दुनिया में कहीं पत्ता भी हिले तो इसकी खबर अमेरिकी सेना को हो जाती है। दुनिया के हर हिस्से पर अमेरिकी सेना अपनी पैनी नजर गड़ाए रखती है। इसलिए जब भी किसी देश में युद्ध की स्थिति पैदा होती है वहां अमेरिका की सेना पहुंच जाती है।
ब्रह्मांड के सबसे ताकतवर देश अमेरिका के दो लाख से ज्यादा सैनिक दुनिया भर के 180 देशों में फैले हुए हैं। हालांकि इनमें से केवल सात देश ही हैं जहां अमेरिकी सैनिक सक्रिय रूप से सैन्य अभियान में शामिल है।
अब समय आ गया है अमेरिका के ‘फॉरएवर वॉर’ के खत्म होने का। जी हाँ, 14 अप्रैल को अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने ऐलान कर दिया है कि अमेरिकी सेना अफगानिस्तान से अब वापस आ रही है। परंतु 1 मई तक नहीं क्योंकि बाइडेन ने इसके लिए भी एक प्रतीकात्मक दिन चुना है। सेना को देश वापस बुलाने की डेडलाइन को 11 सितंबर तक बढ़ा दिया गया है। यह तारीख उस घटना का सबूत है जिसके कारण अमेरिका एक और युद्ध के लिए अफगानिस्तान गया था।
पर सोचने वाली बात तो यह है कि क्या बाइडेन सही फैसला ले रहे हैं? अफगान सरकार के साथ-साथ अमेरिका और रूस जैसे देश भी तालिबान के साथ शांति वार्ता कर रहे हैं। तो ऐसे में क्या सेना की वापसी की डेडलाइन बढ़ने से इस वार्ता पर भी कोई असर पड़ेगा? अब देखा जाए तो अफगानिस्तान की सुरक्षा का पहलू भी एक चिंता का विषय है क्योंकि इस समय तालिबान काफी बड़े हिस्से पर अपना नियंत्रण रखता है।
बाइडेन गए सलाहकारों के विरुद्ध
जो बाइडेन कभी भी अफगानिस्तान में सेना की भारी मौजूदगी के हिमायती नहीं रहे हैं। बराक ओबामा के कार्यकाल के समय भी उपराष्ट्रपति बाइडेन सैन्य जनरलों के सेना बढ़ाने की योजना के विरुद्ध ही रहते थे। साथ ही ओबामा ने भी अपनी किताब में ऐसी कई बातचीतों को जिक्र किया है।
इस वक़्त जब फैसला लेने की बारी बाइडेन की थी तो उन्होंने भी ओबामा को दी हुई सलाह पर ही अमल किया। CNN की एक रिपोर्ट यह कहती है कि कई टॉप जनरल और पेंटागन के अधिकारियों ने सेना को पूरी तरह बुलाने पर अपनी चिंता व्यक्त की थी। जबकि बाइडेन ने इन आपत्तियों को दरकिनार करते हुए ये निर्णय लिया है।
CNN की एक रिपोर्ट के अनुसार आपत्ति जताने वालों में चेयरमैन ऑफ जॉइंट चीफ मार्क मिली और यूएस सेंट्रल कमांड के प्रमुख जनरल फ्रैंक मैकेंजी सम्मिलित थे।
यूएस न्यूज ने सूत्रों के हवाले से बताया कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सलिवन पेंटागन के नजरिये का समर्थन करते दिखे। तो वहीं दूसरी तरफ विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन ने बाइडेन का पक्ष लिया।
लगभग 20 वर्षों के बाद अमेरिका और नाटो सैनिक अफगानिस्तान छोड़ देंगे। राष्ट्रपति जो बिडेन ने घोषणा की कि अमेरिकी सेना 11 सितंबर तक वापस ले लेगी। वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के मद्देनजर अमेरिका ने अल कायदा और तालिबान के खिलाफ सैन्य कार्रवाई की है। हालांकि अमेरिका अफगानिस्तान से सैनिकों को हटा रहा है, लेकिन भारत की चिंता बढ़ गई है।
