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अरविंद का ब्राह्मास्त्र

आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने उच्चतम न्यायालय से जमानत पर तिहाड़ जेल से बाहर निकल ऐसा सियासी दांव चल दिया जिसकी काट न भाजपा तलाश पा रही है और न ही दिल्ली में अपनी खो चुकी जमीन को वापस पाने के लिए छटपटा रही कांग्रेस। यह दांव है मुख्यमंत्री पद से केजरीवाल का इस्तीफा और आतिशी मार्लेना को दिल्ली का नया मुख्यमंत्री बनाना। राजनीतिक पंडितों का मानना है कि ‘आप’ प्रमुख ने मुख्यमंत्री पद त्याग कर ऐसा सियासी तीर अपने तरकश से बाहर निकाला है जो आने वाले दिल्ली विधानसभा चुनाव में पार्टी के लिए ब्रह्माास्त्र का काम करेगा ही करेगा

कथित शराब घोटाले के मामले में देश की सर्वोच्च अदालत से कुछ शर्तों पर मिली जमानत के दो दिन बाद आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के साथ देशभर की राजनीति में तूफान ला दिया है। सियासी हलकों में उनके इस फैसले के बाद सवाल उठ रहे हैं कि क्या इस दांव से पार्टी को आगामी चुनावों में फायदा होगा? क्या पार्टी दिल्ली में लगातार तीसरी बार प्रचंड बहुमत ला पाएगी? क्या यह दांव पार्टी का नया अध्याय है या सियासी मास्टर स्ट्रोक? इस कदम से इंडिया गठबंधन की गांठ भी खुल जाएगी? कितना सफल होगा केजरीवाल का यह अस्त्र? ऐसे तमाम सवाल इन दिनों सुर्खियों में हैं।

राजनीतिक विश्लेषक इसे आने वाले विधानसभा चुनाव का बड़ा सियासी दांव मान रहे हैं। उनका कहना है कि केजरीवाल ने बहुत सोची- समझी रणनीति के तहत इस्तीफा वाले अस्त्र का प्रयोग किया है। जहां तक दिल्ली चुनाव में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी का गठबंधन का सवाल है आम आदमी पार्टी की नेता और दिल्ली की मुख्यमंत्री बन चुकी आतिशी समेत कुछ अन्य नेताओं ने लगातार इस बात पर बयान भी दिए हैं कि दिल्ली की सभी 70 सीटें पार्टी के हिस्से में ही आएंगी। वहीं कांग्रेस पार्टी के नेता भी इस बात को स्वीकार कर रहे हैं कि जिन विवादों के साथ अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी के नेताओं का नाम आ रहा है उसमें अगर कांग्रेस पार्टी बगैर गठबंधन के चुनाव लड़ती है तो उसको ज्यादा फायदा मिल सकता है। कांग्रेस के भीतर एक बड़ा धड़ा आम आदमी पार्टी के साथ दिल्ली में गठबंधन न करने को लेकर लगातार आलाकमान पर दबाव बना रहा है। हरियाणा में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के गठबंधन न होने से कांग्रेस को बड़ा फायदा होगा। क्योंकि लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी के साथ हुए गठबंधन में राजनीतिक ताकत का अंदाजा कांग्रेस को पहले ही हो चुका है। रही सही कसर केजरीवाल ने जेल से वापस आने के बाद इस्तीफा देने की घोषणा के साथ एक सियासी माहौल बनाने के साथ ही पार्टी इसका पूरा सियासी फायदा उठाना चाहेगी तो कांग्रेस पार्टी को भी अभी से अपनी पूरी रणनीति बनानी होगी। दोनों दलों के नेताओं के बयानों से स्पष्ट है कि आने वाले चुनाव में ‘आप’ और कांग्रेस की राहें अलग हो सकती हैं।

