तालिबान को मान्यता दिलाने के लिए चीन और पाकिस्तान दुनिया के देशों को खौफ दिखा रहे हैं कि यदि ऐसा न हुआ तो इसके भारी दुष्परिणाम सामने आएंगे
अफगानिस्तान के लोग दो नहीं, बल्कि कई पाटों के बीच पिस रहे हैं। मौत हर तरह से उनका पीछा कर रही है। वे अपनी धरती में बने रहे तो मरे और देश छोड़ते हैं तो भी मरे। एक तरफ तालिबान का खौफ है तो दूसरी तरफ आईएसआईएस का। देश छोड़ते वक्त अमेरिकी सेनाओं की गोलियों के भी वे शिकार हुए। मानवता त्राहिमाम कर रही है, लेकिन दुनिया के देश खासकर चीन और पाकिस्तान इसमें अपना हित तलाश रहे हैं। तालिबान के जरिए अपना हित साधने के लिए वे इन आतंकियों की सरकार को मान्यता दिलाने की भरसक कोशिश कर रहे हैं। तालिबान के साथ संबंधों को लेकर चीन इन दिनों दुनिया भर के देशों को समझाने में जुटा हुआ है, तो अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के बाद पाकिस्तान बेहद खुश नजर आ रहा है। आलम ये है कि उसके नेता आए दिन ऊलजुलूल बयानबाजी कर रहे हैं। पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) मोईद यूसुफ ने अब दुनिया को खुली धमकी दी है। एक बयान में यूसुफ ने कहा कि पाकिस्तान चाहता है कि दुनिया के देश जल्द से जल्द अफगानिस्तान में तालिबान की सरकार को मान्यता दें। अगर ऐसा नहीं हुआ तो हमारे सामने एक और 9/11 का खतरा है। जैसे ही इस बयान से बवाल मचा तो वो पलट गए, सफाई देने लगे। चीन और अमेरिका के बीच विदेश मंत्री स्तर की बातचीत में चीन ने कहा कि अफगानिस्तान की स्थिति में मूलभूत परिवर्तन हुए हैं। इस कारण सभी पक्षों के लिए तालिबान के साथ संपर्क स्थापित करना और उसका सक्रिय रूप से मार्गदर्शन करना जरूरी है। चीन ने आशंका जताई है कि अमेरिकी सैनिकों के वापस जाने से अफगानिस्तान में आतंकवादी समूहों को फिर से सिर उठाने का मौका मिल सकता है।
चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन के साथ टेलीफोन पर बातचीत के दौरान अफगानिस्तान में बिगड़ती स्थिति पर चर्चा की। यह बातचीत बीते 31 अगस्त की समय सीमा से पहले अमेरिका और उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) देशों द्वारा अफगान नागरिकों और राजनयिकों को देश से निकालने के बीच हुई। वांग और ब्लिंकन ने द्विपक्षीय संबंधों पर भी चर्चा की। अंतरराष्ट्रीय खबरों के अनुसार चीनी विदेश मंत्री ने कहा कि अफगानिस्तान की स्थिति में मूलभूत परिवर्तन हुए हैं और ‘सभी पक्षों’ के लिए तालिबान के साथ संपर्क बनाना और उसका सक्रिय रूप से मार्गदर्शन करना जरूरी है। वांग ने कहा कि खासतौर पर अमेरिका को अफगानिस्तान में तत्काल जरूरी आर्थिक और मानवीय सहायता प्रदान करने के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ काम करने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि अमेरिका को अफगानिस्तान के नए राजनीतिक ढांचे, सरकारी संस्थानों के सामान्य संचालन को बनाए रखने, सामाजिक सुरक्षा और स्थिरता बनाए रखने और मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने में मदद करने के वास्ते अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ काम करना चाहिए। वांग ने कहा कि अमेरिका और नाटो सैनिकों की जल्दबाजी में वापसी से अफगानिस्तान में विभिन्न आतंकवादी समूहों को फिर से संगठित होने का मौका मिल सकता है। उन्होंने अमेरिका से आग्रह किया कि वह दोहरे मानकों का पालन करने या आतंकवाद से चुनिंदा तरीके से लड़ने के बजाय अफगानिस्तान की संप्रभुता और स्वतंत्रता का सम्मान करे। वांग ने कहा कि अमेरिका को अफगानिस्तान में आतंकवाद और हिंसा से निपटने में मदद करने के लिए ठोस कदम उठाने चाहिए।
चीन-अमेरिका संबंधों पर उन्होंने कहा कि टकराव के बजाय बातचीत और संघर्ष की जगह सहयोग बेहतर है। चीनी पक्ष इस बात पर विचार करेगा कि बीजिंग के प्रति अमेरिकी रवैये के आधार पर अमेरिका के साथ कैसे बातचीत की जाए। अगर
