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अमेरिकी मदद को नेपाली संसद में मंजूरी

नेपाल की अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण समझी जाने वाली अमेरिकी मदद को नेपाली संसद ने अंततः मंजूरी दे ही दी है। कहा जा रहा है कि इस मदद के कारण नेपाल के रिश्ते चीन संग खराब हुए हैं

चीन की तमाम कोशिशों और विरोध के बाद भी आखिरकार नेपाल ने अमेरिका के साथ उस ­आर्थिक सहयोग परियोजना ‘एमसीसी’ को संसद में मंजूरी दे दी है। जिसे लेकर नेपाल की आम जनता विरोध में सड़कों पर थी और सत्ताधारी गठबंधन के सहयोगी संसद के अंदर मुंह फुलाएं बैठे थे। रोष अमेरिका से मिली एक ग्रांट पर है। ये ग्रांट लगभग चार हजार करोड़ रुपये की है। वर्ष 2017 में हुए एक समझौते के तहत नेपाल को यह ग्रांट मिल रही है। इन पैसों से नेपाल से लेकर भारत के गोरखपुर तक बिजली की लाइन बिछनी है। इसके अलावा एक हिस्सा सड़कों के विकास पर भी खर्च होना है। लेकिन ग्रांट मिलने से पहले ही इसको लेकर नेपाल के भीतर और बाहर प्रश्न उठने लगे हैं। चीन का कहना है कि इसके जरिए अमेरिका नेपाल में अपनी सैन्य उपस्थिति बढ़ा सकता है और चीन को भी अस्थिर करने का प्रयास कर सकता है। लेकिन आम जनता और चीन के विरोध को दरकिनार करते हुए नेपाल की संसद ने अमेरिकी सहयोग को स्वीकार लिया है।

दरअसल, अमेरिका संग इस ग्रांट की बाबत समझौता वर्ष 2017 में हुआ था लेकिन समझौते को पांच साल बाद भी नेपाल की संसद से मंजूरी नहीं मिल पाई थी। पांच साल से अटके प्रस्ताव को एक बार फिर नेपाली संसद के फरवरी में शुरू हुए सत्र में पेश किया गया। अमेरिका ने संसद में मंजूरी की बकायदा एक डेडलाइन 28 फरवरी 2022 तय कर डाली थी। अंततः समझौते को संसद से मंजूरी मिल गई है। अमेरिका को लेकर नेपाल में स्थिति अस्त-व्यस्त तो हुई पर अमेरिकी सहयोग के साथ ही एमसीसी नाम की भी नेपाल में खूब चर्चा हो रही है। नेपाल में मिलेनियम चैलेंज कॉर्पोरेशन (एमसीसी) के विरोध को समझने के लिए द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की परिस्थितियों को समझना जरूरी है।

मार्शल प्लान ने बढ़ाई अमेरिकी ताकत
यूरोप को दूसरे विश्व युद्ध ने तबाही के कगार पर ला दिया था। उस समय करोड़ों लोगों की मौत, मानवीय हानि और आशंकाओं के साये में भविष्य पल रहा था। कभी पूरी दुनिया में उपनिवेश कायम करने वाला यूरोप मदद की बाट जोह रहा था।
1940 के दशक में ब्रिटेन पड़ोसी मुल्क ग्रीस में चल रहे गृह युद्ध में सरकार की मदद कर रहा था। वहां कम्युनिस्ट पार्टी के साथ जंग चल रही थी। 1947 की शुरुआत में ब्रिटेन ने आगे मदद मुहैया कराने से मना कर दिया। स्पष्ट था कि ब्रिटेन की मदद बंद होने से कम्युनिस्ट सरकार का विरोध कर रही ताकतें कमजोर हो जाती और ग्रीस में कम्युनिस्ट हावी हो जाते। सीधे अर्थों में कहें तो यूरोप का एक और देश सोवियत ब्लॉक में चला जाता। ब्रिटेन के एलान के फौरन बाद अमेरिका हरकत में आया। मार्च 1947 में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति हेनरी ट्रूमैन ने संसद के संयुक्त सत्र को संबोधित किया। उन्होंने ग्रीस को मदद देने की इजाज़त मांगी। इजाजत मिल गई। ट्रूमैन ने एलान किया कि जहां कहीं भी निरंकुश ताकतों का खतरा होगा, वहां अमेरिका मदद का हाथ बढ़ाएगा। उनका इशारा कम्युनिस्टों की तरफ था। इसे ‘ट्रूमैन सिद्धांत’ के नाम से जाना गया।

