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यूरोपीय देशों में मंडराया सूखे का संकट

दुनियाभर में जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव आए दिन देखने को मिलते हैं। लेकिन आने वाले दिनों में इसकी भयावहता और भी भीषण हो सकती है। ग्लोबल वार्मिंग को लेकर पूरा विश्व कई वर्षों से चिंता जाहिर जरूर कर रहा है लेकिन जलवायु परिवर्तन को लेकर अभी तक कोई ठोस कदम नहीं उठाए जा सके हैं। नतीजन यूरोप के कई देशों में सूखे जैसी स्थिति पैदा होने की वजह से कृषि क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित होने से भीषण सूखे का संकट मंडरा गया है

मौजूदा समय में दुनिया एक ओर जहां बीते छह महीनों से जारी रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते भारी आर्थिक संकट और खाद्य पदार्थों से जूझ रही है वहीं अब जिस तरह यूरोप में पड़ रही भीषण गर्मी का असर उसकी खाद्यान्न आपूर्ति पर भी पड़ने की आशंका जताई जा रही है। यूरोप के कई बड़े देशों में सूखे जैसी स्थिति पैदा होने की वजह से कृषि क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित होने से यूरोपीय देशों पर भीषण सूखे का संकट मंडरा गया है। दरअसल, दुनियाभर में जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव आए दिन देखने को मिलते हैं। लेकिन आने वाले दिनों में इसकी भयावहता और भी भीषण हो सकती है। ग्लोबल वार्मिंग को लेकर पूरा विश्व कई वर्षों से चिंता जाहिर जरूर कर रहा है लेकिन जलवायु परिवर्तन को लेकर अभी तक कोई ठोस कदम नहीं उठाए जा सके हैं। नतीजन दुनियाभर में जलवायु परिवर्तन का बुरा प्रभाव लगातार बढ़ता ही जा रहा है। खासकर यूरोप में हालत यह है कि 5 सदियों के सबसे बड़े सूखे की ओर तेजी से बढ़ रहा है।

यहां तक कि हमेशा बारिश से सराबोर रहने वाला इंग्लैंड भी आज पानी को तरस रहा है। इतिहास में पहली बार यहां की सरकार द्वारा आधिकारिक तौर पर सूखे से गुजरने का ऐलान किया गया है। इंग्लैंड के अलावा फ्रांस और स्पेन ने भी कहा है कि उनके देश सूखे के सबसे भीषण रूप का सामना कर रहे हैं। पिछले दो महीने से यूरोप में कुछ खास बारिश नहीं हुई है। जिसके चलते सूखे से निपटने की राह में कुछ भी सुधरने की उम्मीद नजर नहीं आ रही है। केवल यूरोप ही नहीं दुनिया की महाशक्ति का दंभ भरने वाले अमेरिका के भी कई राज्य पानी की भारी कमी से जूझ रहे हैं। अमेरिका का हवाई राज्य कहा जाने वाला कैलिफोर्निया भी पानी की कमी का सामना कर रहा है।

गौरतलब है कि पर्यावरणीय उद्देश्यों को प्राप्त करने की गति अभी भी धीमी है। जिसके चलते जलवायु परिवर्तन आज पूरी दुनिया के लिए गंभीर चिंता का विषय है। यूरोप में आया इस बार का सूखा कितना भयावह और गंभीर है इसका अंदाजा दुनियाभर में सूखे के असर से लगाया जा सकता है। आइए जानते हैं। किन देशों पर सबसे ज्यादा बुरा प्रभाव पड़ रहा है। सूखे की स्थिति पिछले दशकों के मुकाबले इस दशक में क्या है? इसके साथ ही कौन-से देशों और उद्योगों को सबसे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ रहा है?

