ड सेक्सुअल एक्सप्लोइटेटिव एंड एब्यूज मटीरियल (सीएसईएएम) लिख दिया जाए।सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि जब तक संसद ऐसा कानून पारित नहीं कर देती तब तक केंद्र सरकार इस संबंध में एक अध्यादेश ला सकती है। यही नहीं देश सबसे बड़ी अदालत ने पॉक्सो अधिनियम के बारे में जागरूकता अभियान चलाने, यौन शिक्षा कार्यक्रमों में सीएसईएएम के बारे में बताने, दोषियों की मनोवैज्ञानिक मदद करने और समस्यात्मक यौन आचरण (पीएसबी) वाले युवाओं की पहचान करने और उनकी मदद करने की जरूरत पर बल दिया है।दरअसल सर्वोच्च न्यायलय ने यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण अधिनियम “पॉक्सो एक्ट” की व्याख्या करते हुए कहा कि यौन शिक्षा प्रदान करना और कानून के बारे में आम जनता में जागरूकता लाना सरकारों का दायित्व है।
सर्वोच्च न्यायालय की ओर से दिया गया यह आदेश उच्च न्यायालय द्वारा एक मामले में दिए गए फैसले को लेकर है। जनवरी, 2024 में मद्रास उच्च न्यायालय ने एक मामले में फैसला दिया था कि अपनी निजी डिवाइस पर बच्चों के अश्लील वीडियो देखना अपने आप में अपराध नहीं है। उच्च न्यायालय के इस फैसले को पलटते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने इस गलत बताया। सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार यौन अपराध से बच्चों का संरक्षण अधिनियम 2012 (पॉक्सो अधिनियम) के तहत डिजिटल उपकरणों पर बच्चों से संबंधित पोर्नोग्राफी के वीडियो देखना और उन्हें उपकरण में रखना अपराध है। जिस याचिका पर यह फैसला लिया गया उसमें ‘जस्ट राइट फॉर चिल्ड्रन अलायंस’ नाम के एक एनजीओ ने मद्रास हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती दी थी।
गौरतलब है कि इसी साल जनवरी में मद्रास हाई कोर्ट में एक मामले पर सुनवाई हुई थी जिसमें पुलिस ने एस हरीश नाम के 28 साल के एक व्यक्ति पर अपने मोबाइल फोन पर बच्चों के दो पोर्नोग्राफिक वीडियो डाउनलोड करने और देखने के लिए पॉक्सो अधिनियम और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम के तहत आरोप लगाए थे। लेकिन उच्च न्यायालय ने यह कहते हुए आरोप रद्द कर दिया कि दोनों अधिनियमों के तहत आरोप तब बनता है जब इस तरह के वीडियो को साझा किया गया हो। इसके अलावा पॉक्सो अधिनियम के तहत यह भी साबित किया जाना चाहिए कि इस तरह के वीडियो को बनाने के लिए किसी बच्चे या बच्चों का इस्तेमाल किया गया हो। उच्च न्यायालय द्वारा उस दौरान कहा गया था कि सिर्फ इस तरह के वीडियो को देखना अपने आप में अपराध नहीं है।
यह भी पढ़ें : अरविंद का ब्राह्मास्त्र