जनता की अदालत में ‘आप’
अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने का ऐलान किया है। इसी के साथ ही उन्होंने दिल्ली की जनता से नए सिरे से जनादेश मांगा है। उनका कहना है कि जब तक जनता फैसला नहीं सुनाती, वो मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नहीं बैठेंगे। यह फैसला उन्होंने सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिलने के बाद लिया है। केजरीवाल पर शराब घोटाले में शामिल होने के आरोप लगे हैं और उनके करीबी नेता मनीष सिसोदिया, संजय सिंह भी जेल जा चुके हैं फिलहाल जमानत पर हैं। राजनीतिक जानकार कहते हैं कि केजरीवाल ने जो इस्तीफा देकर नया दांव खेला है, जिसके जरिए वो अपनी छवि सुधारने की कोशिश कर रहे हैं। पिछले कुछ समय से केजरीवाल और उनकी पार्टी की छवि को नुकसान हुआ है। यह फैसला चौंकाने वाला जरूर है, लेकिन अगर गहराई से देखें तो इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है। मीडिया के अलावा, केजरीवाल का यह कदम शायद ही कहीं और सुर्खियां बना पाएगा। एक तरफ तो आम आदमी पार्टी इसे एक ऐसे नेता का फैसला बताएगी जो सत्ता से ज्यादा नैतिकता को अहमियत देता है। दूसरी तरफ जिस नेता ने 6 महीने पहले जेल जाने पर पद से इस्तीफा नहीं दिया, वो अब नैतिकता की दुहाई नहीं दे सकता।

कोर्ट ने केजरीवाल को लोकसभा चुनाव में प्रचार करने की इजाजत दी थी, लेकिन जनता ने इस बात पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया और बीजेपी ने दिल्ली की सभी सात सीटें जीत लीं। हालांकि 2019 के मुकाबले जीत का अंतर कम था। पंजाब में भी जहां 2022 के विधानसभा चुनावों में ‘आप’ की शानदार जीत हुई थी, पार्टी अब पीछे हटती दिख रही है। जून में हुए लोकसभा चुनाव में पंजाब की 13 सीटों में से आप सिर्फ तीन पर ही जीत दर्ज कर पाई थी। इससे पहले 2022 के दिल्ली नगर निगम चुनावों में पार्टी ने 250 में से 134 सीटें जीतकर बहुमत हासिल किया था, लेकिन आप और बीजेपी के वोट शेयर में बस तीन प्रतिशत का ही अंतर था।

आज की आम आदमी पार्टी 2013-14 वाली नहीं है। पार्टी को उसी सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ रहा है जो एक दशक या उससे ज्यादा समय तक सत्ता में रहने वाली किसी भी पार्टी का पीछा नहीं छोड़ती। इसके अलावा आप के साथ एक दिक्कत ये भी है कि ये पार्टी ऐसी पार्टी है, जो भ्रष्टाचार विरोधी लहर की सवारी करके सत्ता में आई थी उसने अपनी चमक खो दी है। खुद मुख्यमंत्री के कामों ने इस गिरावट को और बढ़ावा दिया है। पहले तो उन्हें एक आलीशान सरकारी आवास बनवाने के लिए आलोचनाओं का सामना करना पड़ा। फिर ईडी और सीबीआई ने शराब घोटाले में उनकी कथित भूमिका का आरोप लगाते हुए उनकी छवि को और धूमिल कर दिया। उनके पूर्व उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया इस घोटाले में अपनी कथित भूमिका के लिए 17 महीने जेल में रहे। यही नहीं पार्टी के राज्यसभा सांसद संजय सिंह, पूर्व मंत्री सत्येंद्र जैन और विधायक अमानतुल्लाह खान अभी भी जेल में हैं।

