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भारी आर्थिक संकट के मुहाने पर दुनिया

फरवरी 24 की शाम रूसी सेना ने हमला तो अपने पड़ोसी देश यूक्रेन पर किया लेकिन इसका असर विश्वभर की अर्थव्यवस्था पर भारी पड़ा है। एक ग्लोबल गांव में बदल चुकी दुनिया अब ऐसे किसी भी युद्ध से अछूती नहीं रह सकती है। विश्व के तीसरे बड़े तेल और गैस उत्पादक देश रूस पर लगाए जा रहे आर्थिक प्रतिबंध अंततः विश्वभर में आम आदमी की जिंदगी को दुश्वार करने का काम करेंगे

कोरोना महामारी की वजह से कमजोर हो चली वैश्विक अर्थव्यवस्था को जिस संघर्ष की जरूरत नहीं थी, वह आखिरकार शुरू हो ही गया। रूस के यूक्रेन पर ‘सैन्य कार्रवाई’ करने से ना केवल चारों तरफ तबाही मच रही है बल्कि इससे वैश्विक अर्थव्यवस्था को भी झटका लग रहा है। रूस के हमलों का असर कमोडिटी, इक्विटी और मुद्रा बाजारों में महसूस किया जा रहा है। इसका प्रभाव के यहीं समाप्त होने की संभावना नहीं है, बल्कि लंबे समय तक पड़ने वाला है। ये प्रभाव इस बात पर निर्भर करता है कि अमेरिका सहित नाटो के सदस्य देश इस संकट पर क्या रुख अपनाते हैं।

दरअसल, रूस दुनिया में कच्चे तेल, गैस का प्रमुख निर्यातक है। अमेरिका और सऊदी अरब के बाद तेल उत्पादक देशों में रूस तीसरे स्थान पर है। विश्व की 10 प्रतिशत तेल पूर्ति रूस ही करता है। यूरोपीय देशों की तेल खपत का 27 प्रतिशत और गैस खपत का 40 प्रतिशत रूस से आयात पर निर्भर है। वर्ष 2020 में रूस का यूरोप को किया गया कुल तेल और गैस निर्यात 66 बिलियन अमेरिकी डॉलर (पांच लाख करोड़ रुपया) रहा। इसके अलावा रूस लोहा और स्टील का भी प्रमुख उत्पादक है। 2020 में रूस ने यूरोपीय देशों को 3 .8 बिललियन अमेरिकी डॉलर (28,800 करोड़ रुपया) का लोहा और स्टील बेचा था। अगर पश्चिमी देश रूसी निर्यात पर बडे़ आर्थिक प्रतिबंध लगाते हैं, तो इससे ईंधन की कीमतों में भारी वृद्धि देखने को मिल सकती है। विश्व बैंक के वर्ल्ड इंटीग्रेटेड ट्रेड साल्यूशन (विट्स) के मुताबिक, ईंधन आधारित वस्तुओं का रूसी निर्यात में 50 फीसदी से अधिक हिस्सा है। यूएस एनर्जी इंफॉर्मेशन एडमिनिस्ट्रेशन (यूएस ईआईए) के आंकड़ों अनुसार रूस वैश्विक स्तर पर कच्चे तेल उत्पादन का कम से कम दसवां हिस्सा तैयार करता है। जो मध्य पूर्व में पेट्रोलियम निर्यातक देशों के संगठन (ओपेक) में कुल कच्चे तेल उत्पादन का लगभग आधा है।


वर्ष 2014 के बाद पहली बार कच्चे तेल की कीमतों ने 130 डॉलर प्रति बैरल की सीमा को पार किया है। जिसे रुसी कार्यवाही का नतीजा समझा जा रहा है। यूरोपीय देश गैस के लिए काफी हद तक रूस पर निर्भर रहते हैं। अगर यूरोपीय देशों को गैस नहीं मिलती है तो उन्हें ऊर्जा संकट के साथ-साथ भारी आर्थिक नुकसान का सामना करना पड़ेगा। ये आर्थिक नुकसान लंबे समय तक देखने को मिल सकते हैं। यूक्रेन पर हमले की वजह से जर्मनी ने भी रूस के नॉर्ड स्ट्रीम 2 गैस पाइप लाइन की मंजूरी पर रोक लगा दी है जिससे ईंधन की कीमतों में बढ़ोतरी देखने को मिलेंगी। इस बढ़ोतरी का असर दूसरी कई चीजों पर भी पड़ेगा। वहीं रूस दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण गेहूं उत्पादक देशों में से एक है। जिससे खाने की चीजें भी महंगी हो जाएंगी।
तेजी से लुढ़क रहे हैं शेयर बाजार विशेषज्ञों का मानना है कि महंगाई का झटका कोरोना महामारी की वजह से पहले से पटरी से उतरी वैश्विक अर्थव्यवस्था पर पड़ना तय है। ‘ब्लूमबर्ग’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष 2014 के बाद पहली बार तेल का दाम 100 डॉलर प्रति बैरल पार कर चुका है जिसने वैश्विक अर्थव्यवस्था को बड़ा झटका दिया है। अमेरिकी फेडरल रिजर्व बैंक और उसके साथी केंद्रीय बैंकों के लिए यह चिंताजनक बात है क्योंकि वे महामारी से उबरे बिना अब एक और संकट के सामने खडे़ हैं। दुनिया में कोरोना की वजह से पहले ही महंगाई एक बड़ी समस्या बन चुकी है। अब युद्ध ने और तबाही मचा दी है। जिसका असर भारत जैसे देशों में पड़ना शुरू हो चला है। पूंजी और विदेशी मुद्रा बाजारों पर भी दबाव बना रहेगा। शेयर बाजारों पर इसका बेहद बुरा असर देखने को मिल रहा है।