अमेरिकी पक्ष भी द्विपक्षीय संबंधों को सही रास्ते पर लाने की उम्मीद करता है, तो उसे चीन की संप्रभुता, सुरक्षा और विकास हितों को कमतर नहीं आंकना चाहिए। अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद से तालिबान की बढ़ती हिंसा को लेकर चीन की नीति अजीब बताई जा रही है। कुछ दिनों पहले तक चीन अपने पश्चिमी प्रांत शिनजियांग में इस्लामिक आतंकवाद के लिए तालिबान को दोषी ठहराता था। चीन लंबे समय से यह भी कहता आया है कि तालिबान-नियंत्रित क्षेत्र का इस्तेमाल शिनजियांग के अलगाववादी ताकतों को शरण देने के लिए किया जाता है। इसके बावजूद तालिबान की सरकार को मान्यता देने और उसे आमंत्रित कर बातचीत करने की कोशिश समझ से परे है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) ने भारत की मौजूदा अध्यक्षता में पिछले हफ्ते अफगानिस्तान के हालात पर एक प्रस्ताव पारित किया। इसमें मांग की गई कि युद्ध प्रभावित देश का इस्तेमाल किसी देश को डराने या हमला करने या आतंकवादियों को पनाह देने के लिए नहीं किया जाए। हालांकि इस वोटिंग में चीन की पोल खुल गई है। इस प्रस्ताव को अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस ने पेश किया। परिषद के 13 सदस्य देशों द्वारा प्रस्ताव के पक्ष में मत दिये जाने के बाद इसे पारित कर दिया गया, जबकि परिषद के स्थायी सदस्य रूस और चीन मतदान के दौरान अनुपस्थित रहे। इससे साफ जाहिर है कि चीन तालिबान को पैसों के बल पर अपनी कठपुतली बनाने की फिराक में है। आने वाले समय में वह इसका इस्तेमाल भारत के खिलाफ करने की कोशिश करेगा।
प्रस्ताव में मांग की गई है कि अफगानिस्तान क्षेत्र का इस्तेमाल किसी देश को धमकाने या किसी देश पर हमला करने या आतंकवादियों को पनाह देने के लिए न किया जाए। भारतीय विदेश सचिव हर्षवर्धन शंृगला ने कहा ‘अफगानिस्तान पर ये प्रस्ताव यूएनएससी 1267 की तरफ से नामित आतंकवादी और संस्थाओं को रेखांकित करता है, यह भारत के लिए सीधे तौर पर महत्व रखता है, अफगान क्षेत्र का उपयोग किसी भी देश को धमकाने, हमला करने या आतंकवादियों को शरण देने, वित्त देने या प्रशिक्षित करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए। इस प्रस्ताव में तालिबान द्वारा बीते 27 अगस्त को दिए गए बयान को भी नोट किया गया है। सुरक्षा परिषद को उम्मीद है कि तालिबान अपनी प्रतिबद्धताओं का पालन करेगा, जिसमें अफगानों और सभी विदेशी नागरिकों के अफगानिस्तान से सुरक्षित और व्यवस्थित प्रस्थान के संबंध में शामिल हैं।
चीन को महंगा पड़ेगा तालिबान
चीन भले ही तालिबान को आगे बढ़कर अपना समर्थन दे रहा है, लेकिन यही उसके लिए मुसीबत का सबब बन सकता है। अफगानिस्तान में इन दिनों इस्लामिक स्टेट खोरासान सक्रिय है और यह खूंखार आतंकी संगठन तालिबान के खिलाफ है। इसके अलावा चीन के शिनजियांग प्रांत में एक्टिव ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट के लड़ाके भी तालिबान के साथ आकर मिल सकते हैं। ये लड़ाके लंबे समय से शिनजियांग के उइगुर मुस्लिमों को आजाद कराने के लिए लड़ते रहे हैं।
अफगानिस्तान तालिबान और बड़ी ताकतों के खेल का मैदान बन गया है। जहां तक रूस का सवाल है तो अव्वल तो यह कि जैसी बुरी तरह अफगानिस्तान से बाफजीहत सोवियत रूस निकला था आज अमेरिका को उसी हाल में देख व्लादीमिर पुतिन तो मुस्कुरा ही रहे होंगे, पुराने केजीबी अफसर और कट्टर राष्ट्रवादी जो हैं। सरल तरीके से देखा जाए तो रूस के लिए यह अच्छी खबर है कि अमेरिका उसके पड़ोस से निकल गया वो भी बेआबरू होकर, लेकिन रूस के लिए यह काफी नहीं है। मध्य एशिया के देशों का रखवाला रूस यह कभी नहीं चाहेगा कि ताजिकिस्तान जैसे उसके मित्र देशों को तालिबान से दिक्कत हो। अफगानिस्तान में रूस ने हमेशा से नार्थर्न अलायंस को समर्थन दिया था। अहमद शाह मसूद के वंशजों को रूस का समर्थन आज भी है और यही लड़ाके आज पंजशीर में तालिबान से लोहा ले रहे हैं।