दुनिया में ऐसे देशों की संख्या तेजी से बढ़ रही है जहां लोकतंत्र खतरे में है। इनमें अमेरिका, ब्राजील, श्रीलंका और भारत सहित कई देश शामिल हैं। ब्राजील और अमेरिका में तो पूर्व राष्ट्रपतियों ने ही देश के चुनावी नतीजों पर सवाल खड़े कर दिए। ऐसा हम नहीं दुनिया के कोने-कोने से सामने आ रही तस्वीरें और रिपोर्ट्स कह रही हैं। इन्हें देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि दुनिया के लगभग सभी मुल्कों में लोकतंत्र की जड़ें दिनों-दिन कमजोर होने लगी हैं
बीते कुछ वर्षों से दुनिया में ऐसे देशों की संख्या तेजी से बढ़ रही है जहां लोकतंत्र की जड़ें कमजोर होती जा रही हैं। वर्तमान में विभिन्न देशों में लोकतांत्रिक प्रक्रिया का असंतुलन चिंताजनक स्थिति का संकेत दे रहा है।
लोकतंत्र का अर्थ होता है सबको साथ में लेकर चलने वाला तंत्र। किसी भी लोकतांत्रिक देश की सफलता का आकलन इसी से किया जाता है। लेकिन वर्तमान में कई देशों में लोकतंत्र खतरे में नजर आ रहा है। ब्राजील और अमेरिका में तो पूर्व राष्ट्रपतियों ने ही देश के चुनावी नतीजों पर सवाल खड़े कर दिए। ऐसा हम नहीं दुनिया के कोने-कोने से सामने आ रही तस्वीरें और रिपोर्ट्स कह रही हैं और वहां के हालात खुद बया कर रहे हैं। इन्हें देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि दुनिया के लगभग सभी देशों में लोकतंत्र की स्थिति क्या है?
ब्राजील में छह जनवरी को अमेरिका के वॉशिंगटन में वर्ष 2021 में कैपिटल हिल में हुई घटना दोहराई गई। फर्क सिर्फ यह है कि अमेरिकी संसद भवन पर डोनाल्ड ट्रंप समर्थकों ने तब धावा बोला था, जब उनके नेता भी वाइट हाउस में मौजूद थे। ब्राजील में राष्ट्रपति भवन, संसद भवन और सुप्रीम कोर्ट पर पूर्व राष्ट्रपति जायर बोल्सोनारो के समर्थकों ने नए राष्ट्रपति लुइज इनेसियो लूला दा सिल्वा के पदभार ग्रहण करने के ठीक एक हफ्ते बाद धावा बोला। हालांकि कुछ घंटों की मशक्कत के बाद सुरक्षा बलों ने इन सत्ता केंद्रों को उस धुर-दक्षिणपंथी भीड़ से खाली करा लिया, लेकिन देश के दूसरे हिस्सों में सरकारी प्रतिष्ठानों के सामने
बोल्सोनारो समर्थक की छिटपुट हिंसा उसके बाद भी जारी है।
गौरतलब है कि बोल्सोनारो ने अक्टूबर, 2021 में हुए राष्ट्रपति चुनाव में अपनी हार को ट्रंप की तर्ज पर ही स्वीकार करने से इनकार कर दिया था। ट्रंप समर्थकों की तर्ज पर उनके समर्थक भी अभी तक चुनाव नतीजे को स्वीकार नहीं कर पाए हैं। गुजरे तीन महीनों में उन्होंने लगातार सेना से अपील की है कि वह सत्ता संभाल ले।
दुनिया भर के नेताओं ने की निंदा
ब्राजील के लोकतांत्रिक संस्थानों पर हुए हमलों की भारत, अमेरिका, मेक्सिको और कनाडा ने निंदा की है। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी ब्राजील के हिंसक प्रदर्शन को लेकर ट्वीट किया कि ‘ब्राजील में लोकतांत्रिक संस्थाओं पर हमला चिंता का विषय है। सभी को लोकतांत्रिक परंपरा का सम्मान करना चाहिए। हम ब्राजील को अपना पूरा समर्थन देने की घोषणा करते हैं।’
अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन, मेक्सिको के राष्ट्रपति एंड्रेस मैनुअल लोपेज ओब्राडोर और कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने जारी एक संयुक्त बयान में कहा, ‘कनाडा, मेक्सिको और अमेरिका, ब्राजील के लोकतंत्र पर और सत्ता के शांतिपूर्ण हस्तांतरण के दौरान हुए हमलों की निंदा करते हैं। हम ब्राजील के साथ खड़े हैं क्योंकि यह अपने लोकतांत्रिक संस्थानों की रक्षा करता है।’
पेरू में भी खतरे में है लोकतंत्र
ब्राजील जैसा हाल पेरू का भी है। यहां भी हिंसा भड़क उठी है। देश के कुछ इलाकों में तत्काल चुनाव की मांग को लेकर फिर से प्रदर्शन शुरू हो गए हैं। प्रदर्शनों में अब तक करीब 13 लोगों की मौत हो गई है। इन ग्रामीण इलाकों के लोग अब भी अपदस्थ राष्ट्रपति पेड्रो कैस्टिलो के प्रति वफादारी रखते हैं।
क्यों बने पेरू में हिसंक हालात
पेरू में विरोध प्रदर्शन एक महीने पहले शुरू हुए थे। पूर्व राष्ट्रपति और वामपंथी पेड्रो कैस्टिलो को भ्रष्टाचार और संसद को भंग कर शासन करने के आरोपों में गिरफ्तार कर लिया गया था। इसके बाद से पुनो और जूलियाका शहरों में तनाव बढ़ गया। पेड्रो समर्थकों द्वारा उनकी रिहाई की मांग की जा रही है। सप्ताह भर से जारी हड़ताल के कारण सभी दुकानें बंद हैं। प्रदर्शनकारियों ने देश के 25 विभागों में से लगभग छह सड़कों को जाम कर दिया है।
पेरू सरकार द्वारा हिंसक विरोध प्रदर्शनों को दबाने के लिए दक्षिणी पुनो क्षेत्र में कर्फ्यू की घोषणा की गई है। ये तीन दिवसीय कर्फ्यू लगाया गया। यह फैसला पूर्व राष्ट्रपति पेड्रो कैस्टिलो को अपदस्थ करने के विरोध में एक महीने में हुई मौतों की संख्या बढ़कर 40 हो जाने के बाद आया है। इससे पहले जुलाई, 2022 में दुनिया ने श्रीलंका से भीतर जारी अराजकता की वो तस्वीरें देखीं, जब प्रदर्शनकारियों ने राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के घरों पर कब्जा कर लिया और मजबूरी में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री को अपना पद छोड़ना पड़ा। इसके बाद फिर से चुनाव कराए गए और रानिल विक्रमसिंघे श्रीलंका के राष्ट्रपति बने। श्रीलंका का आर्थिक संकट इस अफरातफरी और उग्र प्रदर्शनों की सबसे बड़ी वजह रहा।
बहरहाल पिछले कई सालों से दुनिया भर में ब्रिटेन की संस्था आईईयू यानी इकोनॉमिस्ट इनटेलिजेंस यूनिट लोकतंत्र को एक ख़ास पैमाने पर तौलती रही है। आईईयू लोकतंत्र के गिरते स्तर पर रिपोर्ट जारी करती है, जिसका नाम है डेमोक्रेसी इंडेक्स। इस रिपोर्ट में करीब 167 देशों के हालात का ब्यौरा दिया जाता है। मसलन, वहां की सरकार कैसी है? नागरिकों को कितने अधिकार दिए जाते हैं? सरकार की नीतियां किस तरह की हैं? सरकार के निर्णयों में जनता की भागीदारी कहां तक है?
