करीब एक लाख 15 हजार अमेरिकी नागरिकों की कोरोना के चलते मौत हो चुकी है। शहर-शहर कोरोना का कहर है। मगर इस महामारी के बीच अमेरिका पर एक दूसरी मुसीबत टूट पड़ी है और वो है गोरे-काले के भेद को लेकर लोगों का गुस्सा और आंदोलन।
इस वक्त करीब-करीब इस भेदभाव से पूरा अमेरिका उबल रहा है। हर राज्य, हर शहर में लोग सरकार के खिलाफ जुलूस निकाल रहे हैं। कुछ जगहों पर तो प्रदर्शन उग्र भी होता जा रहा है। सिर्फ अश्वेत ही नहीं, बल्कि श्वेत अमेरिकन भी इस आंदोलन से जुड़ते चले जा रहे हैं।
अमेरिका में अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ्लॉयड की मौत के बाद जो कुछ देखने को मिल रहा है वो वहां पर पहली बार नहीं हो रहा है। अपने को साधन संपन्न और हाईटेक मानने वाले अमेरिकियों की हकीकत का एक कड़वा सच ये भी है कि वहां पर वर्षों से अश्वेतों के साथ ऐसा ही होता रहा है।
अश्वेतों के खिलाफ होने वाले जुल्मों का इतिहास यहां पर काफी पुराना है। माना जा रहा था कि बराक ओबामा के राष्ट्रपति चुने जाने के बाद इस तरह की घटनाएं आगे नहीं होंगी, लेकिन ये न पहले रुकीं न अब। आपको बता दें कि ओबामा अमेरिका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति थे। वे पहले अफ्रीकी-अमेरिकन थे जो राष्ट्रपति बने। इसको उस वक्त दुनिया के सबसे बड़ी ताकत में खुलेपन की बहुत बड़ी मिसाल कहा गया था।
अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ्लॉयड की दर्दनाक मौत
पिछले दिनों मिनीयापॉलिस शहर में एक श्वेत पुलिस अधिकारी के बर्ताव से 46 वर्षीय एक काले अफ्रीकी व्यक्ति जियॉर्ज फ्लॉयड की मौत के बाद 25 मई को अनेक शहरों में विरोध प्रदर्शन भड़क उठे थे।
श्वेत पुलिस अधिकारी ने फ्लॉयड की गर्दन पर आठ से ज़्यादा मिनट तक अपना घुटना सख़्ती से टिकाए रखा और समझा जाता है कि उसके कारण फ्लॉयड का दम घुट गया और बाद में पुलिस हिरासत में ही उनकी मौत हो गई।
बीते सप्ताह के दौरान लाखों प्रदर्शनकारी अमेरिका के 300 से भी ज़्यादा शहरों और अन्य अनेक देशों में सड़कों पर उतरे हैं। ये प्रदर्शन मुख्य रूप से शान्तिपूर्ण रहे हैं और इनमें नस्लीय न्याय की माँग की गई है, लेकिन कुछ स्थानों पर अव्यवस्था व लूटपाट भी देखी गई है, कुछ लोग ज़ख़्मी हुए हैं और पुलिस की हिंसक कार्रवाई भी देखी गई है।
इस मामले को लेकर मानवाधिकार उच्चायुक्त ने एक वक्तव्य में कहा है कि, ”जो लोग निहत्थे अफ्रीकी-अमेरिकन लोगों की हत्याओं पर रोक लगाने लिए आवाज़ें बुलन्द कर रहे हैं, उनकी बात सुनी जानी होगी… जो आवाज़ें पुलिस हिंसा पर लगाम लगाने की बात कर रही हैं, उन्हें सुना जाना होगा।”
जब अमेरिका में श्वेत स्टेलर सोसायटी के दबदबा हुआ करता था
एक दौर था जब अमेरिका में श्वेत स्टेलर सोसायटी का दबदबा हुआ करता था। उपनिवेशवाद के दौर में नस्लवाद अमेरिका में एक बड़ा मुद्दा हुआ करता था। इसका सबसे अधिक असर मूल अमेरिकियों, एशियाई अमेरिकियों, अफ्रीकी अमेरिकियों के अलावा लेटिन अमेरिकियों पर भी पड़ा। उनके लिए अमेरिका में एक अलग समाज था। उनके लिए अपने ही देश में हर चीज अलग थी। इस समाज में अश्वेत गुलाम होते थे। ये भेदभाव रोजगार पाने से लेकर शिक्षा हासिल करने और घर बनाने तक में दिखाई देता था। इसको लेकर अमेरिका में समय-समय पर आंदोलन भी हुए।
अमेरिका में लंबा है नस्लभेद का इतिहास