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अफगानिस्तान में सबसे लंबे समय तक चलने वाला अमेरिकी युद्ध समाप्त हो रहा है। इसके बाद उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (NATO) ने भी अफगानिस्तान से अपनी सेना हटाने का फैसला किया। बिडेन ने क्षेत्रीय देशों विशेषकर पाकिस्तान, साथ ही रूस, चीन, भारत और तुर्की से आह्वान किया कि वे देश से अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद अफगानिस्तान के साथ सहयोग करें। तालिबान और आईएस आतंकवादियों को अमेरिका और नाटो सैनिकों की वापसी के बाद अफगानिस्तान पर कब्जा करने का खतरा है।
पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प (2017-21) के प्रशासन में दक्षिण और मध्य एशिया के लिए एनएससी की वरिष्ठ निदेशक लीसा कर्टिस ने कहा कि अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी से क्षेत्र में चिंता बढ़ेगी, खासकर भारत जैसे पड़ोसी देशों में। 1990 में अफगानिस्तान में तालिबान के शासन के दौरान अफगानिस्तान सभी आतंकवादियों के लिए प्रशिक्षण, भर्ती और धन जुटाने का आधार बन गया। लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे आतंकवादी संगठनों ने भी अफगानिस्तान में भारत में हिंसा के कार्यों को अंजाम दिया। उन्होंने यह भी बताया कि अफगानिस्तान भारतीय संसद पर 2001 के आतंकवादी हमलों से भी जुड़ा था, और 1990 में भारतीय विमानों को अपहृत करने वाले आतंकवादियों के तालिबान से संबंध थे।
अमेरिकी सरकार में विदेशी मामलों और रक्षा में 20 से अधिक वर्षों का अनुभव रखने वाले कर्टिस, वर्तमान में सेंटर फॉर न्यू अमेरिकन सिक्योरिटी, एक थिंक टैंक में इंडो-पैसिफिक सिक्योरिटी प्रोग्राम में वरिष्ठ अधिकारी हैं।
क्या भारत बड़ी भूमिका निभाएगा?
कर्टिस ने कहा कि भारत अफगानिस्तान में शांति और स्थिरता बनाए रखने में एक प्रमुख भूमिका निभा सकता है, ताकि आतंकवाद विरोधी अभियानों के लिए अफगानिस्तान की भूमि का उपयोग न हो। हडसन इंस्टीट्यूट के थिंक टैंक में संयुक्त राज्य में पाकिस्तान के राजदूत और दक्षिण और मध्य एशिया डिवीजन के वर्तमान निदेशक हुसैन हक्कानी ने कहा कि भारत को चिंता है कि तालिबान का प्रभाव और नियंत्रण एक बार फिर आतंकवादियों का अड्डा बन सकता है। उन्होंने कहा कि प्रमुख मुद्दा यह है कि क्या अमेरिका सेना वापसी के बाद भी अफगानिस्तान सरकार को तालिबान से लड़ने में मदद करना जारी रखेगा।
अफगानिस्तान का आरोप; पाकिस्तान देता है तालिबान का साथ
अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों को हटाने के निर्णेय पर उसका पड़ोसी देश पाकिस्तान अपनी नजरें टिकाएं बैठा हैं। दोनों देशों के रिश्ते भी काफी तनावपूर्ण हैं। अफगानिस्तान का यह आरोप है कि पाकिस्तान तालिबान का साथ देता है और उसके नेताओं को अपने यहां शरण भी देता है। तो वहीं पाकिस्तान का भी कहना है कि उसे टारगेट बनाकर किए जाने वाले भारत समर्थित हमलों के लिए अफगानिस्तान जमीन उपलब्ध करा रहा है।
पाकिस्तान ने तालिबान को शांति की मेज पर लाने में अपनी अहम भूमिका अदा की है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान कहते हैं कि यदि अमेरिका वहां से अपने सैनिकों को हटाएगा तो इससे अफगानिस्तान में अफरा तफरी का माहौल पैदा हो सकता है जिसका असर पाकिस्तान पर भी पड़ सकता है। अब भी पाकिस्तान में करीब बीस लाख अफगान शरणार्थी रहते हैं।
बिडेन का फैसला घातक?
