महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून देश की एकमात्र योजना है, जो 2008 के वैश्विक आर्थिक सुनामी और 2020 में विश्वव्यापी कोरोना महामारी के दौरान लोगों के लिए संजीवनी साबित हुई। वित्तीय वर्ष 2020-21 में भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय ने 1.11 लाख करोड़ रुपये खर्च कर 7.5 करोड़ परिवारों के 11 करोड़ श्रमिकों को रोजगार प्रदान किया था। यह मनरेगा के 16 वर्षो के इतिहास में सर्वाधिक बजटीय आवंटन था। इसका एक प्रमुख कारण कोविड जैसे महामारी में जब देश ही नहीं पूरी दुनिया में आर्थिक गतिविधियां थम गई थीं, तब मजदूरों को इसी योजना ने व्यापक पैमाने पर रोजगार मुहैया कराया था। लेकिन इसके बावजूद ग्रामीण भारत की अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करने वाली मनरेगा योजना में केंद्र की मोदी सरकार लगातार कटौती कर रही है।
गौरतलब है कि लोकसभा में 2021-22 का बजट पेश किया, तो उसमें वित्त मंत्री ने पिछले वित्त वर्ष के मुकाबले 25.51 प्रतिशत की मनरेगा में कटौती करते हुए महज 73,000 करोड़ रुपये आवंटित की किया गया। बाद में पुनरीक्षित बजट प्रावधान में 25,000 करोड़ की राशि शामिल करते हुए इसे 98,000 करोड़ रुपये किया गया। लेकिन बजट कटौती के बावजूद भी इस वर्ष 6.74 करोड़ परिवारों के 9.75 करोड़ मजदूरों ने मनरेगा योजना में काम किया ।वर्तमान वित्तीय वर्ष 2022-23 के बजट आवंटन में तो सरकार ने पिछले वर्ष जहाँ कुल बजट आवंटन 98,000 करोड़ रुपये था, उसके मुकाबले 12 प्रतिशत की कटौती करते हुए सिर्फ 73,000 करोड़ बजट आवंटित किया है।
यदि हम इस बजट आवंटन को गहराईसे देखें तो इस 73,000 करोड़ में से 18,350 करोड़ तो वित्तीय वर्ष 2021-22 के बकाये भुगतान में ही खर्च हो जाएगा । इसका मतलब यह हुआ कि वर्ष 2022-23 के लिए वास्तविक बजट आवंटन राशि सिर्फ 54,650 करोड़ है। जब मनरेगा कानून यूपीए -1 की सरकार ने 2005 में लाया था, तब देश के कुल जीडीपी के 4 प्रतिशत राशि मनरेगा के लिए आवंटित की गई थी। जिसे भाजपा राज में घटकर 2 प्रतिशत कर दिया गया और वर्तमान में यह घटकर 1.7 प्रतिशत ही रह गई है।
इस मनरेगा बजट कटौती का सीधा प्रभाव देश के ग्रामीण खेतिहर मजदूरों पर पड़ रहा है। देश के मनरेगा मजदूरों की मजदूरी राज्यों की न्यूनतम कृषि मजदूरी से भी कम है। उन्हें किसी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा की गारंटी भी नहीं है। रोजमर्रा की खाद्य पदार्थों की कीमतें आसमान छू रही हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी चीजें महँगी होने से हालात खराब हो रहे हैं। राज्य सरकारें राशि के अभाव में मजदूरों को काम देने से सीधे मना कर रही हैं। जिससे ग्रामीण मजदूर परिवारों का पलायन तेजी से शहरों और महानगरों की ओर होने लगा है। एक ओर सरकार बजट आवंटन में निरंतर कमी के चलते, मनरेगा में काम करने से खुद ही कतराने लगे हैं। मनरेगा मजदूरी के लिए सरकार ने कई प्रक्रियाएं लगाई हुई हैं। जो मजदूरों के लिए तकनीकी बाधाएं खड़ी कर रही हैं । पहले सरकार ने अव्यवहारिक जातिवाद एफटीओ सृजित करना प्रारंभ किया। पिछले दिनों मई के महीने से आदेश निर्गत है कि हाजरी सिर्फ स्मार्ट फोन के जरिए ही सीमित समय अवधि के अंदर लगानी है। साथ में सुबह और शाम दो बार मजदूरों को कार्यस्थल के साथ फोटो अपलोड करना अनिवार्य है।
बीते 1 अगस्त से नया आदेश है कि किसी भी ग्राम पंचायत में 20 से ज्यादा योजना नहीं चलाई जाएँगी। जिसे लेकर सवाल उठ रहे हैं की उन राज्यों का क्या होगा जहां बारिश न होने से सूखा पड़ गया है। ऐसे में ग्रामीण परिवारों के समक्ष करो या मरो की स्थिति पैदा हो गई है। जबकि सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश के कई राज्यों में मनरेगा मजदूरों का पिछले 6 महीने से 3989.58 करोड़ रुपए का भुगतान बकाया है।इसी को लेकर देश भर से आए मनरेगा मज़दूर राष्ट्रिय राजधानी दिल्ली में धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं। और उनकी मांग है कि लगातार कट रही मनरेगा बजट को बढ़ाया जाएं।
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