इतिहास पर नजर डालें तो पता चलता है कि 1619 में अमेरिका में पहला अफ्रीकी गुलाम वर्जीनिया लाया गया था। इसके बाद ये सिलसिला लगातार बढ़ता चला गया। इन गुलामों को कुछ साल काम करवा कर इन्हें बेच दिया जाता था। कुछ ऐसे भी खुशकिस्मत होते थे जिन्हें आजाद कर दिया जाता था। मैसाच्युसेट्स ऐसा पहला उपनिवेश बना था, जहां पर 1641 में गुलामी प्रथा को कानूनी जामा पहनाया गया।
अमेरिका में 1787 में एक बड़ा संवैधानिक परिवर्तन किया गया। के जरिए यह संभव हुआ। इसमें निज स्वतंत्रता पर ज्यादा से ज्यादा जोर दिया गया। बावजूद इसके इन अश्वेतों को वहां पर वोट देने का अधिकार नहीं मिल पाया। इनके बच्चे अच्छे स्कूलों में नहीं पढ़ सकते थे। 1790 में लगातार अश्वेतों ने अपनी आजादी के लिए संघर्ष किया। इसका नतीजा था कि आने वाले 25 वर्षों में काफी संख्या में इन अश्वेत गुलामों को मुक्त किया गया। 1808 में अमेरिका की संसद ने भी अंतरराष्ट्रीय गुलाम व्यापार को प्रतिबंधित कर दिया।
स्लेवरी यानी गुलामी का इतिहास
अफ्रीकन अमेरिकन या फिर अश्वेत अमेरिकन के अधिकारों की ये जो लड़ाई है।उसकी तह तक जाना ज़रूरी है। ये लड़ाई दरअसल स्लेवरी यानी गुलामी के इतिहास से शुरू होती है। अमेरिका में 16वीं सदी में काफी बड़ी तादाद में अफ्रीकियों को लाकर उनसे गुलामी करवाई जाती थी। अमेरिका में ये गुलामी प्रथा करीब 370 सालों तक जारी रही। 18वीं सदी में अमेरिका की आज़ादी के बाद भी इन गुलामों को आज़ाद नहीं किया गया और गुलामी का ये मुद्दा धीरे धीरे नासूर बनने लगा। नतीजतन 1861 में अमेरिका में गृहयुद्ध छिड़ गया। जिसके बाद 1865 में अमेरिकी संसद में एक कानून पारित किया गया। जिसमें गुलामी प्रथा को हमेशा के लिए खत्म कर दिया गया। कानून पारित होते ही 40 लाख अफ्रीकन अमेरिकन लोगों को गुलामी से आज़ाद कर दिया गया।
अमेरिकन को खुद लड़नी होगी यह लड़ाई
हालांकि कानूनी तौर पर तो अफ्रीकन अमेरिकन लोगों को गुलामी प्रथा से आज़ादी मिल गई। मगर सामाजिक तौर पर नहीं। गोरे अमेरिकी खुद को अफ्रिकी लोगों से ऊंचा समझते थे। कानून के पारित होने के बाद भी उनकी मानसिकता नहीं बदली। बल्कि अब अमेरिकी राज्यों में स्लेव पेट्रोल नाम की टोली या संगठन के लोग निकलने लगे। जो ये देखते थे कि कहीं किसी कारखाने या खेतों में काम कर रहे अफ्रीकी लोग बगावत की प्लानिंग या कोशिश तो नहीं कर रहे।ऐसा करने वाले लोगों को प्रताड़ित किया जाता था।
अफ्रीकी अमेरिकियों को बराबरी का दर्जा दिए जाने के करीब डेढ़ सौ साल बाद भी वो सम्मान कभी नहीं मिला। हालांकि ऐसा नहीं है कि इस दौरान अश्वेतों को मुख्य धारा में शामिल करने की कोशिश नहीं हुई। कई बड़े नेता और समाजसेवी संगठनों ने सालों संघर्ष किए। मगर नतीजा वही ढाक के तीन पात। यहां तक की अमेरिका के दक्षिणी राज्यों ने राज्य स्तर पर सालों तक इन अश्वेत अमेरिकियों को वोट देने से ही महरूम रखा ।
अश्वेतों से उनके अधिकार छीनने के लिए तमाम तरह की राजनीति की गई। मसलन ऐसा कानून बनाया गया कि सिर्फ पढ़े लिखे या टैक्स देने वाले लोग ही वोट कर सकते हैं।जिसके दायरे में तब के अफ्रीकी लोग कम ही आते थे।इन्हीं सब वजहों से बराबरी के कानून के पारित होने बावजूद करीब 80 सालों तक अश्वेत लोग वोट दे ही नहीं पाए।मगर अश्वेतों की मुश्किलें तब भी खत्म नहीं हुईं थीं।