ऐसी स्थिति में भी अगर मान भी लें कि आप नेताओं के खिलाफ सभी मामले सिर्फ राजनीतिक उत्पीड़न का नतीजा थे फिर भी यह सवाल तो उठता ही है कि अदालतें बिना किसी वजह के इतने लंबे समय तक इस एजेंडे का साथ क्यों देती रहीं? यह कहना गलत नहीं होगा कि आप की आम आदमी के हितैषी और दिल्ली के नागरिकों को अच्छा शासन और सकारात्मक परिणाम देने वाली पार्टी की पुरानी छवि अब धूमिल पड़ चुकी है। हाल ही में हमने देखा कि कैसे जेल में बंद मुख्यमंत्री के साथ दिल्ली सरकार गर्मियों में पानी के संकट से या उसके बाद आई बाढ़ से प्रभावी ढंग से निपटने में विफल रही। पार्टी ने कहीं न कहीं यह संदेश दिया है कि उनके लिए सत्ता में बने रहना शासन से ज्यादा मायने रखता है। आप ने दिल्ली की पिछली सरकारों की तरह उपराज्यपाल के साथ मिलकर काम करने के बजाय, उनसे लड़ाई लड़ने में कई साल बर्बाद कर दिए, जबकि पिछले मुख्यमंत्री बिना किसी मनमुटाव के शासन करने में कामयाब रहे थे। ऐसे में केजरीवाल के इस्तीफा देने और नए जनादेश की मांग करने के फैसले को उनकी छवि सुधारने की आखिरी कोशिश के तौर पर देखा जाना चाहिए। लेकिन उनकी यह कोशिश बहुत देर से की गई है। अगले चुनाव की सामान्य तारीख से बमुश्किल से पांच महीने पहले दिया गया इस्तीफा शायद ही कोई राजनीतिक बलिदान कहा जा सकता है। जाहिर है कि यह कोशिश केजरीवाल और उनकी पार्टी को विश्वसनीयता के और नुकसान से बचाने की है।

इसका मतलब यह नहीं है कि पार्टी सत्ता में वापस नहीं आएगी, लेकिन ऐसा इसलिए होगा क्योंकि कोई और बेहतर विकल्प फिलहाल नजर नहीं आ रहा है। दूसरा केजरीवाल के इस बयान कि ‘वह इस्तीफा देंगे और चुनाव होने तक एक नया मुख्यमंत्री नियुक्त किया जाएगा’ की एक और व्याख्या यह भी हो सकती है कि वह लंबे समय के लिए पार्टी के भीतर किसी अन्य नेता को कमान सौंपने का जोखिम नहीं उठा सकते। जब जयललिता या लालू प्रसाद जैसे लोकप्रिय अन्य मुख्यमंत्रियों को गिरफ्तार किया गया था तो उनके स्थान पर नए मुख्यमंत्री नियुक्त किए गए थे। हाल ही में हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी के बाद भी झारखंड में एक कार्यवाहक मुख्यमंत्री था। सिर्फ दिल्ली ही सत्ता के इस परंपरा से अलग रही है जो शायद केजरीवाल की ओर से थोड़ी असुरक्षा की भावना को दर्शाता है।

यह इस्तीफा उनकी हार को कम करने और अपनी खोई हुई चमक को फिर से हासिल करने का एक प्रयास है और इमोशनल कार्ड के जरिए एक बार फिर दिल्ली की सत्ता पर काबिज होना चाहते हैं।

रहा सवाल केजरीवाल का इस्तीफा का यह दांव किस पर भारी पड़ेगा? वैसे तो कांग्रेस इंडिया गठबंधन को मजबूत बनाने का दावा करती है मगर हरियाणा में आप और कांग्रेस के बीच गठबंधन नहीं हो सका। इस्तीफे के इमोशनल कार्ड के जरिए केजरीवाल भाजपा के साथ ही कांग्रेस को भी बड़ा सियासी नुकसान पहुंचा सकते हैं।

