अंग्रेजों और फ्रांसीसियों की चाल से बेमुल्क हुए कुर्द लोग कभी अपनी जड़ों को भूले नहीं। किस्से- कहानियों और परंपराओं के जरिए उन्होंने अपनी पहचान को जिंदा रखा हुआ है
कीरीब एक सदी से वे अपनी पहचान को बचाने के लिए जूझ रहे हैं। तमाम विपरीत परिस्थितियों में जीने के बावजूद अपनी जड़ों से जुड़े हुए हैं। उनकी भाषा-संस्कøति को मिटाने की कोशिशें हुई, लेकिन वतन के प्रति उनका जज्बा बरकरार रहा। किस्से-कहानियों में वे अपनी पहचान को जीवित किए रहे।
दरअसल, 1916 में अंग्रेजों और फ्रांसीसियों ने मिलकर कुर्दिस्तान को सीरिया, इराक, तुर्की और ईरान में बांटने का गुपचुप समझौता कर लिया था। आज 2 .5 से 3 .5 करोड़ कुर्द बेमुल्क के बाशिंदे हैं, उनका अपना वतन नहीं है। लेकिन, अपनी जुबान, संस्कृति, सभ्यता, परंपरा और साझा इतिहास की मदद से कुर्दों ने अपने वतन को अपने दिलों में जिंदा रखा है।
वर्ष 1923 में तुर्की की स्थापना से पहले कुर्द जुबान और संस्कøति को अपनी पहचान बचाने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ रही है। तुर्की के शासकों का पूरा जोर कुर्दों की अलग पहचान मिटाकर उन्हें कुर्द से तुर्क बनाने पर रहा है। करीब एक सदी से कुर्द लोग अपने अलग देश की मांग को लेकर संघर्ष कर रहे हैं। दो साल पहले यानी 2016 में कुर्द उग्रवादियों का तुर्की की सरकार के साथ हिंसक संघर्ष हुआ था। इस लड़ाई में पुराने दियारबकर शहर का बड़ा हिस्सा तबाह हो गया। इस इलाके में आज चल रहे निर्माण कार्य असल में उस जंग के जख्मों के निशान हैं। पुनर्निर्माण के लिए शहर के एक बड़े हिस्से की घेराबंदी करके उसे अलग कर दिया गया है।
कुर्द इलाकों के गांवों और कस्बों में किसी तयशुदा जगह पर इकट्ठा होकर किस्से कहानियां सुनने-सुनाने की परंपरा रही है। कहानी सुनाने वाले ज्यादातर मर्द होते हैं, पर कई महिला गायिकाएं भी हुई हैं, जो देंगबे परंपरा की ध्वजवाहक हैं। वो पढ़ी-लिखी भले न हों, मगर अपने जुबानी हुनर की वजह से वो अपने जेहन में किस्सों, तजुर्बों और इतिहास की लाइब्रेरी लेकर चलती हैं, जो दौलत पीढ़ी-दर-पीढ़ी कहानियों की शक्ल में विरासत के तौर पर सौंपी जाती रही हैं।
तुर्की में देंगबे परंपरा को बहुत मुश्किलें झेलनी पड़ीं। कुर्दिश अलगाववाद को रोकने के लिए 1983 से 1991 के बीच सार्वजनिक रूप से कुर्द जुबान बोलने, लिखने और पढ़ने पर पाबंदी लगा दी गई थी। कुर्द में साहित्य और संगीत रखना जुर्म घोषित कर दिया गया था। लेकिन, ये देंगबे की परंपरा ही थी, जिसने कुर्द संस्कृति को बचाकर रखा। जानकारों के मुताबिक दंगबे कला इसलिए जुल्म से बच गई क्योंकि ज्यादातर कुर्द ग्रामीण इलाकों में रहते हैं। मेहमानखानों में लोगों का इकट्ठे होकर किस्सागोई का लुत्फ उठाना चलता रहा। ठंड के दिनों में तो ऐसी महफिलें खास तौर पर जमती थीं। इन बैठकों को शाम का वक्त काटना कहते थे। इन बैठकों में देंगबे की किस्सागोई की परंपरा बची रही और कुर्दों के किस्से-कहानियां भी गुपचुप तरीके से कुर्द अपनी पौराणिक कहानियों और कला को संरक्षित करते रहे।
कुर्द लोगों की अपनी भाषा, संस्कृति के प्रति लगाव और इसे जिंदा रखने का जज्बा ही था कि इक्कीसवीं सदी की शुरुआत से कुर्दों और तुर्कों के बीच रिश्ते बेहतर होने शुरू हुए। कुर्द भाषा को बोलने की और इसके साहित्य को छापने और पढ़ने की मंजूरी दे दी गई। सरकारी टीवी और रेडियो पर कुर्द भाषा में प्रसारण होने लगे। 2009 में कुर्द जुबान में टीवी चैनल शुरू किया गया। 2012 में एक स्कूल को कुर्द भाषा पढ़ाने की इजाजत दे दी गई।
कुर्द लोग माला देंगवे नामक एक जगह को अपनी पहचानि को जिंदा रखने के लिए एकत्रित होते रहते हैं। माला देंगबे 2007 में खुला था। कुर्द समर्थक नगर निगम ने देंगबे परंपरा में नई जान डालने और इसे पहचान देने के लिए ये जगह तय की। अब देंगबे परंपरा को मुख्यधारा में लाने में माला दंगबे ने बहुत अहम रोल निभाया है। माला देंगबे सुबह नौ बजे से शाम छह बजे तक खुला रहता है। यहां पर परफसर्मेंस का कोई तयशुदा मानक नहीं है, बल्कि ये लोगों के मेल-जोल और सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखने का ठिकाना है। चाय के दौर पर दौर चलते रहते हैं और चलता रहता है किस्सागोई का सिलसिला। जब नए लोग यहां पहुंचते हैं तो तालियां बजाकर और गाल पर एक चुंबन देकर उनका स्वागत किया जाता है। यहां जो नज्में गा कर सुनाई जाती हैं, उन्हें कलाम कहते हैं। ये गीत जंग, बहादुरी, धोखेबाजी और मुहब्बत की दास्तानें कहते हैं। इनमें कुर्दों के तमाम गुटों के संबंधों का बखान भी होता है। वो कुर्द परंपरा और किस्से- कहानियों को जिंदा रखते हैं। इसके इतिहास को आने वाली नस्लों के लिए संजोते हैं। ऐतिहासिक किस्से और पौराणिक कहानियां सुना कर इनका मकसद कुर्दों के बीच एकता को बनाए रखना होता है। पुराने लोगों से सुने किस्से सुनाने के अलावा परफार्म करने वाले कलाकार खुद अपनी नज्में और किस्से भी लिखकर सुनाते हैं।
कुर्दिस्तान के ग्रामीण इलाकों में आज भी छोटी-छोटी महफिलों में देंगबे की परंपरा निभाई जा रही है। हालांकि अब देंगबे को कानूनी मान्यता मिल गई है, पर इसके सामने टीवी चैनलों के रूप में नई चुनौती खड़ी हो गई है। लोग शहरों की तरफ भाग रहे हैं।