तुर्की में इन दिनों राष्ट्रपति चुनाव चल रहे हैं। आधुनिक इस्लामिक राष्ट्र के रूप में अपनी पहचान स्थापित करने वाले तुर्की को वर्तमान राष्ट्रपति रजब तैयब एर्दोगन ने वापस कट्टरपंथ की तरफ धकेला है। बीते 20 बरसों से सत्ता में काबिज एर्दोगन का जादू अब उतार की तरफ जाता नजर आ रहा है। इस बार वे पहले चरण में 50 प्रतिशत मत पाने में विफल रहे हैं। अब 28 मई को दूसरे चरण का मतदान होना है। विपक्षी गठबंधन का दावा है कि इस चरण में उनके संयुक्त प्रत्याशी केमेल किलिकडारोग्लू वर्तमान राष्ट्रपति को परास्त कर पाने में सफल रहेंगे। विश्वभर की निगाहें इस चुनाव पर जा टिकी हैं क्योंकि तुर्की अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण विशेष महत्व रखता है
तुर्की के राष्ट्रपति चुनाव पर दुनिया की नजरें कई वजहों से हैं। दो दशकों से सत्ता पर काबिज राष्ट्रपति रजब तैयब एर्दोगन को इस बार विपक्षी उम्मीदवार केमल किलिकडारोग्लू से कड़ी चुनौती मिल रही है। पहले राउंड के नतीजों में दोनों में से किसी प्रत्याशी को जरूरी 50 फीसदी मत नहीं मिले। अब इसका फैसला 28 मई को रन ऑफ राउंड में होगा। खास बात यह है कि इस बार के चुनावों की सबसे अच्छी बात यह कही जा रही है कि इसमें लोगों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया, जिसका मतलब यह निकाला जा रहा है कि लोगों में परिवर्तन की इच्छा जोर पकड़ रही है। हालांकि पहले राउंड के नतीजों में दोनों में से किसी प्रत्याशी को 50 फीसदी से ज्यादा मत नहीं मिले। एर्दोगन को जहां 49.49 फीसदी वोट मिले, वहीं किलिकडारोग्लू के पक्ष में 44.79 फीसदी वोट पड़े। तुर्किये के कानून के मुताबिक 50 फीसदी से ज्यादा मत हासिल करने वाले प्रत्याशी को विजेता घोषित कर दिया जाता है, लेकिन अगर किसी भी प्रत्याशी को 50 फीसदी मत नहीं मिलते तो दो सबसे ज्यादा मत हासिल करने वाले प्रत्याशियों के बीच दूसरे दौर का चुनाव होता है। ऐसे में अब दोनों पक्ष दूसरे दौर के चुनाव में जीत का दावा कर रहे हैं, लेकिन एर्दोगन की सत्ता में दो दशक लंबी पारी को देखते हुए इस बार उनका 50 फीसदी मतों की सीमा तक न पहुंच पाना भी खासा महत्वपूर्ण है।
दरअसल बीते तीन महीने पहले तुर्की में आए विनाशकारी भूकंप से हजारों लोग असमय इस दुनिया से चले गए, लेकिन अब इस भूकंप को लेकर लोगों में जो गुस्सा है, वह तुर्की के राष्ट्रपति रजब तैयब एर्दोगन की सत्ता जाने की वजह बन सकता है। इस विनाशकारी भूकंप से अब तक 24 हजार 500 लोगों की मौत हो चुकी है। हजारों लोग अभी भी उपचाराधीन हैं। जिससे लोगों में सरकार के खिलाफ काफी गुस्सा भरा हुआ है। कहा जा रहा है कि इसका असर राष्ट्रपति चुनाव में भी सकता है।