अमेरिका न्यूट्रल रहने की नीति से बाहर आ चुका था। अब जरूरत थी इसे रफ्तार देने की। इस दौर में एक प्लान बनाया गया, इसके सूत्रधार थे, उस समय अमेरिका के विदेश मंत्री रहे जॉर्ज सी ़मार्शल। वो वर्ल्ड वॉर के समय यूएस आर्मी के चीफ ऑफ स्टाफ रह चुके थे। उन्हीं के नाम पर इस ‘यूरोपियन रिकवरी प्रोग्राम’ को मार्शल प्लान के नाम से भी जाना जाता है। जॉर्ज मार्शल ने जरूरतमंद देशों की मदद के लिए पूरा प्रस्ताव तैयार किया। इसके तहत, खाने-पीने के सामानों से लेकर आधारभूत संरचनाओं के विकास पर ज़ोर दिया गया। 3 अप्रैल 1948 को राष्ट्रपति ट्रूमैन ने मार्शल प्लान पर सहमति दे दी। मदद का सिलसिला शुरू हो गया। ये प्लान चार सालों के लिए था। इस दरम्यान ब्रिटेन, फ्रांस, बेल्जियम, नॉर्वे, समेत 16 देशों को लगभग 17 बिलियन डॉलर्स की रकम दी गई। मदद के रूप में ये कर्ज के तौर पर नहीं था। यानी, इसे लौटाना नहीं था। अमेरिका ने मार्शल प्लान के तहत इटली और वेस्ट जर्मनी को भी पैसे दिए। ये दोनों देश दूसरे वर्ल्ड वॉर में अमेरिका के दुश्मन थे। इस प्लान की कई मुद्दों पर आलोचना भी होती है। एक तर्क ये दिया जाता है कि मदद के नाम पर अमेरिका ने इन देशों में अपनी मनमानी चलाई।

दूसरा तर्क पैसों के इस्तेमाल को लेकर दिया जाता है। रिपोर्ट्स के अनुसार, मार्शल प्लान की कुल राशि का पांच प्रतिशत हिस्सा सीआईए के सीक्रेट ऑपरेशंस में लगाया गया। सीआईए ने कई देशों में फर्जी कंपनियां तैयार की। इसके जरिए वे अपना मिशन चला रहे थे। उन्होंने अमेरिका के फायदे के लिए सरकारें भी गिराईं। आलोचनाओं के विपरीत, मार्शल प्लान ने अमेरिका के रुतबे को विस्तार दिया। जब सोवियत संघ ढहा, अमेरिका इकलौती महाशक्ति बन गया इसकी नींव मार्शल प्लान ने कोल्ड वॉर की शुरुआत में रख दी थी।

मार्शल प्लान का विस्तार है एमसीसी
कालांतर में आर्थिक मदद का रास्ता अमेरिका की विदेश- नीति की पहचान बना। इसके जरिए उसने दुनियाभर में अपना प्रभुत्व कायम किया। अमेरिका ने अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं से लेकर मदद देने वाली एजेंसियों में अपना सिक्का जमाया। इसके माध्यम से उसने कई देशों में अपने हित में नीतियां बनवाईं और सरकारों को झुकने पर मजबूर भी किया। फिर आया साल 2001 जब एक बार फिर अमेरिका संकट में था। 11 सितंबर को अमेरिका पर आतंकी हमला हुआ। इस घटना में लगभग तीन हजार लोग मारे गए। अमेरिका ने हमले के पीछे के कारणों की समीक्षा की। इसमें एक आकलन ये भी निकला कि दुनियाभर में आतंकवाद के विस्तार के पीछे एक कारण गरीबी भी है। उस समय जॉर्ज डब्ल्यु बुश अमेरिका के राष्ट्रपति थे। उन्होंने एक नई एजेंसी बनाने का सुझाव दिया। ये एजेंसी अमेरिकी मदद को स्मार्ट तरीके से अल्प-विकसित और निम्न-आय वाले देशों तक पहुंचाने वाली थी। 2004 में अमेरिकी संसद ने प्रस्ताव को पास कर दिया। इस तरह मिलेनियम चैलेंज कॉर्पोरेशन (एमसीसी) के निर्माण का रास्ता साफ हुआ। कहा जा सकता है कि वर्तमान का एमसीसी मार्शल प्लान का ही विस्तार है।