कहां हुई पीने के पानी की किल्लत


सूखे की समस्या वैसे तो लगभग पूरे यूरोप में ही है। लेकिन बारिश की कमी और जंगलों में लगी आग की वजह से फ्रांस और स्पेन में पानी की किल्लत और सूखे की समस्या बहुत अधिक है। ब्रिटेन में तो तापमान लगातार रिकॉर्ड तोड़ रहा है। गर्मी ने लोगों का जीना मुहाल किया हुआ है। पिछले महीने ही इंग्लैंड में इतिहास का सबसे अधिक तापमान दर्ज किया गया था। यही मुख्य कारण है कि यहां के लोगों के पास प्यास बुझाने तक के लिए पानी की कमी हो गई है।

पिछले हफ्ते यूरोपियन कमीशन (ईसी) के जॉइंट रिसर्च सेंटर की ओर से ऐलान किया गय था कि यूरोपीय संघ का लगभग आधा क्षेत्र और यूनाइटेड किंगडम का पूरा भूमिगत क्षेत्र सूखे की मार झेल रहा है। गौरतलब है कि यूरोप में इस साल की शुरुआत से ही सूखे की स्थिति उत्पन्न होने लगी थी। सर्दियों और वसंत के मौसम में पूरे महाद्वीप के ऊपर वायुमंडल में पानी की करीब 19 फीसदी कमी देखी गई। बीते 30 वर्षों में यह पांचवां बार है, जब यूरोप में औसत से कम बारिश देखी गई है। इस साल की तेज गर्मी और निरंतर बारिश में कमी ने भी इस असर को बढ़ा दिया है। यूरोप का 10 फीसदी हिस्सा इस समय हाई अलर्ट की स्थिति में है।

खतरे में पेड़-पौधे
मध्य और दक्षिण यूरोप में सबसे अधिक सूखे का असर है। बारिश की लगातार कमी के चलते यहां का भूजल भी काफी नीचे चला गया है। भूजल के निचले स्तर पर जाने से पेड़-पौधे जमीन से पानी लेने में असमर्थ हैं और मुरझाने लगे हैं। मध्य जर्मनी, पूर्वी हंगरी, इटली के निचले इलाके, दक्षिण-केंद्रीय और पश्चिमी फ्रांस, पुर्तगाल और उत्तरी स्पेन में तो कई पेड़-पौधों का अस्तित्व खत्म होने की कगार पर है।

सूखने के कगार पर जल स्रोत
देश के लिए सबसे अहम पानी का स्रोत मानी जाने वाली इटली की पो नदी सूखने की कगार पर है। इटली के पांच क्षेत्रों में सूखे का आपात घोषित कर दिया गया है और आलम यह है कि लोगों से आग्रह किया गया है कि कम से कम पानी का इस्तेमाल करें। देश में पानी के इस्तेमाल को लेकर कुछ पाबंदियां भी लगाई गई हैं। फ्रांस ने भी कुछ इसी तरह के उपाय किए हैं। स्पेन के आइबेरियन प्रायद्वीप का जल भंडार भी 10 साल के औसत से 31 प्रतिशत कम है।

वहीं खुद को सर्वशक्तिमान बताने वाला चीन भी इस समय सदी के सबसे बड़े सूखे का सामना कर रहा है। 64 साल बाद चीन को सबसे लंबी गर्मी का सामना करना पड़ा और इसका असर यह हुआ कि एशिया की सबसे लंबी नदी यांग्त्जी, जो चीन की सबसे बड़ी नदी है, सूख गई है। यांग्त्जी के सूख जाने से बांध में पानी की कमी हो गई है और इसका असर बिजली पर पड़ा है, जिससे बड़े शहरों या छोटे शहरों को बिजली संकट का सामना करना पड़ रहा है।

बिजली की कमी
जल स्रोतों में पानी की कमी होने से ब्रिटेन और यूरोप जैसे अन्य कई देशों की ऊर्जा उत्पादन क्षमता पर भी बुरा असर पड़ रहा है। विशेषज्ञों के अनुसार, कई यूरोपीय देश जो अक्षय स्रोतों से बिजली पैदा करने पर निर्भर हैं उन्हें आने वाले समय में बिजली की कमी का सामना करना होगा। इस समय की बात करें तो हाइड्रोपावर क्षेत्र में ऊर्जा उत्पादन 20 फीसदी तक नीचे गिर चुका है। वहीं परमाणु संयंत्रों से भी ऊर्जा उत्पादन काफी घट गया है। दरअसल इन प्लांट्स को ठंडा रखने के लिए नदी के पानी की आवश्यकता पड़ती है। एक तरफ रूस-यूक्रेन युद्ध जारी है तो वहीं दूसरी तरफ ब्रिटेन-यूरोप खुद ऊर्जा की पैदावार बढ़ाकर आत्मनिर्भर बनने में जुटे हुए हैं। लेकिन पानी की किल्लत उनके इरादों में एक बड़ी रुकावट साबित हो रही है।

