सूर्य की किरणों में मौजूद अल्ट्रावायलेट तरंगों को रोकने का काम करने वाली ओजोन परत में सूराख की बात कुछ दशक पहले सामने आई थी। वायुमंडल में कई प्रकार की गैसों से बनी ओजोन परत सूर्य की हानिकारक किरणों को सीधे धरती पर आने से रोकती है। यदि ये अल्ट्रावायलेट तरंगें अधिक मात्रा में हमारे वायुमंडल में प्रवेश करती हैं तो इनसे स्किन कैंसर समेत कई घातक बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। 1986 में वैज्ञानिकों ने इस परत में एक सूराख होने की बात कही थी। इस सूराख को बढ़ने से रोकने की कवायद तभी से विश्व भर में शुरू हुई जिसके सार्थक परिणाम अब सामने आए हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ की ताजातरीन एक रिपोर्ट में बताया गया है कि ओजोन परत में पैदा हुआ सूराख अब कम होने लगा है
वर्ष 1985 में ब्रिटिश अंटार्कटिक सर्वेक्षण के तीन वैज्ञानिकों द्वारा पता लगाया गया था कि ‘पृथ्वी के चारों तरफ मौजूद ओजोन लेयर में दिन प्रतिदिन एक सूराख बढ़ता जा रहा है। जो आने वाले समय में मानव जाति के लिए बेहद खतरनाक साबित हो सकता है।’ इसके बढ़ते खतरे को रोकने और इसमें सुधार करने के लिए वैज्ञानिकों के द्वारा निरंतर खोज और प्रयास किये जाते रहे हैं और साथ ही साथ ओजोन परत की स्थिति का जायजा लेते हुए हर चार वर्ष में एक अध्ययन रिपोर्ट भी जारी की जाती है। इस साल जारी की गई संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2000 के बाद से स्ट्रेटोस्फियर यानी समताप मंडल में ओजोन की गुणवत्ता में लगातार सुधार देखा गया है।
नॉर्थर्न हेमिस्फीयर और मिड एटीट्यूड में ओजोन लेयर वर्ष 2030 तक पूरी तरह से ठीक होने का दावा किया जा रहा है। इसका मतलब है कि 2014 और 2018 में जो तथ्य सामने आए थे, उनकी तुलना में ओजोन परत की गुणवत्ता में गुजरे वर्षों से अधिक सुधार देखे गए हैं। बिगड़ते हालातों में यह राहत देने वाला संदेश माना जा रहा है। ओजोन की गुणवत्ता दक्षिणी गोलार्द्ध में वर्ष 2050 तक और पोलर क्षेत्रों में 2060 तक ठीक हो जाने की उम्मीद जताई जा रही है। विशेषज्ञों का कहना है कि यह सफलता अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सहमत हुई नीतियों और गतिविधियों की बदौलत संभव हो सकी है। इनमें ‘मॉट्रियल प्रोटोकोल’ भी एक बड़ी कामयाबी है, जिसे करीब 30 वर्ष पहले वजूद में लाया गया था। उस समय किए गए अध्ययनों से पता चला था कि क्लोरोफ्लोरोकार्बन (सीएफसी) और कुछ अन्य तत्व ओजोन परत में छेद बनाने में सक्षम हो रहे हैं, यह पदार्थ एयरोसोल्स, रेफ्रिजरेशन सिस्टम और माहौल को ठंडा रखने के लिए चलने वाली मशीनों में भारी मात्रा में पाया जाता है।
यूएन के द्वारा प्रकाशित की गई शुरुआती रिपोर्ट्स में बताया गया था कि ‘ओजोन परत में छेद होने की वजह से सूरज से निकलने वाली खतरनाक अल्ट्रावायलेट किरणों का रेडिएशन जमीन की तरफ आने लगा है जिस कारण जमीन का तापमान धीरे-धीरे बढ़ता जायेगा जिससे पृथ्वी पर रहने वाले जीवों को इन उल्ट्रावॉइलेट रेज के कारण स्किन कैंसर के साथ-साथ कई तरह की स्किन डिसीज होने का खतरा भी बढ़ता जा रहा है।’ इसी बढ़ते खतरे को देखते हुए ‘मांट्रियल प्रोटोकॉल’ को वर्ष 2019 में ‘किगाली संशोधन’ को मंजूरी देने के साथ ही और मजबूत कर दिया गया। जिससे रैफ्रिजरेशन, एयर कंडीशनिंग और अन्य सम्बंधित मशीनों में इस्तेमाल होने वाली गैसों को बंद करने का आह्नान किया जाता रहा है। क्योंकि रेफ्रिजरेशन मशीनों और एयर कंडीशनर से निकलने वाली गैसें पर्यावरण को भीषण नुकसान पहुंचाती हैं।
मांट्रियल प्रोटोकॉल क्या है
