यह बात लगातार कही जा रही है कि पूरी दुनिया में सौ साल पहले 1930-40 वाली कट्टरता फैल रही है। यह कयास है या अनायास इस पर बाद में बहस की जा सकती है। यह भी कहा जा सकता है कि क्या जेहनी तौर पर हम उसी फासिस्ट या कट्टरपंथी मानसिकता की गिरफ्त में हैं, जिसने दूसरे विश्वयुद्ध को जन्म दिया था। फिलहाल मामला यह है कि कई देशों की तरह अब स्वीडन में भी चुनाव में कट्टरपंथी ताकतें उभर कर सामने आई हैं।
स्वीडन के संसदीय चुनाव में धुर दक्षिणपंथी गठबंधन ने बेहतर प्रदर्शन किया है। अब सवाल यह है कि वहां अगली सरकार किसकी बनेगी। देश का प्रधानमंत्री अमूमन सर्वाधिक मत हासिल करने वाली पार्टी का नेता होता है। लेकिन खंडित जनादेश के आने के बाद अगली सरकार को लेकर चर्चा तेज है।
गौरतलब है कि वहां हुए चुनाव में वादा या दक्षिणपंथी की बजाय धुर दक्षिणपंथी स्वीडन डेमोक्रेटिक तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है। वह फिलहाल किंगमेकर की भूमिका में है। सोशल डेमोक्रेट प्रधानमंत्री स्टीफन लोफवेन के रेड ग्रीन वामपंथी गठबंधन को दक्षिणपंथी सुधार वाली गठबंधन से एक सीट ज्यादा मिली है। सोशल डेमोक्रेटिक को 284 फीसदी मत मिले हैं जबकि 2014 के चुनाव में उसे लगभग 31 फीसदी वोट मिले थे।
यह भी है कि यूरोप के देश स्वीड्न का नाम लेते ही जेहन में अल्फ्रेड नोबल, नोबेल पुरस्कार, डायानामाइट, बोफोर्स, कम्प्यूटर माउस, फुटबॉल टीम कांधता है। हथियार निर्यात करने के मामले में यह आला देश है, मगर यह भी दिलचस्प है कि हथियारों का बड़ा निर्यात करने वाले देश ने 1814 के बाद कोई युद्ध नहीं लड़ा। मतलब यह जंग लड़ते नहीं, लड़वाते हैं। दुनिया के अमीर देशों में शामिल स्वीडन नयी तकनीक का हिमायती रहा है। इस देश के बारे में कहा जा रहा है कि यह लोग दुनिया के सबसे अमीर हैं। यहां हड़तालें नहीं होती हैं। यह दुनिया का इकलौता देश है, जहां सात साल के बच्चे को सेक्स का सबक दिया जाता है।
लेकिन अब यह देश बदल रहा है। लोगों को शिकायत है कि अब इस देश में पहले वाली बात नहीं है। बुनियादी सुविधाएं भी बदली हैं। यहां तक कि स्वीडन की राजनीतिक तस्वीर भी बदल रही है। इस देश को उदारवादी पहचान देने वाली सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी का दबदबा लगातार घट रहा है। लगभग सात दशकों यानी साल 2006 तक इस पार्टी की जडं़े मजबूती से जमी रही हैं। हाल ही में हुए आम चुनाव में यह पार्टी जिस गठबंधन में थी वो मुकाबले के दूसरे गठबंधन से ज्यादा वोट ले आया लेकिन बहुमत प्राप्त करने में असफल रहा है। बताया जा रहा है कि वैसे तो स्वीडन गठबंधन सरकारों को अभयस्त होने लगा है। लेकिन इस बार बड़ा अंतर प्रवासियों का मुखर विरोध करने वाली पार्टी स्वीडन डेमोक्रेटिक को वोट मिले हैं। स्मरण रहे 2018 में वहां प्रवासी संकट आया था। तब स्वीडन ने उदार रुख दिखाया था। एक लाख 63 हजार लोगों ने स्वीडन से शरण पाने के लिए आवेदन किया था। उस देश ने दुनिया के बाकी देशों की तुलना में कहीं बहुत ज्यादा प्रवासियों को जगह दी। लेकिन जब लोगों का हुजूम आया तो वहां की व्यवस्था चरमरा गई।
अब प्रवासी विरोधी धुर दक्षिणपंथी विपक्षी पार्टी ने मजबूती हासिल की है और राजनीति में ‘वास्तविक प्रभाव’ छोड़ने का दावा किया। जाहिर है अब अगर वह पार्टी सरकार में शामिल होती है, सरकार पर दबाव बनाने की स्थिति में लगातार बनी रहती है तो प्रवासी संकट बढ़ेगा। दुनिया के अलग-अलग देशों के जो भी प्रवासी स्वीडन में हैं, उनके अब बुरे दिन आने तय हैं। इसके लिए वहां के प्रवासियों को मानसिक रूप से तैयार रहने की जरूरत है। साथ ही जो वहां उदारवादी विचारधारा की पार्टियां हैं उनको भी आने वाले दिनों में मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा। इस पूरी जद्दोजहद में सबसे ज्यादा नुकसान वहां की जनता को ही उठाना होगा। दुनिया के संपन्न देशों में एक इस देश के नागरिकों को असुविधा के लिए मन बना लेना चाहिए।