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चुन-चुनकर मारे जा रहे पत्रकार

अफगानिस्तान में लगातार हो रही पत्रकारों की हत्याएं इन दिनों दुनिया भर में सुर्खियों में हैं। अंतरराष्ट्रीय पंत्रकार संगठनों ने महिला पत्रकारों पर हो रहे हमलों को देखते हुए अफगानिस्तान को पत्रकारिता के लिहाज से बेहद खतरनाक देश बताया है। हाल ही में 2 मार्च को देश की तीन महिला मीडिया कर्मियों की हत्या कर दी गई। इनमें से एक मीडिया कर्मी अपने घर के बाहर टहल रही थी तब कुछ बंदूक धारियों ने उन पर गोली चला दी। दो अन्य महिला पत्रकार शहनाज और सदिया काम के बाद जब घर लौट रही थीं, तो उनकी गोली मारकर हत्या कर दी गई। तीनों महिला मीडिया वर्करों की हत्या की जिम्मेदारी इस्लामिक स्टेट (आईएस) ने ली है।

इंटेलीजेंस एजेंसी एसआईटीई के अनुसार, अफगानिस्तान में मौजूद आतंकी समूह ने कहा कि उनके लड़ाकों ने जलालाबाद के टेलीविजन स्टेशन की तीन महिला कर्मचारियों को अपनी गोली का निशाना बनाया था। साथ ही यह भी कहा गया कि जिन पत्रकारों को मौत की नींद सुलाया गया वो सभी एक ऐसे मीडिया संगठन के लिए काम करती थीं जो ‘धर्मभ्रष्ट अफगान सरकार के प्रति वफादार है। ये तीनों महिलाएं एनिकास टीवी के लिए काम करती थीं। इनकी उम्र 18 से 20 साल के बीच थी। चैनल के निदेशक जलमई लतीफी की ओर से समाचार एजेंसी एएफपी को बताया गया कि चैनल के डबिंग विभाग में तीनों काम करती थीं और जिस वक्त उन्हें गोली मारी गई उस दौरान वे दफ्तर से अपने घर पैदल जा रही थीं।

भारत और तुर्की के लोकप्रिय नाटकों को ये महिलाएं अफगानी भाषा डारी और पश्तु में डब किया करती थीं। आतंकी हमले में दो अन्य लोग भी घायल हुए हैं। दुनिया में अफगानिस्तान पत्रकारों के लिए एक खतरनाक मुल्क माना जाता है। इन तीन हत्याओं के साथ ही अफगानिस्तान में पिछले छह महीने में लगभग 5 से अधिक मीडियाकर्मियों की हत्या हो चुकी है। पत्रकारों के साथ ही धार्मिक विद्वानों, ऐक्टिविस्टों और जजों की भी अफगानिस्तान में लगातार हत्याएं हो रही है। जो एक चिंतनीय विषय बनता जा रहा है। मंजर ये है कि अब इनमें से कई तो अंडर ग्राउंड होने को विवश हैं। इतना ही नहीं अपनी जान बचाने के लिए अधिकतर देश ही छोड़ चुके हैं। अफगान सरकार और तालिबान के बीच शांति वार्ता शुरू होने से एक आशा की किरण दिखाई थी कि शायद अब हिंसा थम जाएगी, लेकिन इस वार्ता से हिंसा कम होने के बजाए हालात बिगड़ते ही जा रहे हैं। अब लोग अपने पेशे को लेकर भी स्वतंत्र नहीं हैं।

देश में हो रही इस हिंसा के लिए अफगान और अमेरिकी अधिकारियों ने तालिबान को जिम्मेदार बताया है। लेकिन तालिबान ने इन सभी आरोपों को खारिज कर दिया है। इसी हफ्ते अफगानिस्तान में अमेरिका के विशेष राजदूत जलमे खलीलजाद अफगानिस्न नेताओं के साथ बैठक करने के लिए काबुल वापस लौटे हैं। अमेरिकी सेना के अफगानिस्तान से पूरी तरह से हट जाने का समय समीप आ रहा है और ऐसे में प्रयास किया जा रहा है कि शांति वार्ता को फिर से ट्रैक पर लाया जाए।

नए अमेरिकी राष्ट्रपति जो बिडेन के पदभार संभालने के बाद खलीलजाद को अपने पद पर बने रहने के लिए कहा गया है। उसके बाद यह उनकी पहली अफगान यात्रा है। उनकी संधि के अनुसार, अमेरिकी सैनिकों को मई तक अफगानिस्तान छोड़ना होगा। संधि के अनुसार, तालिबान को भी किसी भी क्षेत्र का उपयोग करने की अनुमति नहीं है। लेकिन इस संधि का भविष्य बिडेन प्रशासन की देखरेख में स्पष्ट नहीं है। व्हाइट हाउस ने कहा है कि संधि पर पुनर्विचार किया जाएगा। कुछ विशेषज्ञों ने कहा है कि अगर अमेरिका जल्दबाजी में अफगानिस्तान से बाहर निकलता है, तो यह देश में पहले की तुलना में अधिक अशांति फैला सकता है।

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