ओजोन परत को नष्ट करने वाले सीएफसी को रोकने के लिए सन् 1987 में एक अंतरराष्ट्रीय समझौता किया गया था, जिसे ‘मांट्रियल प्रोटोकॉल’ कहते हैं। यह पहली अंतरराष्ट्रीय संधि है, जिसने ग्लोबल वार्मिंग की दर को सफलतापूर्वक धीमा किया है। एनवायर्नमेंटल रिसर्च लेटर्स नामक वैज्ञानिक शोध पत्रिका में प्रकाशित एक रिपोर्ट अनुसार मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल की वजह से आज वैश्विक तापमान काफी कम है। मध्य शताब्दी तक पृथ्वी औसत से कम से कम 1 डिग्री सेल्सियस ठंडी हो जाएगी, जो कि इस समझौते के बिना संभव नहीं था। आर्कटिक जैसे क्षेत्रों में शमन (मिटिगेशन) भी अधिक हुआ है। यहां तापमान के 3 डिग्री सेल्सियस से 4 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ने की आशंका थी, जो इस प्रोटोकॉल की वजह से रुक गया है।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के प्रमुख एरिक सोलहेम के अनुसार ‘मांट्रियल प्रोटोकॉल’ किसी खास मकसद के लिए किया गया एक कामयाब बहुपक्षीय समझौता है जो इतिहास में बहुत खास मुकाम रखता है। संयुक्त राष्ट्र की हाल ही में प्रकाशित की गई रिपोर्ट में विज्ञान और सहकारिता यानी एकजुटता के साथ की गई कार्रवाई में मांट्रियल प्रोटोकॉल के 30 वर्षों तक के कार्यों को विस्तार से परिभाषित किया गया है। हम जानते हैं कि मांट्रियाल प्रोटोकाल ओजोन परत में आई कमजोरी को ठीक करने के लिए वजूद में लाया गया था। इस उद्देश्य को पूरा करते हुए इसमें एक संशोधन किया गया जिसे हम ‘किगाली संशोधन’ के नाम से जानते हैं। जिसका मकसद भविष्य में वातावरण को बेहतर बनाने के लिए कदम उठाना है।
किगाली संशोधन
मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल में किगाली संशोधन एक कानूनी रूप से बाध्यकारी अंतरराष्ट्रीय समझौता है जिसका उद्देश्य HFCs की खपत और उत्पादन को धीरे-धीरे समाप्त करना है। इस संशोधन के तहत, अमेरिका और यूरोपीय संघ जैसे विकसित देशों को 2036 तक HFCs के उत्पादन और खपत को 2012 के स्तर के लगभग 15 प्रतिशत तक कम करने की मांग की गई जिसे पूरा होते हुए देखा जा रहा है।
ओजोन परत के आंकड़े बने उम्मीद की किरण
वर्ष 2022, दिसंबर में जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल (आईपीसीसी) ने एक महत्वपूर्ण रिपोर्ट जारी की थी जिसमें बताया गया था कि अगर पृथ्वी का तापमान 2 डिग्री सेल्सियस भी बढ़ गया तो इसके खतरनाक नतीजे हो सकते हैं। अब इस बाबत राहत देने वाली बात सामने आई है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘अगर किगाली संशोधन के बाद इस शताब्दी में पृथ्वी के तापमान में 0 ़4 प्रतिशत वैश्विक वृद्धि को रोका जा सकता है, इसका मतलब यह है कि इससे पृथ्वी के तापमान वृद्धि को दो डिग्री सेल्सियस के दायरे में रखने में मदद मिली है, वर्तमान नीतियां इसी तरह काम करती रहीं तो 2040 तक इस परत की स्थिति 1980 के मानकों तक पहुंच जाएगी। अंटार्कटिका के ऊपर, यह पुर्नबहाली लगभग 2066 तक और आर्कर्टि के ऊपर 2045 तक होने की उम्मीद हैं।’
क्या है ओजोन परत
ओजोन परत पृथ्वी के चारों तरफ फैले वायुमंडल की गैसों से बनी एक मोटी परत है। यह इतनी महत्वपूर्ण है कि इस परत के कारण ही धरती पर जीवन संभव है। यह परत सूर्य की उन आवृत्ति के पराबैंगनी प्रकाश की 90-90 प्रतिशत मात्रा अवशोषित कर लेती है, जो पृथ्वी पर जीवन के लिए हानिकारक है। पृथ्वी के वायुमंडल का 91 प्रतिशत से अधिक ओजोन इस परत में मौजूद है, जिस कारण इसे ओजोन परत कहा जाता है। यह लगभग 10 किमी ़ से अधिक मोटी परत है जो पृथ्वी से लगभग 30
किलोमीटर की दूरी पर मौजूद है, यद्यपि इसकी मोटाई मौसम और भौगोलिक दृष्टि से बदलती रहती है।