दुनियाभर में ‘एफजीएम’ से करोड़ों महिलाएं गुजरती हैं। एफजीएम (फीमेल जेनिटल म्यूटिलेशन) से तात्पर्य महिलाओं का खतना है। इस दर्दनाक प्रथा का सामना सबसे अधिक दाऊदी बोहरा समुदाय की महिलाएं कर रही हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार भारत सहित 30 देशों में करीब 20 करोड़ महिलाओं का ‘एफजीएम’ हुआ है, वहीं गैर लाभकारी संगठन ‘साहियो’ द्वारा वर्ष 2015-16 में किया गया सर्वेक्षण बताता है कि इस समुदाय की करीबन 80 प्रतिशत महिलाओं का अब तक खतना हो चुका है। ऐसी स्थिति में सवाल उठ रहे हैं कि आखिरकार एफजीएम जैसी दर्दनाक प्रथा से कब निजात मिलेगी
दुनियाभर में हर विषय पर विमर्श को लेकर अनेक आधार तय हो गए हैं। लोग हर मुद्दे पर खुलकर बेबाक राय रखने लगे हैं। हर कोई अपने अधिकारों के प्रति सजग भी हो रहा है। लेकिन इनमें सबसे अधिक जरूरी मुद्दा है महिलाओं के साथ व्यवहार और उनको लेकर समाज में संकुचित होती समझ। बड़ा ही अजीब है, लेकिन विडंबनापूर्ण भी है कि बदलते दौर में अगर अब भी कुछ नहीं बदला है तो वह है महिलाओं की समाज में स्थिति और उनको लेकर पुरुष समाज का नजरिया। इन सबके बीच सबसे बढ़िया बात तो यह है कि अब अपनी स्थिति को बेहतर बनाने का जिम्मा भी महिलाओं ने खुद ही संभाल लिया है। दुनियाभर में महिलाएं किसी ने किसी माध्यम से अपनी कहानी को खुलकर सामने रख रही हैं। लेकिन फिर भी कुछ मुद्दे अभी भी ऐसे हैं जिन पर न बात होती है, न ही करने दी जाती है।
साल भले ही कोई भी रहा हो, महिलाओं की स्थिति हमेशा संघर्ष के इर्द-गिर्द ही घूमती नजर आती है। शायद इसलिए भी कहा गया है, महिलाओं पर हिंसा का इतिहास पुराना है। लेकिन इन हिंसाओं को खत्म कैसे किया जाए? इसके लिए इन हिंसाओं को समझना बेहद जरूरी है, क्योंकि धर्म-संस्कृति के नाम पर चलाई जाने वाली ढेरों प्रथाएं अपनी परतों में महिला हिंसा के वीभत्स रूप को समेटे हुए हैं। इन्हीं में से एक प्रथा है ‘खतना’। खतना, सुन्नत यहूदियों और मुसलमानों में एक धार्मिक संस्कार माना जाता है। इस धार्मिक संस्कार के अनुसार लड़का पैदा होने के कुछ समय बाद उनके लिंग के आगे की चमड़ी को निकाल दिया जाता है। वैसे तो इसका संबंध किसी खास धर्म, जातीय समूह या जनजाति से हो सकता है, लेकिन यह भी कहा जाता है कि कई बार बच्चों के माता-पिता अपने बच्चों का खतना, साफ-सफाई या स्वास्थ्य कारणों से भी कराते हैं।
कई वैज्ञानिकों का भी कहना है कि खतना किए गए पुरुषों में संक्रमण का जोखिम कम रहता है क्योंकि लिंग की आगे की चमड़ी के बिना कीटाणुओं के पनपने के लिए नमी का वातावरण नहीं मिलता है। लेकिन बहुत से लोगों का मानना है कि यह एक हिंसक कृत्य है और शरीर के लिए केवल नुकसानदायक है। मुस्लिम समुदाय में आपने अभी तक पुरुषों के खतना प्रथा का जिक्र कहीं न कहीं जरूर सुना होगा लेकिन इसी कड़ी में एक नाम आता है एफजीएम (फीमेल जेनिटल म्यूटिलेशन), जिसको शायद ही कोई जानता होगा। क्योंकि न ही इसका जिक्र ज्यादा होता है और न ही महिलाओं से जुड़े अमानवीय मुद्दों पर हमारे देश में बात की जाती है। दूसरा एक कारण यह भी है कि एफजीएम पर अधिकतर बातचीत फुसफुसा कर ही की जाती है, अब तक तो यही हालात हैं।