इस पैमानों पर इन देशों को परखने के बाद इन्हें डेमोक्रेसी इंडेक्स में नबंर दिए जाते हैं। मतलब कहां लोकतंत्र मजबूत है? कहां ये कमजोर हो रहा है? कहां तानाशाही है? जैसे सवालों के जवाब दिए जाते हैं।
पिछले एक दशक में उदार लोकतंत्र माने जाने वाले देशों की संख्या 41 से घटकर 32 रह गई है। यानी 1989 में दुनिया में लोकतांत्रिक देशों की संख्या के बराबर। इसी अवधि में 87 अन्य देशों को निरंकुश या निर्वाचित निरंकुश का दर्जा दिया गया। इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट द्वारा 2021 के एक सर्वेक्षण से पता चला है कि दुनिया की केवल 8.4 फीसदी आबादी पूरी तरह से प्रभावी लोकतंत्र में रहती है।
रिपोर्ट के अनुसार हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ओर्बन, तुर्की के राष्ट्रपति रजब तैयब एर्दोआन और फिलीपींस के पूर्व राष्ट्रपति रोड्रिगो दुतेर्ते जैसे नेताओं ने इस प्रवृत्ति को बढ़ाने में योगदान दिया है। उन्होंने आलोचनात्मक मीडिया को बंद करके अपनी घरेलू राजनीतिक व्यवस्था को कमजोर कर दिया और चुनावों को कमजोर कर दिया है।
ऐसे में पूरी दुनिया के मन में सवाल उठ रहा है कि लोकतंत्र का ये कैसा दौर है? समाजों में बढ़ते ध्रुवीकरण के साथ चुनाव नतीजों को सहजता से स्वीकार कर लेने का चलन अब कमजोर क्यों हो रहा है? राजनीतिक जानकारों का कहना है कि इस प्रवृत्ति के लिए सिर्फ कुछ गुमराह लोगों को जिम्मेदार ठहराना समस्या का सतही करण होगा। इसके अलावा अफगानिस्तान और म्यांमार भी राजनीतिक एवं आर्थिक अस्थिरता के दौर से गुजर रहे हैं। अगर हम पिछले कुछ वर्षों का जायजा लें तो मालदीव और नेपाल भी कई बार राजनीतिक और आर्थिक अनिश्चितता के शिकार रहे हैं।
म्यांमार में सेना ने अपने आपको राजनीति में सर्वोच्च अधिष्ठान बना लिया है। वहां की फौज का दावा है कि म्यांमार में सामाजिक विविधता और जातीय अलगाववाद की समस्याओं को कड़ाई से ही निपटाया जा सकता है। लेकिन राजनीतिक जानकारों का कहना है कि सैन्य शासन हमेशा ही राष्ट्रों को बर्बाद करता है और उनकी रगों में विष घोलता है। पाकिस्तान की आज जो दुर्दशा है, उसका जिम्मेदार वहां का फौजी अधिष्ठान ही है। वहां इमरान खान समेत पिछले 22 प्रधानमंत्रियों में से किसी एक ने भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं किया है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने अब तक 22 बार कर्ज देकर पाकिस्तान को वित्तीय संकट से बचाया है।
अफगानिस्तान का हाल भी कुछ ऐसा ही है। यहां अब तालिबान का कब्जा है और लोकतंत्र खत्म होने की कगार पर क्योंकि तालिबान ने कहा था कि अफगानिस्तान में लोकतंत्र से नहीं शरीयत के हिसाब से व्यवस्थाएं चलेगी।
सभी मानकों पर गिरा भारत
इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट की रिपोर्ट में भारत लगभग हर मानक पर फेल होता दिख रहा है। साल 2014 के बाद से ही लगातार भारत के डेमोक्रेसी इंडेक्स में गिरावट दर्ज की गई है। तब भारत की रैंकिंग 27 थी, वहीं ताजा रिपोर्ट के मुताबिक भारत डेमोक्रेसी इंडेक्स में 46वें पायदान पर है।