केजरीवाल की दिल्ली के तिहाड़ जेल से रिहाई और फिर इस्तीफे के ऐलान की टाइमिंग काफी महत्वपूर्ण है। उन्होंने यह दांव ऐसे समय में खेला है जब हरियाणा में चुनावी बिसात पूरी तरह बिछ चुकी है। हालांकि कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने हरियाणा में आप के साथ गठबंधन की इच्छा जताई थी मगर कांग्रेस की स्थानीय इकाई के विरोध और सीटों पर सहमति न बन पाने के कारण दोनों दलों का गठबंधन नहीं हो सका। अब हरियाणा के विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी ने राज्य की सभी 90 विधानसभा सीटों पर अपने प्रत्याशी उतार दिए हैं।

हरियाणा में केजरीवाल की सक्रियता कांग्रेस को नुकसान पहुंचाने वाली साबित हो सकती है। हालांकि शहरी वोटरों में सेंधमारी करके केजरीवाल भाजपा को भी नुकसान पहुंचा सकते हैं। यही नहीं इस्तीफा देने के ऐलान के साथ ही केजरीवाल ने दिल्ली में तत्काल विधानसभा चुनाव कराने की मांग भी कर डाली है।

लोकसभा चुनाव खत्म होने के बाद ही केजरीवाल ने स्पष्ट कर दिया था कि कांग्रेस से गठबंधन सिर्फ लोकसभा चुनाव तक ही सीमित था। आप को मजबूती देने में दिल्ली का बड़ा योगदान रहा है और ऐसे में आप दिल्ली की सत्ता हाथ से नहीं जाने देना चाहती। इसलिए माना जा रहा है कि दिल्ली के विधानसभा चुनाव में आप अपनी ताकत दिखाने के लिए पूरे दमखम के साथ मैदान में उतरेगी।

भाजपा के लिए चुनौती बनेंगे केजरीवाल
मुख्यमंत्री पद छोड़ने के ऐलान के बाद अब केजरीवाल भाजपा के लिए भी बड़ी चुनौती बनेंगे। दिल्ली के शराब घोटाले को लेकर भाजपा ने केजरीवाल पर इस्तीफा देने का दबाव बना रखा था और अब इस्तीफे का ऐलान करके केजरीवाल ने भाजपा को भी जवाब दे दिया है। यह बात पूरी तरह स्पष्ट है कि दिल्ली का मुख्यमंत्री चाहे जिसे भी बनाया जाए मगर हकीकत में सत्ता और पार्टी की कमान पूरी तरह अरविंद केजरीवाल के हाथों में ही रहेगी। मुख्यमंत्री पद छोड़ने के बाद भाजपा सीधे तौर पर केजरीवाल पर हमला भी नहीं कर पाएगी। सुप्रीम कोर्ट से जमानत हासिल करने के बावजूद केजरीवाल कोर्ट की शर्तों से बंधे हुए थे मगर इस्तीफा देने के बाद वे भाजपा के खिलाफ और आक्रामक रुख अपनाएंगे। इस्तीफे का दांव चलने के बाद केजरीवाल के साथ लोगों की सहानुभूति भी होगी जिसके जरिए वे आप को मजबूत बनाने की कोशिश करेंगे।

केंद्र के खिलाफ अब और आक्रामक होगी ‘आप’
दिल्ली की सियासत के साथ अब केजरीवाल अन्य चुनावी राज्यों में भी केंद्र सरकार और भाजपा के खिलाफ मोर्चा खोलेंगे। दिल्ली में जल्द ही चुनाव कराने की केजरीवाल की मांग से जाहिर होता है कि वे जल्द से जल्द जनता की अदालत से समर्थन हासिल करना चाहते हैं। आने वाले दिनों में भी वे अपने आक्रामक रुख के जरिए केंद्र को घेरने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ेंगे। हालांकि भाजपा की ओर से कहा जा रहा है कि इस्तीफा देना केजरीवाल की मजबूरी थी मगर केजरीवाल ने इस्तीफे के ऐलान के साथ जो भावुक अपील की है उसका असर चुनाव में भाजपा के लिए भारी पड़ सकता है।

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