दुनियाभर में इस अमानवीय प्रथा से करोड़ों महिलाएं गुजरती हैं। जिसे ‘एफजीएम’ यानी ‘महिलाओं का खतना’ कहा जाता है। भारत भी इस अमानवीय कृत्य से अछूता नहीं है। इस दर्दनाक प्रथा का सबसे अधिक सामना दाऊदी बोहरा समुदाय की महिलाएं कर रही हैं। भारत में दाऊदी बोहरा मुस्लिम समुदाय के लोग गुजरात के सूरत, अहमदाबाद, जामनगर, राजकोट, दाहोद, और महाराष्ट्र के मुंबई, पुणे, नागपुर, राजस्थान के उदयपुर, भीलवाड़ा और मध्य प्रदेश के उज्जैन, इंदौर, शाजापुर, जैसे शहरों और कोलकाता एवं चेन्नई में हैं। पाकिस्तान के सिंध प्रांत के अलावा ब्रिटेन, अमेरिका, दुबई, ईराक, यमन एवं सऊदी अरब में भी उनकी अच्छी तादाद है। सबसे चिंतनीय यह है कि राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी महिलाओं का कोई आधिकारिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है लेकिन समुदाय की महिलाओं पर गैर लाभकारी संगठन ‘साहियो’ द्वारा वर्ष 2015-16 में किया गया एक सर्वेक्षण बताता है कि इस समुदाय की करीबन 80 प्रतिशत महिलाओं का अब तक खतना हो चुका है। इस सर्वे में भारत की बोहरा समुदाय की महिलाएं भी शामिल थीं। इस प्रथा के समर्थकों द्वारा कहा जाता है कि वह अपनी धार्मिक परंपराओं के निर्वहन और महिलाओं की कामुकता को नियंत्रित करने के लिए ऐसा करते हैं।
गैर लाभकारी संगठन ‘साहियो’ द्वारा फरवरी 2017 में दाऊदी बोहरा समुदाय पर किए गए एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि दाऊदी बोहरा समुदाय की अधिकांश आबादी भारत और पाकिस्तान में मौजूद हैं। लेकिन पिछले कुछ दशकों में यह समुदाय मध्य पूर्व, पूर्वी अफ्रीका, यूरोप, उत्तरी अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और एशिया के अन्य हिस्सों में पलायन कर गया है। ‘साहियो’ द्वारा इन क्षेत्रों में रहने वाली 385 महिलाओं का ऑनलाइन सर्वेक्षण किया गया। इनमें से 80 प्रतिशत ने माना कि उनका ‘एफजीएम’ किया गया है। इन महिलाओं द्वारा एफजीएम के चार प्रमुख कारण बताए गए। पहला और सबसे बड़ा कारण है धार्मिक आधार (56, दूसरा कामुकता में कमी 45, तीसरा परंपरा का निर्वहन 42 और चौथा कारण शारीरिक स्वच्छता (27 प्रतिशत)।
हाल ही में जारी हुई डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट के अनुसार, दुनियाभर के 30 देशों में करीब 20 करोड़ महिलाएं खतना की शिकार हो चुकी हैं। यह प्रथा सबसे अधिक प्रचलन में अफ्रीका, मध्य पूर्व और एशिया में मानी जाती है। कई रिपोर्ट्स के मुताबिक महिलाओं में खतना को मुख्य रूप से जन्म के बाद 15 साल की आयु तक अंजाम दिया जाता है। यह मुख्य रूप से चार प्रकार से होता है जिसमें बच्चियों के जननांग (क्लाइटोरिस) के ऊपरी हिस्से को आंशिक या पूरी तरह काट दिया जाता है। इस प्रथा से अत्यधिक रक्तस्राव होता है और छोटी उम्र की बच्चियां इस असहनीय पीड़ा से गुजरती हैं। डब्ल्यूएचओ के अनुसार इस प्रथा के तहत महिलाओं और बच्चियों के मानवाधिकारों का हनन हो रहा है। इस पर तत्काल रोक लगाने की आवश्यकता है।