तालिबान ने शांति वार्ता के लिए सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं दी। तालिबान ने दोहा में वार्ता के दौरान बार-बार अमेरिकी सैन्य वापसी का मुद्दा उठाया। वाशिंगटन पोस्ट के अनुसार, बिडेन का यूएस आर्मी को वापस लेने का निर्णय अफगानिस्तान और पड़ोसी देशों के लिए खतरनाक हो सकता है। हालांकि, वाशिंगटन पोस्ट ने बताया कि बिडेन ने अफगानिस्तान से वापसी का सबसे आसान तरीका चुना, लेकिन परिणाम भयावह हो सकते हैं। न्यूयॉर्क टाइम्स और वॉल स्ट्रीट जर्नल ने ऐसा ही बयान दिया है।
बाइडेन का फैसला ‘गलती’ या ‘सही कदम’?
अफगानिस्तान में अल-कायदा ठिकानों पर हमले का ऐलान 20 साल पहले जॉर्ज बुश ने किया था। 11 सितंबर 2011 को अमेरिका के इतिहास में सबसे बड़े आतंकी हमले को अंजाम अफगानिस्तान में बैठे ओसामा बिन-लादेन ने दिया था। उस दौरान अल-कायदा का खात्मा और उसे पनाह देने वाले तालिबान को सजा देना ही अमेरिका का मिशन बन गया था।
लगभग उस समय को 20 साल बीत गए अलकायदा खत्म तो हुआ लेकिन तालिबान के साथ आज तक अमेरिका शांति वार्ता कर रहा है। अमेरिका ने इन बीस सालों में ऐसी क्या गलतियां की ये एक अलग मुद्दा है लेकिन बिडेन द्वारा यूएस आर्मी को वापस बुलाने पर अब बहस छिड़ गई है। यूएस आर्मी की अफगानिस्तान से वापसी सही है या गलत इसपर दो राय सामने आ रही हैं।
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CNN में अमेरिकी पत्रकार डेविड ए एन्डेलमैन द्वारा लिखे गए एक लेख में उन्होंने इसे बाइडेन की ‘बड़ी गलती’ बताया है। इसका कारण यह है कि अगर यूएस आर्मी अफगानिस्तान से वापस आती है तो शांति प्रक्रिया बीच में अटक जाएगी। क्योंक तालिबान की शर्ते पूरी नहीं हो रही हैं।
संगठन के प्रवक्ता जबीउल्लाह मुजाहिद की ओर से 14 अप्रैल को ट्वीट किया गया , “अगर दोहा समझौते का उल्लंघन हुआ और विदेश सेना तय तारीख पर हमारे देश से नहीं गई तो दिक्कत बढ़ जाएगी और जिन्होंने समझौते का पालन नहीं किया, वो जिम्मेदार ठहराए जाएंगे।”
मुजाहिद ने अपने ट्वीट के जरिए ट्रंप प्रशासन के दौरान फरवरी 2020 में कतर के दोहा में समझौते का जिक्र किया गया। उस वक्त 1 मई की तारीख तय हुई थी और तालिबान ने अमेरिकी सेना पर हमला न करने की हामी भी भर दी थी।
अब इससे तो यही मतलब निकलता है कि तालिबान फिर से अमेरिकी सेना पर हमला करना शुरू करेगा?
क्या तालिबान दोबारा काबुल पर कब्जा कर लेगा?