सत्ता बचाने की बड़ी चुनौती भूकंप की वजह से तुर्की के 10 प्रांतों में भारी तबाही हुई है। ऐसे में रजब तैयब एर्दोगन के सामने इन प्रांतों के पुनर्निर्माण की बड़ी चुनौती होगी। बीते दिनों जब अर्दोगन ने भूकंप प्रभावित इलाकों का दौरा किया तो उन्हें लोगों के विरोध का भी सामना करना पड़ा था। जिसके बाद अर्दोगन ने घोषणा की कि वह एक साल के भीतर फिर से इमारतों का पुनर्निर्माण करेंगे और लोगों से कहा कि वे उन्हें घर दें, लेकिन तुर्की को तबाही के पैमाने से उबरने के लिए अरबों डॉलर की आवश्यकता होगी और एक साल में सारे घर बनाना भी लगभग नामुमकिन-सा काम है। यही वजह है कि अर्दोगन के लिए भूकंप की इस चुनौती से पार पाना काफी मुश्किल हो सकता है। विपक्ष भी अर्दोगन को घेरने की कोशिश कर रहा है और विपक्षी नेता भ्रष्टाचार को लेकर एर्दोगन सरकार को कोस रहे हैं।
गौरतलब है कि साल 1999 में भी तुर्की में जबरदस्त भूकंप आया था। उस भूकंप ने तुर्की में काफी तबाही मचाई थी और 17 हजार से ज्यादा लोगों की जान चली गई थी। 1999 में आए भूकंप के बाद सरकार ने नियम बनाया था कि नए भवन भूकंपरोधी तकनीक से बनाए जाएंगे और इस नियम को सख्ती से लागू किया जाएगा। हालांकि तुर्की के लोगों का मानना है कि उनकी सरकार इस नियम को सख्ती से लागू नहीं कर पाई, जिसके चलते ठेकेदारों ने भ्रष्टाचार कर लोगों के लिए असुरक्षित इमारतें तैयार कर दीं। जिसका नतीजा फरवरी में आए भूकंप में देखने को मिला। इसके अलावा तुर्की सरकार ने मौजूदा इमारतों को मजबूत करने के लिए लोगों पर एक विशेष कर भी लगाया। सरकार ने इस कर से लगभग 17 अरब अमेरिकी डॉलर की वसूली की थी, लेकिन सरकार ने इस कोष का थोड़ा-सा हिस्सा ही पुरानी इमारतों को मजबूत करने के लिए खर्च किया, बाकी पैसा अन्य कार्यों पर खर्च किया गया। यही वजह है कि एर्दोगन सरकार के खिलाफ लोगों में काफी गुस्सा है क्योंकि तुर्की में पिछले 20 साल से अर्दोगन सत्ता में हैं बावजूद इसके इस दौरान अव्यवस्था जस के तस बनी हुई है।
कैसे चुने जाते हैं तुर्की में राष्ट्रपति
राष्ट्रपति पद के लिए जितने भी उम्मीदवार मैदान में होते हैं, उनमें से किसी भी एक उम्मीदवार को अगर आधे से ज्यादा वोट मिलें तो वह सीधा राष्ट्रपति बन जाता है। अगर किसी को 50 फीसदी मत नहीं मिलते तो सबसे ज्यादा मत पाने वाले दो उम्मीदवारों के बीच फिर सीधा मुकाबला होता है। तुर्की में राष्ट्रपति और संसदीय चुनाव एक साथ ही होते हैं। तुर्की में प्रधानमंत्री के पास ही सबसे अधिक शक्ति होती है। अर्दोगन ने प्रधानमंत्री का पद ही समाप्त कर दिया था। देश में राष्ट्रपति की प्रथा को शुरू किया। नई व्यवस्था के तहत राष्ट्रपति और संसदीय चुनाव एक ही दिन होते हैं।
रजब तैयब एर्दोगान
रजब तय्यब एर्दोगन और उनकी जस्टिस एंड डेवलपमेंट पार्टी चुनाव को लेकर बहुत उत्साहित है। 20 साल के शासन में एर्दोगन ने केमल अतातुर्क द्वारा स्थापित कट्टर धर्मनिरपेक्ष गणराज्य का इस्लामीकरण कर दिया है। अतातुर्क, एक प्रसिद्ध सैन्य कमांडर और राजनेता थे, जिन्होंने अपने व्यक्तित्व और लोकप्रियता के बल पर प्रमुख रूप से आधुनिक तुर्की को आकार दिया था। धर्म के खुले प्रदर्शन पर रोक लगाई, महिलाओं को समान नागरिक, राजनीतिक अधिकार दिए और तुर्क सल्तनत को एक लोकतंत्र में बदल दिया। हालांकि 1938 में उनकी मृत्यु हो गई, लेकिन अतातुर्क तुर्की के अब तक के सबसे बड़े नेता रूप में याद किए जाते हैं। कई लोगों का मानना है कि करिश्माई और लोकप्रिय एर्दोगन उनकी जगह लेने की कोशिश कर रहे हैं। आधुनिक तुर्की के सबसे लंबे समय तक सेवा करने वाले शासक के रूप में एर्दोगन अपने कार्यकाल का विस्तार करने की कोशिश कर रहे हैं। उन्होंने 2018 में पहले राउंड में 52.6 फीसदी वोट के साथ जीत हासिल की थी।