डब्ल्यूएचओ के डिपार्टमेंट ऑफ सेक्सुअल एंड रिप्रोडक्टिव हेल्थ एंड रिसर्च के निदेशक इयान आस्क्यू के अनुसार, ‘एफजीएम’ केवल मानवाधिकारों का गंभीर हनन ही नहीं, बल्कि इससे लाखों लड़कियों एवं महिलाओं के मानसिक-शारीरिक स्वास्थ्य पर भी असर होता है। इस बुराई को हमेशा के लिए खत्म करने में अधिक से अधिक निवेश की जरूरत है।
डब्ल्यूएचओ के अनुसार एफजीएम महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव का चरम रूप है। यह गहराई तक जड़ जमा चुकी लैंगिंग असमानता को भी उजागर करता है। संगठन का कहना है कि यह मुख्य रूप से छोटी उम्र में किया जाता है जो बाल
अधिकारों का भी हनन है। संयुक्त राष्ट्र ने एफजीएम को खत्म करने के लिए इसे सतत विकास लक्ष्यों के तहत लैंगिग समानता के लक्ष्य में शामिल किया है। वर्ष 2030 तक इस प्रथा को खत्म करने का लक्ष्य रखा गया है। दुनिया के कई देशों में इस प्रथा पर प्रतिबंध लग चुका है। लेकिन भारत में इस पर प्रतिबंध नहीं लगाया गया है।
छोटी उम्र और दर्दनाक प्रथा खतना
बोहरा समुदाय में लड़कियों का बेहद छोटी उम्र में ही खतना करा दिया जाता है। महज 6 से 8 साल के बीच इस प्रथा के प्रहार उन पर कर दिए जाते हैं। अधिकतर मामलों में खतना के बाद हल्दी, गर्म पानी और छोटे-मोटे मरहम लगाकर लड़कियों के दर्द को कम करने की कोशिश की जाती है। बोहरा मुस्लिम समुदाय से संबंधित एक महिला के अनुसार क्लिटोरिस को बोहरा समाज में ‘हराम की बोटी’ कहा जाता है। बोहरा समुदाय में यह भी माना जाता है कि इसकी मौजूदगी से लड़की की यौन इच्छा बढ़ती है और इसे रोकना ही एकमात्र उपाय है। ऐसा माना जाता है कि क्लिटोरिस हटा देने से लड़की की यौन इच्छा कम हो जाती है और वह शादी से पहले यौन संबंध नहीं बना सकती। अक्सर यह देखा गया है कि परंपराओं के नाम पर महिलाओं का शोषण होता रहा है। खतना भी उसी शोषण का एक हिस्सा माना जा सकता है। इसके जरिए न सिर्फ महिलाओं की सेक्स इच्छा को नियंत्रित करने का भरसक प्रयास किया जाता है, बल्कि उसे कई तरह की यातना झेलने को भी विवश किया जाता है। खतना के बाद महिलाओं को माहवारी और प्रसव के दौरान कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
चार हजार साल पहले नील नदी, जो अरब और अफ्रीका के बीच में बहती है, के किनारे यहूदियों की एक आबादी बसती थी। उनके यहां एक तहजीब थी। वे अपनी बच्चियों के अंग का एक छोटा सा टुकड़ा अपने खुदा की खुशी के लिए उसकी राह में कुर्बानी के तौर पर पेश करते थे। जिसे वे बहुत फक्र और गर्व के साथ अंजाम देते थे। उसी जनजाति की एक और शाखा जिसे फलाशा कहते हैं, इथोपिया में पाई जाती है। उनमें बच्चियों के खतने का रिवाज आज भी पाया जाता है। सवाल य है कि इस्लाम की इसमें क्या राय है?
