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बदलते वक्त के साथ बदल रहा समाज

 

देश को आजाद हुए 75 वर्ष पूरे हो गए हैं तो वंही हाशिए पर रहने वाला एलजीबीटीक्यू समुदाय समाज में धीरे-धीरे अपनी अलग पहचान बना रहा है। बदलते वक्त के साथ समुदाय को अधिकार भी मिल रहे हैं और उसकी आवाज को समर्थन भी मिल रहा है। देश में एलजीबीटीक्यू की आबादी पर कोई आधिकारिक आकड़ा नहीं है लेकिन वर्ष 2012 में देश के उच्चतम न्यायालय को केंद्र सरकार ने बताया था कि भारत में लजीबीटीक्यू समुदाय की संख्या लगभग 25 लाख है। वर्ष 2011 की जनगणना में एलजीबीटीक्यू समुदाय की आबादी लगभग 4 लाख 90 हजार दर्ज की गई थी, लेकिन सरकार का कहना है कि यह संभव है कि कुछ एलजीबीटीक्यू स्वामुदाय के लोगों ने अपनी पसंद के मुताबिक खुद को पुरुष या महिला के रूप में पहचान दी होंगी ।

बदलाव शुरू होती है वर्ष 2018 में दिए गए उच्चतम न्यायालय के एक फैसले से उस समय न्यायालय ने आपने फैसले में आईपीसी की धारा 377 को समाप्त करते हुए दो वयस्कों के बीच बनाए गए समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया था। इसके बाद से ही एलजीबीटीक्यू समुदाय के लोगों को कई स्तरों पर पहचान मिलने लगी। उच्चतम न्यायालय के ऐतिहासिक फैसले के बाद से अधिक से अधिक कॉरपोरेट घराने जैसे कि एक्सचेंज, एफएमसीजी दिग्गज प्रॉक्टर एंड गैंबल और टाटा स्टील जैसी कंपनियों ने चिकित्सा लाभों समेत एलजीबीटीक्यू समुदाय के अनुकूल नीतियां पेश की है। इसके साथ उन्होंने उनके पार्टनर के लिए मेडिकल सुविधाएं देने लगी।

देश में इस समुदाय ने लंबा सफर तय किया है। सामाजिक और पारिवारिक टिप्पणियों को ध्यान न देते हुए समुदाय के सदस्यों ने समाज में अलग पहचान बनाई है,लेकिन कई स्तरों पर भारतीय समाज इन समुदाय के लोंगो के साथ भेदभाव, शोषण, अपमान करते है। लगातार इस तरह की खबर सामने आती रहती है।एक रिपोर्ट के मुताबिक,इस पर एलजीबीटीक्यू अधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि देश में इन समुदाय को लाभ केवल कागजो पर मिलता है। मिलता है तो सिर्फ अपमान और भेदभाव ,जो मभी भी झेलना पड़ता है।


देश के दक्षिणी राज्य तमिलनाडु को एलजीबीटीक्यू समुदाय के अग्र दूत के रूप में जाना जाता है। इसी वर्ष उसने इस समुदाय से संबंधित लोगों और इनके कल्याण के लिए काम करने वाले गैर-सरकारी संगठनों को पुलिस उत्पीड़न से बचाने के लिए तमिलनाडु सरकार ने आपने अधीनस्थ पुलिस अधिकारी आचरण नियमावली में संशोधन किया था। तब गृह विभाग की ओर से जारी आदेश में कहा गया था कि कोई भी पुलिस अधिकारी इन एलजीबीटीक्यू समुदायों के लोगों और इनके कल्याण से जुड़े गैर-सरकारी संगठनों के कार्यकर्ताओं को परेशान नहीं करेगा।एक रिपोर्ट के मुताबिक,ट्रांस अधिकार कार्यकर्ता और सहोदरी फाउंडेशन की संस्थापक कल्कि सुब्रमण्यम कहती हैं कि तमिलनाडु सरकार एलजीबीटीक्यू समुदाय के अधिकारों में अग्रणी है, खासकर तब जब ट्रांसजेंडर के जीवन को पहचानने की बात आती है।वर्ष 1994 से ही तमिलनाडु ने ट्रांसजेंडर समावेशी कदम उठाने शुरू कर दिए थे, जब उसने ट्रांसजेंडर सदस्यों को मतदान का अधिकार दिया था। तमिलनाडु की ही तरह अन्य राज्यों ने ट्रांसजेंडर के समर्थन में कदम उठाए हैं। ओडिशा, कर्नाटक और केरल ने पिछले साल सरकारी नौकरियों में ट्रांसजेंडर लोगों के लिए एक फीसदी कोटा निर्धारित किया था।

एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक,एलजीबीटीक्यू मैचमेकिंग ऐप में काम में करने वाले पायल (बदला हुआ नाम ) का कहना है कि वह अपने पार्टनर के साथ एक छोटा सा व्यवसाय भी चलाती हैं। वह कहती हैं कि नीतियों के कार्यान्वयन का आकलन करने के लिए संगठनों, कंपनियों और सार्वजनिक कार्यालयों की ऑडिटिंग समान रूप से महत्वपूर्ण है।

हालांकि ढाई साल पहले आई कोरोना महामारी के कारण इन समुदाय के सदस्यों को आजीविका के संकट का सामना करना पड़ा था।ऐसे इन लोगों को लॉकडाउन के कारण आवाजाही में दिक्कत हुई और उन्हें भुखमरी तक का सामना करना पड़ा है लेकिन स्थिति में सामान्य होने से उन्हें रोजगार के अवसर भी अब मिलने लगे हैं। 3 वर्ष पहले इस समुदाय के लिए एक और सकारात्मक कदम उठाया गया था। वह था ट्रांसजेंडर व्यक्तियों (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, जो उन्हें स्वास्थ्य, शिक्षा, कौशल विकास, आवास, अन्य तक समान पहुंच प्रदान करता है।

 

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