केमल किलिकडारोग्लू
किलिकडारोग्लू 6 दलों के मुख्य विपक्षी गठबंधन के संयुक्त राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार हैं। वह रिपब्लिकन पीपल्स पार्टी के अध्यक्ष हैं, जिसकी स्थापना आधुनिक तुर्की के संस्थापक मुस्तफा कमाल अतातुर्क ने की थी। हालांकि उन्हें पहले चरण में मात्र 44.79 प्रतिशत मत ही मिले हैं लेकिन उनके समर्थकों का मानना है कि दूसरे चरण के मतदान में वे एर्दोगन को परास्त कर राष्ट्रपति बन पाने में सफल रहेंगे। तुर्की का महत्व तुर्की दुनिया के लिए काफी मायने रखता है। यह देश सीरिया और ईरान के साथ सीमा साझा करता है। यह काला सागर के माध्यम से रूस-यूक्रेन से अलग होता है और भू मध्य सागर और एजियन सागर से घिरा हुआ है। तुर्की बोस्फोरस जलडमरूमध्य को नियंत्रित करता है, जो भू मध्य सागर तक पहुंचने के लिए रूस और यूक्रेन के पास एकमात्र रास्ता है।
तुर्की के पास एशिया और यूरोप दोनों में इलाके हैं, जो इसे और ज्यादा महत्वपूर्ण बना देता है। यह नाटो का सदस्य देश है, जिसकी स्थायी सेना अमेरिका के बाद दूसरे स्थान पर है, लेकिन एर्दोगन रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ हैं। एर्दोगन के कार्यकाल में देश के अंदर लोकतंत्र खत्म होने के आरोप लगे हैं। अमेरिका और यूरोपीय संघ के साथ संबंध खराब हो रहे हैं। अगर एर्दोगन इस बार सत्ता में वापस आते हैं, तो उम्मीद है कि पश्चिमी देशों के साथ उनके मतभेद और बढ़ जाएंगे।
क्या है तुर्की का इतिहास तुर्की एक मुस्लिम बाहुल्य देश हैं जहां करीब 98 फीसदी जनता इस्लाम को मानती है और तुर्की की गिनती उन गिने-चुने मुस्लिम देशों में होती है जिन्हें सबसे ज्यादा धर्मनिरपेक्ष यानी सेक्युलर माना जाता रहा है। वर्ष 1299 से 1922 तक तुर्की में ऑटोमन साम्राज्य का शासन था। 1923 में तुर्की को इस साम्राज्य से आजादी मिल गई और इसका श्रेय तुर्की के पूर्व तानाशाह मुस्तफा कमाल अतातुर्क को जाता है। संविधान के तहत ही अतातुर्क ने तुर्की की सेना को देश में हमेशा सेक्युलरिज्म कायम रखने की जिम्मेदारी दी। तुर्की में धार्मिक प्रतीक चिÐों के इस्तेमाल पर भी पाबंदी लगा दी थी। अर्दवान तुर्की जैसे आधुनिक और सेक्युलर मूल्यों वाले देश के कट्टर इस्लामिक राष्ट्रपति हैं जो उसी आईने में विदेश संबंधों को भी देखते हैं।
भारत पर क्या असर होगा?
एर्दोगन के शासन में कश्मीर का मुद्दा उठाने से भारत से उसका तनाव रहा है। अगर एर्दोगन लौटे तो भारत-तुर्किये रिश्तों में बहुत अधिक सुधार की उम्मीद नहीं है। अगर प्रतिद्वंद्वी कमाल कलचदारलू की जीत हुई तो रिश्तों में गर्माहट लौट सकती है।