बाकी एजेंसियों की तुलना में एमसीसी के काम करने का तरीका अलग है। वो मदद देने से पहले देशों की ग्रेडिंग करती है। उसके अपने पैरामीटर्स हैं। इनमें भ्रष्टाचार, आर्थिक स्वतंत्रता, कानून का शासन, लोगों में निवेश समेत लगभग 20 मानक शामिल हैं। नेपाल इस मामले में पिछड़ा हुआ था। वहां 2006 तक सिविल वॉर चल रहा था। इसके अलावा देश में भ्रष्टाचार और अस्थिरता का भी राज़ था। बाद में नेपाल ने मेहनत की। उसने तय मानकों के हिसाब से खुद को सुधारा। 2011 में सभी पार्टियों ने मिलकर नेपाल को प्रस्ताव भेजने के लिए तैयार किया। आखिरकार, 2015 में मिलेनियम चैलेंज का नेपाल ऑफिस खुला और 14 सितंबर 2017 को वाशिंगटन में प्रस्ताव पर दोनों पक्षों ने दस्तखत कर दिए। मिलेनिमय चैलेंज के तहत नेपाल ने लगभग पांच हजार करोड़ रुपये का प्रोजेक्ट तैयार किया। इसमें से चार हजार रुपये एमसीसी की तरफ से मिलने वाले थे। बाकी का पैसा नेपाल सरकार अपने खजाने से देती। नेपाल ने इस धनराशि को दो प्रोजेक्ट पर खर्च करने का प्लान तैयार किया है।

पहला प्रोजेक्ट 315 किलोमीटर लंबी बिजली ट्रांसमिशन लाइन से जुड़ा है। जबकि दूसरा प्रोजेक्ट सड़कों की मरम्मत से। बिजली से नेपाल आत्मनिर्भर होगा और वो भारत को बिजली की सप्लाई करने के लिए तैयार हो जाएगा। जबकि अच्छी सड़क से सुदूर इलाकों में कम खर्चे में सामान पहुंचाने में मदद मिलेगी। इससे नेपाल की आर्थिक तरक्की होगी, रोजगार के अवसर पैदा होंगे और वो विकास के पायदान पर आगे बढ़ेगा। एमसीसी ने मदद पर मुहर तो लगा दी, लेकिन अभी तक पैसा नहीं पहुंचा और प्रोजेक्ट शुरू नहीं हुआ है। इसकी वजह एमसीसी की एक जरूरी शर्त है कि पैसे पास होने के लिए संबंधित देश की संसद का अप्रूवल जरूरी होगा। अमेरिका का तर्क है कि इससे प्रोजेक्ट में पारदर्शिता बनी रहेगी और आम नागरिक इसके प्रति सजग रहेंगे। एमसीसी के समझौते में एक क्लाउज ये भी है कि अप्रूवल के बाद ये नेपाल के स्थानीय कानूनों से ऊपर होगा। एमसीसी की एंट्री पर आलोचकों का कहना है कि ये नेपाल की संप्रभुता के लिए खतरा है। बीच-बीच में कई अमेरिकी
अधिकारियों ने ऐसे बयान भी दिए हैं कि एमसीसी से अमेरिका की इंडो-पैसिफिक रणनीति को मजबूती मिलेगी। इससे नेपाल की जनता में यह संदेश गया कि अमेरिका उनके यहां अपने सैनिकों की तैनाती कर सकता है। हालांकि, इसको लेकर एमसीसी का कहना है कि ये सब दुष्प्रचार है। उनका कहना है कि नेपाल निम्न-आय वाला देश है और वे उसकी साफ दिल से मदद करना चाहते हैं।

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