अमेरिका, यूरोपियन यूनियन, ब्रिटेन और कनाडा ने अपने बैंकिंग सिस्टम से रूसी बैंकों का लेनदेन रोक कर रूस की अर्थव्यवस्था पर भारी दबाव तो बना डाला है लेकिन इसका असर अकेले रूस पर नहीं बल्कि ग्लोबल बैंकिंग सिस्टम पर पड़ता अभी से नजर आने लगा है। अमेरिका, यूरोप और कनाडा ने रूसी विमानों के लिए अपना एयर स्पेस भी बंद कर डाला है। अर्थशास्त्रियों को आशंका है कि इन दो बड़े निर्णयों का असर ग्लोबल डिमांड-सप्लाई चेन पर पड़ेगा जिसके चलते शेयर बाजार पर बुरा असर पड़ने के साथ -साथ महंगाई के आसमान छूने और वैश्विक आर्थिक मंदी के छाने का संकट गहराएगा। भारत के पांच राज्यों में हो रहे चुनावों के बीच तेल की कीमतों को लेकर पहले से ही सरकार बड़ा दबाव झेल रही है। अब रूस-यूक्रेन संकट ने इस मुश्किल को और बढ़ा दिया है। पेट्रोल-डीजल की कीमतों को नवंबर 2021 से स्थिर रखा गया है, जब भारत में कच्चे तेल की कीमत 80 डॉलर प्रति बैरल थी। इस साल के आर्थिक सर्वेक्षण में अनुमान लगाया गया है कि अगले वित्त वर्ष में कच्चे तेल की कीमतें 70-75 डॉलर प्रति बैरल के दायरे में बनी रहेंगी।

अगर कच्चे तेल की कीमतें मौजूदा स्तरों पर भी बनी रहतीं तो भी ईंधन की कीमतों में लगभग 10 रुपये प्रति लीटर से अधिक की वृद्धि की बात तेल कंपनियां कहने लगी थीं। अब युद्ध के चलते प्रति बैरल तेल की कीमत में भारी उछाल आ चुका है। ऐसे में तेल कंपनियों ने सरकार की कीमत वृद्धि के लिए दबाव बढ़ाना शुरू कर दिया है। भारत सरकार को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है। कीमतों में भारी वृद्धि से महंगाई बढ़ेगी, आर्थिक संकट बढ़ेगा और भारत जैसी जनसंख्या वाले देश में राजनीतिक असंतोष बढ़ने की भी संभावना है। अर्थशास्त्रियों का मानना है कि यदि रूस-यूक्रेन युद्ध लंबा चला तो भारत के लिए यह बेहद अहितकारी साबित हो सकता है। वर्तमान में भारत के पास 680 बिलियन अमेरिकी डॉलर (रुपया 51.5 लाख करोड़) का विदेशी पूंजी भंडार है। इतना विशाल पूंजी भंडार कुछ समय तक तो युद्ध चलते उत्पन्न महंगाई, डिमांड-सप्लाई चेन की बाधाएं और डॉलर के बनिस्पत रुपए के अवमूल्यन को रोक सकता है लेकिन लंबी अवधि तक युद्ध जारी रहने की स्थिति में पहले से ही भारी दबाव का सामना कर रही भारतीय अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हो जाएगी। केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री हरदीप सिंह पुरी संकेत दे ही चुके हैं कि अब तेल कंपनियों को पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ाने पड़ सकते हैं। इन दो वस्तुओं पर की गई किसी भी दाम वृद्धि का भारी असर हरेक सेक्टर पर पड़ना तय है।

अमेरिका के सामने महाशक्ति बनने का प्रयास
सोवियत संघ के पतन के बाद वैश्विक अर्थव्यवस्था में बड़ा परिवर्तन आया था। सोवियत खेमे के साथ शीत युद्ध में दशकों का समय बिताने के बाद अमेरिका और उसके सहयोगी देश दुनिया में एक शक्ति के रूप में उभरे हैं। इसके साथ ही आर्थिक तौर पर भी अधिक सक्षम हुए हैं। अभी दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था चीन ही अकेला अमेरिका को टक्कर दे सकता है। चीन आने वाले समय में दुनिया के सामने सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति के रूप में सामने आएगा। अमेरिका की बरस्क एक बार फिर से महाशक्ति बनने का प्रयास कर रहे रूस ने यूक्रेन पर हमला कर यह जताने का प्रयास किया है कि उसकी आर्थिक और सामरिक शक्ति पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था में आमूल चूल परिवर्तन करने का माद्दा रखती है। राष्ट्रपति पुतिन केवल दुनिया को ये अहसास कराने की कोशिश कर रहे है कि वह अमेरिका के सामने सबसे ताकतवर देश हैं। क्योंकि रूस की एक मजबूत देश वाली तस्वीर धुंधली होती जा रही थी और उसकी जगह दुनिया में चीन की तस्वीर दिखने लगी थी। लेकिन रूस की यूक्रेन पर की गई कार्रवाई वैश्विक आर्थिक व्यवस्था के मूल आधार को बदल सकती है।

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