इस्लाम में चीजों को जब बयान किया जाता है तो उसका अस्तित्व कुछ इस तरह होता है। जैसे वाजिब वे कार्य जिसका करना जरुरी है, मगर छोड़ना मना है। जैसे हराम, जिसका छोड़ना वाजिब और करना मना है, जैसे मुस्तहब, करो तो अच्छा है छोड़ो तो अच्छा नहीं है और जायज कर सकते हो, न करो तो मसला नहीं है। इस्लाम में चार बड़े इमामों के मानने वाले पाए जाते हैं जो अहले सुन्नत वल जमात कहे जाते हैं। इसमें इमाम अबू हनीफा, इमाम मालिक, इमाम अहमद इबने -ए-हंबल और इमाम शाफई शामिल हैं। इमामे शाफई के यहां खतना वाजिब है बच्चे या बच्ची दोनों का। इमाम नूरी एक आलिम हैं और मुल्ला मोहम्मद रबीई लिखते हैं कि ये हजरते इब्राहिम के जमाने से होता चला आ रहा है। सुन्नियों के दूसरे इमाम अबू हनीफा ने और उनके एक आलिम अबु अब्दुल्लाह मालिक इबने-ए-अनस ने इस कार्य को बच्चों के लिए वाजिब और बच्चियों के लिए मुस्तहब माना है। इन्हीं के एक आलिम इमाम शौकानी ने यह कहा ‘कोई दलील नहीं है कि इसको वाजिब माना जाए पर इसको मुस्तहब माना जा सकता है।’
सुन्नियों के तीसरे इमाम अहमद इब्ने हम्बल ने जिनके अनुयायियों को हंबली मुसलमान कहा जाता है उनके यहां खतना लड़कों के लिए वाजिब और बच्चियों के लिए मुस्तहब माना जाता है। 2005 में अहमद मोहम्मद अहमद अल तैयबा जो मिश्र की ख्याति प्राप्त और सबसे बड़ी यूनिवर्सिटी ‘अल-अजहर’ के वाइस चांसलर थे। जब उनसे इस बारे में पूछा गया है तो उन्होंने भी 2005 में इसे न वाजिब माना न मुस्तहब माना बल्कि इसे जुर्म माना। ऐसे ही यूसुफ अब्दुल्लाह जो मुस्लिमों में बुद्धिजीवी माने गए हैं। उन्होंने भी इसे जुर्म माना है।
शियाओं में कानून के दो प्रकार हैं और उस काम को करने के भी दो प्रकार हैं एक बेसिक है और एक सांकेतिक। मेजोरिटी शिया उलेमा और मराजे (ग्रांट अयातुल्ला) जैसे आयतुल्ला नूरी हक्कानी, सांकेतिक तौर पर इस कार्य को करने को मना नहीं करते उसी जगह अताउल्लाह नासिर मकारिम इसे स्वीकार नहीं करते। वहीं एक बुजुर्ग आलिम शहीद सानी और मोहम्मद हसन हुर्रे आमली सांकेतिक तौर पर इस कार्य को करने को मना नहीं करते। इस्माइलियों में एक गिरोह पाया जाता है मुस्तक हल्बी जो मिस्र में ये कार्य किया करते थे जो वहां मैं मिस्र से माइग्रेट होने के बाद भारत आए। ये बोहरा और इस्माइलियों में कुछ ही प्रतिशत में आज यह प्रथा प्रचलन में पाया जाता है। बाकी न ही सुन्नियों में और न ही शियाओं में इसका कोई जिक्र या मालूमात मिलती है। शायद ही कोई सुन्नी या शिया घर इस पूरे 20 करोड़ में ऐसा होगा जिनकी बच्चियों को यह पता हो कि यह कानून है भी या नहीं। 1995 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी यह माना था कि लड़कियों का भी खतना हो सकता है। हालांकि शिया बाहुल्य देश ईरान में इसे जुर्म माना जाता है।
डॉ. मौलाना कल्वे रुशैद रिजवी, शिया धर्मगुरु एवं चिंतक