कनाडा के प्रमुख व्यवसायिक शहर मॉन्ट्रियल में 16 सितम्बर को संसदीय उपचुनाव हुए। यह सीट लिबरल पार्टी के लिए सुरक्षित मानी जाती थी। लेकिन इस बार मॉन्ट्रियल में उसे करारी हार का सामना करना पड़ा। 17 सितंबर को आए नतीजों में 100 फीसदी मतों की गिनती के साथ लिबरल उम्मीदवार लौरा फिलिस्तीनी को अलगाववादी ब्लॉक क्यूबेका उम्मीदवार, लुई-फिलिप सावे ने हरा दिया है। जिसके बाद प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो की कुर्सी पर खतरा मंडराने लगा है। खुद उनकी ही पार्टी के नेताओं ने ट्रूडो पर पद छोड़ने का दबाव बढ़ा दिया है। अलगाववादी ब्लॉक क्यूबेकाइस के उम्मीदवार लुई-फिलिप सावे को 28 प्रतिशत मत मिले, जबकि उनकी तुलना में लिबरल उम्मीदवार लौरा फिलिस्तीनी को 27.2 प्रतिशत वोट मिले। यह उपचुनाव लिबरल सांसद के इस्तीफा देने के कारण हुआ, जिन्होंने अपने कार्यकाल के बीच ही पद छोड़ दिया था।
इसी राजनीतिक उथल-पुथल के बीच ट्रूडो के लिए एक मुश्किल और खड़ी हो गई है। जिसका सीट्टाा असर उनके प्रधानमंत्री पद पर पड़ रहा है। दरअसल खालिस्तान की पैरवी करने वाले प्रधानमंत्री ट्रूडो को जोर का झटका लगा है। खालिस्तान समर्थक एनडीपी नेता जगमीत सिंह ने जस्टिन ट्रूडो की सरकार से अपना समर्थन वापस लेने की घोषणा करते हुए कहा कि उनका धैर्य अब खत्म हो गया है। उन्होंने कहा कि ट्रूडो सरकार कमजोर हो चुकी है और कॉर्पाेरेट हितांे वाली हो चुकी है। उन्होंने कॉर्पाेरेट के आगे घुटने टेक दिए हैं, अब वो एक और मौके के हकदार नहीं हैं। एनडीपी के समर्थन वापस लेने के बाद जस्टिन ट्रूडो की सरकार अल्पमत में आ गई है। ऐसे में ट्रूडो के पास दो ही विकल्प बचते हैं या तो पद से इस्तीफा दे दें या चुनाव कराएं। ट्रूडो ने इस्तीफा देने से साफ इनकार कर दिया है। ऐसे में संभावना है कि 2025 में होने वाले आम चुनाव से पहले ही यहां मध्यावधि चुनाव हो सकते हैं जिसमें जीतना ट्रूडो के लिए बड़ी चुनौती होगी। सर्वेक्षणों के अनुसार जस्टिन ट्रूडो की लिबरल पार्टी इस चुनाव में विपक्षी दलों से काफी पिछड़ रही है।
विदेशी मामलों में नासमझ हैं ट्रूडो
राजनीतिक उथल-पुथल के बीच विपक्ष द्वारा जस्टिन ट्रूडो की सरकार पर कई आरोप लगाए जा रहे हैं। विपक्ष का कहना है कि ट्रूडो ने सरकारी खर्च पर लापरवाही से भार बढ़ा दिया है। इसके अलावा ट्रूडो देशभर में हो रहे हंगामे और विरोध- प्रदर्शनों को रोकने में भी नाकाम रहे हैं। उनकी सरकार शासन व्यवस्था नहीं संभाल पा रही है। कनाडा में राष्ट्रव्यापी विरोध-प्रदर्शन हो रहे हैं। करीब 70,000 से अधिक अंतरराष्ट्रीय छात्र स्नातकों को निर्वासन का सामना करना पड़ रहा है। गौरतलब है कि कनाडा में अंतरराष्ट्रीय छात्रों में सबसे बड़ा समूह भारतीयों का है। छात्र वर्क परमिट के विस्तार और स्थायी निवास के लिए पारदर्शी और स्पष्ट सरकारी नीति की मांग कर रहे हैं। खालिस्तान समर्थक चरमपंथियों ने भारत के स्वतंत्रता दिवस के मौके पर विरोध-प्रदर्शन करते हुए भारत विरोधी नारेबाजी की थी। हालांकि, कुछ जगहों पर उन्हें भारत समर्थकों का कड़ा सामना भी करना पड़ा था। भारत में प्रतिबंधित आतंकी संगठन सिख फॉर जस्टिस ने इस विरोध- प्रदर्शन का आयोजन किया था। ऐसे ही लगातार बढ़ते विरोध-प्रदर्शनों को लेकर विपक्ष ट्रूडो सरकार पर आरोप लगाता रहा है।