इन देशों में कृषि क्षेत्र प्रभावित
यूरोप की भीषण गर्मी का पूरा-पूरा दुष्प्रभाव खाद्य आपूर्ति पर भी पड़ेगा। दरअसल, महाद्वीप के कई बड़े देशों में सूखे जैसी स्थिति के कारण कृषि क्षेत्र बुरी तरह त्रस्त हुआ है। सबसे खराब स्थिति रोमानिया, पोलैंड, स्लोवेनिया और क्रोएशिया में है। इस बार यहां पानी की कमी के कारण फसल की पैदावार कम होने का अनुमान है। संयुक्त अनुसंधान केंद्र के अनुसार, इन देशों में पानी और ऊर्जा के संरक्षण के लिए आपातकालीन उपाय करना आवश्यक होगा।

इस साल के सूखे की समय सीमा और फैलाव पर नजर डाली जाए तो महाद्वीप में इस बार का सूखा 70 साल में सबसे भयानक सूखा है। सूखे पर निगरानी रखने वाली यूरोप की संस्था- यूरोपियन ड्रॉट ऑब्जर्वेटरी बताती है कि बीते दशक के मुकाबले इस साल ज्यादा क्षेत्र सूखे की चपेट में हैं। साथ ही जुलाई वर्ष 2012, 2015, 2018 की तुलना में इस साल पेड़-पौधों के सूखने और मिट्टी की नमी में कमी भी काफी ज्यादा देखी गई है। वर्ष 2018 में स्कैंडिनिवियन देशों (डेनमार्क, नॉर्वे, स्वीडन, फिनलैंड और आइसलैंड) ने सात दशकों के सबसे बड़े सूखे का सामना किया था। हालांकि इस बार पिछले दशक की तुलना में हालात ज्यादा नहीं बिगड़े हैं।

एन्वायरमेंट रिसर्च लेटर्स की रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 1998 से 2017 के बीच सूखे और फसलों के खराब होने से यूरोप-ब्रिटेन को 124 अरब डॉलर का नुकसान हुआ है। पिछले साल प्रकाशित हुई एक रिसर्च के मुताबिक, वर्तमान में यूरोप और ब्रिटेन गर्मी के चलते सालाना 9 अरब डॉलर से ज्यादा का नुकसान झेल रहे हैं। यही रिकॉर्ड तोड़ अगर तापमान आने वाले 10 वर्षों में 1.5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाता है तो यूरोप-ब्रिटेन का हर वर्ष करीब 10 अरब डॉलर यूं ही बर्बाद हो जाएगा। केवल इतना ही नहीं सही समय पर अगर जलवायु परिवर्तन रोकने की दिशा में कदम नहीं उठाए गए और सन् 2100 तक तापमान 4 डिग्री तक बढ़ गया, तब तो यूरोप-ब्रिटेन को हर महीने 65.5 अरब डॉलर गंवाने होंगे।

यूरोप में सूखे की वजह से सबसे ज्यादा नुकसान स्पेन को होने की संभावना है। इस देश को हर साल गर्मी की मार के चलते 1 .52 अरब डॉलर तक का नुकसान उठाना पड़ रहा है। इटली और फ्रांस क्रमशः दूसरे और तीसरे स्थान पर हैं। जहां इटली को 1 .43 अरब डॉलर, वहीं फ्रांस को हर साल 1 .24 अरब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ रहा है। इसके अलावा जर्मनी हर साल 1 .022 अरब डॉलर का नुकसान उठा रहा है। पांचवें स्थान पर ब्रिटेन है, जिसकी अर्थव्यवस्था को 70.4 करोड़ डॉलर का नुकसान हो रहा है। सबसे अधिक सूखे के कारण नुकसान स्पेन को होने की संभावना जताई जा रही है। दूसरे स्थान पर नुकसान झेलने में इटली और तीसरे पर फ्रांस है।

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