13 अप्रैल को ऑफिस ऑफ डायरेक्टर ऑफ नेशनल इंटेलिजेंस (ODNI) की ओर से वैश्विक खतरे पर एक रिपोर्ट जारी की गई थी, इसके मुताबिक, अफगान शांति समझौते की संभावनाएं आने वाले साल में ‘कम रहेंगी। ‘
रिपोर्ट के अनुसार तालिबान का मानना है कि वो जमीनी स्तर पर ताकत के इस्तेमाल से राजनीतिक सच को बदल देने में कामयाब होगा।
“तालिबान को विश्वास है कि सैन्य जीत हासिल की जा सकती है। अफगान सुरक्षा बलों को क्षेत्रों को अपने नियंत्रण में लाने के लिए जूझना पड़ रहा है। तालिबान युद्ध के मैदान में बढ़त हासिल करेगा। अगर गठबंधन वापस आता है तो अफगान सरकार के लिए तालिबान को रोकना मुश्किल होगा। ”
इस रिपोर्ट में साफ़ है कि बाइडेन के फैसले पर सवाल उठाने वाले भी यही तर्क देते हैं। अमेरिका की 20 साल मौजूदगी के बाद भी अफगान सरकार या सुरक्षा बल इतने सक्षम नहीं हैं कि वो तालिबान को मुंहतोड़ जवाब दे सके। इसमें अफगान की बहुनस्लीय राजनीति की भी बड़ी भूमिका है।
अफगानिस्तान निवासियों को आशंका
तो वहीं अब अफगानिस्तान में बहुत से लोगों को यह आशंका है कि अमेरिकी सैनिकों के हटने के पश्चात् फिर से वही ख़ूनी दौर वापस आ सकता है जब ताकतवर लड़ाके एक दूसरे पर ही अपनी बंदूकें तान दिया करते थे। इस पर जॉर्जटाउन यूनिवर्सिटी के कतर कैंपस में सीनियर फेलो अनातोल लीवेन कहते हैं, “अफगानिस्तान में अमेरिका के सबसे अहम कामों में से एक यह है कि वह अफगान गुटों को एक दूसरे से लड़ने से रोकता है।”
ऐसे में विश्लेषकों का यह कहना है कि अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों के जल्दी हटने से अफगान बलों की रक्षा क्षमताओं पर भी असर हो सकता है। तो वहीं कुगलमन कहते हैं कि अमेरिकी बलों की छोटी सी मौजूदगी भी युद्ध की दिशा तय करने में एक अहम भूमिका को अदा कर सकती है।
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अमेरिका ने वैसे तो कई जंगें लड़ी हैं और कई जंगों में जीत हासिल की है। लेकिन कुछ ऐसे युद्ध भी रहे जो उसके लिए गले की हड्डी बन गए थे। न निगलते बन रहा था और न उगलते बन रहा था। ऐसा ही एक युद्ध वियतनाम का युद्ध है जहां अमेरिका को अपने करीब 58,000 सैनिकों को खोना पड़ा था।
13 अक्टूबर, 1987, ये वहीं दिन था जो भारतीय सेना के लिए सबसे नाकाम दिन साबित हुआ। इस दिन कई लोग बेमौत मारे गए। अफगानिस्तान हो या इराक, इस तारीख की कड़वी यादों ने कभी हमारा पीछा नहीं छोड़ा। ये किस्सा भारतीय सेना के उस सर्जिकल स्ट्राइक का है, जिसमें गए तो मारने थे और खुद ही मारे गए। ये ऐसा मिशन था, जिसे भारत का ‘वियतनाम चैप्टर’ कहते हैं। इसी दिन का इतिहास था, जो आगे चलकर 1991 में राजीव गांधी की हत्या का कारण बना।
कितने देशों में है अमेरिकी सैन्य बेस
तुर्की
सीरिया
इराक
जॉर्डन
कुवैत
बहरीन
कतर
यूएई
ओमान
अफगानिस्तान
कजाखिस्तान
फिलिपींस
ऑस्ट्रेलिया
जिबूती
सोमालिया
बोत्सवाना
कांगो
केन्या
इथोपिया
लेबनान
ट्यूनिशिया
माली
नाइजर
चाड
सेंट्रल अफ्रीका रिपब्लिक
यूगांडा
गेबॉन
कैमरून
घाना
बुर्किना फासो
स्पेन
बेल्जियम
इटली
जर्मनी
ग्रीस
साइप्रस
यूनाइटेड किंगडम
आयरलैंड
क्यूबा
एसेसन द्वीप – यूके
डियोगा गार्सिया – यूके
अब अमेरिका के लिए अफगानिस्तान से सेना वापसी का फैसला उपलब्धि होगा या मुसीबत ये तो समय ही बताएगा। लेकिन इतिहास से सबक लें तो कई कहानियां और सच शंका बढ़ा ही देते हैं।