इसके अलावा कनाडाई प्रधानमंत्री पर यह भी आरोप लगाया जा रहा है कि उन्होंने भारत और कनाडा के मध्य संबंध खराब किए हैं। विपक्ष का आरोप है कि जस्टिन ट्रूडो जी 20 सम्मेलन के दौरान भारत से संबंध सुधार सकते थे। लेकिन उसमें भी वे असफल रहे। गौरतलब है कि पिछले साल से ही खालिस्तानी समर्थक हरदीप सिंह निज्जर की हत्या के बाद दोनों देशों के रिश्तों में तनाव आ गया है। कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया में हरदीप सिंह निज्जर की गुरूद्वारे के सामने हत्या हो गई थी। जिसके बाद संसद में जस्टिन ट्रूडो ने इस हत्या का आरोप भारतीय एजेंटों पर मड़ा। जिसे भारत द्वारा बेतुका कहते हुए खारिज कर दिया गया था। इस आरोप के बाद से ही दोनों देशों के बीच संबंध तनावपूर्ण हो गए हैं। हरदीप सिंह मामले से पहले ट्रूडो प्रधानमंत्री बनने के बाद पहली बार साल 2018 में भारत आए थे और उनकी यह यात्रा भी बेहद खराब रही थी। उस दौरान ही दोनों देशों के रिश्तों में खटास आ गई थी। अपने पहले भारतीय दौरे के दौरान उन्होंने एक दोषी करार दिए गए खालिस्तानी आतंकी को अपने साथ डिनर के लिए बुलाया था जिसके बाद भारत में उनकी खूब आलोचना हुई थी। भारत के अनुसार दोनों देशों के बीच मुख्य मुद्दा कनाडा की ओर से अपनी जमीन पर खालिस्तान समर्थकों को छूट देना ही है। इसीलिए कनाडा में चल रहे खालिस्तानी आंदोलन को लेकर दोनों के बीच तनाव रहा है। ऐसे में कनाडा के विपक्षी दलों का मानना है कि ट्रूडो के पास जी 20 सम्मेलन के दौरान ये सम्बंध सुधारने का बेहतरीन मौका था। लेकिन वे इसमें भी असफल रहे।
कनाडा में खालिस्तान मुद्दे को लेकर भी उन्हें घेरा जा रहा है,तो कभी विदेशी मामलों में नासमझ होने के साथ-साथ उन पर हिंदू विरोधी होने के आरोप भी लगाया जा रहा है। विपक्षी दलों द्वारा प्रधानमंत्री पर आरोप लगाया गया है कि वो फूट डालकर देश को बांटने का प्रयास कर रहे हैं। वहीं उनकी खुद की पार्टी भी उनकी आलोचना करते थक नहीं रही है। असामान्य रूप से, कुछ लिबरल नेता पार्टी में शीर्ष पद पर बदलाव की मांग कर रहे हैं। लिबरल पार्टी की नेता एलेक्जेंड्रा मेंडेस का कहना है कि उनके कई मतदाता चाहते हैं कि ट्रूडो चले जाएं। उन्होंने सार्वजनिक प्रसारक रेडियो-कनाडा से कहा, मैंने इसे दो, तीन लोगों से नहीं सुना-मैंने इसे दर्जनों लोगों से सुना कि वह अब सही नेता नहीं है। विदेशी मामलों के जानकारों का मानना है कि भारत दौरे के बाद ट्रूडो की घरेलू राजनीति काफी प्रभावित हुई है। कनाडा में उनके मुख्य राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी समेत उनके खुद की लिबरल पार्टी के नेता भारत और कनाडा के सम्बंधों को लेकर ट्रूडो की आलोचना करते नजर आते हैं। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार नाम न बताने की शर्त पर पार्टी के एक सांसद ने कहा कि ये वहीं प्रधानमंत्री हैं जो अपने नेताओं को पूरी बात खत्म करने से पहले ही चुप करा देते हैं। आप कुछ भी कहें, वो उसे पसंद नहीं करते, हमेशा बीच में ही रोक देते हैं। एक अन्य सांसद ने कहा, लोगों का उनसे मोहभंग हो चुका है। ट्रूडो की चौतरफा आलोचनाओं का आलम यह है कि उनपर प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देने तक का दबाव बनाया जा रहा है।