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अफगान सरकार और तालिबान में समझौते से कितनी उम्मीद?

अफगानिस्तान सरकार और तालिबान के बीच हुए शुरुआती समझौते को अफगान शांति प्रक्रिया में प्रगति माना जा रहा है। लेकिन अब भी कई  आशंकाए है जिनपर विराम नहीं लगा पाया है। महत्वपूर्ण ये है कि तालिबान का समझौता राष्ट्रपति अशरफ गनी की सरकार से हुआ है।क्योंकि मौजूदा अफगान सरकार को तालिबान अफगान जनता का प्रतिनिधि नहीं मानता। वह अशरफ गनी को अफगानिस्तान का वैध राष्ट्रपति नहीं मानता है।

लेकिन अभी भी यह नहीं कहा जा सकता है कि इस समझौते के बाद देश में युद्धविराम लागू हो पायेगा। फिलहाल तो इतना ही कहा गया है कि अफगान सरकार और तालिबान शांति प्रक्रिया से जुड़े ठोस मुद्दों पर आगे बातचीत करने को तैयार हुए हैं। इन मुद्दों में युद्धविराम भी सम्मिलित है। इससे पहले तो तालिबान बातचीत करने को तैयार ही नहीं था।

कतर की राजधानी दोहा में कई महीनों से अफगानिस्तान में शांति स्थापित करने के लिए बातचीत हो रही हैं। अभी भी अफगानिस्तान सरकार और तालिबान के बीच युद्ध जैसी स्थिति है। तालिबान सरकारी ठिकानों पर हमले जारी रखे हुए है। अमेरिका और पश्चिमी देशों के दबाव के बावजूद, तालिबान हमले को रोकने के लिए सहमत नहीं हुआ है। यह कहा गया है कि अन्य मुद्दों पर बातचीत आगे बढ़ने के बाद ही युद्ध विराम हो सकता है।

ताजा समझौते के बाद राष्ट्रपति गनी के प्रवक्ता ने कहा कि यह मुख्य मुद्दों पर बातचीत शुरू करने की दिशा में एक प्रगति है। अफगान जनता की मुख्य मांग रही है युद्धविराम, जो इसमें शामिल भी है। यहां चल रही बातचीत की प्रक्रिया से वाकिफ यूरोपीय संघ के एक कूटनीतिज्ञ द्वारा एक समाचार एजेंसी को बताया गया कि दोनों पक्षों ने विवादास्पद मुद्दों को एक किनारे रखा, ताकि बातचीत जारी रखी जा सके। कूटनीतिज्ञ ने कहा- दोनों पक्ष जानते हैं कि पश्चिम देशों का सब्र टूट रहा है। अफगानिस्तान को मिल रही सहायता सशर्त है। इसलिए दोनों पक्षों की विवशता थी कि वे बातचीत में कुछ विकास दिखाएं।

विश्लेषकों के अनुसार देखा जाए तो यदि केवल  प्रगति दिखाने की मजबूरी में समझौता किया गया है, तो इसमें आगे चल कर कई मुश्किलें आ सकती हैं। क्योंकि अभी भी दोनों पक्षों में किसी मुख्य मुद्दे पर सहमति नहीं बन पाई है। बल्कि सिर्फ इस बात पर सहमति बनी है कि दोनों पक्ष इन मुद्दों पर बातचीत जारी रखेंगे। इसलिए इस करार से ज्यादा उम्मीद रखने की गुंजाइश नहीं बनती।

जानकारों का मानना है कि अमेरिका की भूमिका अफगान शांति प्रक्रिया में मुख्य है। अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की प्राथमिकता थी। लेकिन अब निर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडन की इसपर क्या नीति होगी, इस बारे में अभी कुछ भी साफ नहीं है। क्या बाइडन प्रशासन ट्रंप के दौर में तालिबान से हुए समझौते पर कायम रहेगा। इसपर संशय बरकार है।

पाकिस्तान की ओर से ताजा समझौते का स्वागत किया गया है। पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय की तरफ से बयान जारी किया गया। उसमें कहा गया है कि यह समझौता दोनों पक्षों की बातचीत से समाधान निकालने की प्रतिबद्धता को दिखाता है। यह अलग-अलग अफगान गुटों में जारी वार्ता सफल हो सके, उस दिशा में यह एक महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है। अमेरिका के निवर्तमान विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने भी समझौते की प्रशंसा की है। उन्होंने कहा है कि इससे अफगानिस्तान में हिंसा कम होगी और देश के युद्धविराम की तरफ बढ़ने का रास्ता खुलेगा।

इस मामले में सहमति तो बन गई थी। लेकिन समझौता अब हुआ है लेकिन इन सब से इतर तब तालिबान ने येन वक्त पर उस पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया। इसका कारण रहा समझौते की प्रस्तावना में एक पक्ष को अफगान सरकार कह कर संबोधित किया जाना।

अब तालिबान का कहना है कि प्रस्तावना कैसे तय की जाएगी। इस बारे में बातचीत की जाएगी। अब बातचीत के एजेंडे पर ही बातचीत शुरू होगी। बातचीत के संयुक्त कार्य समिति बनाई गई है। स्पष्ट  संकेत हैं कि तालिबान अपनी बात मनवाने में सफल हुआ है। इस पर पाकिस्तान का खुश होना लाजमी है। लेकिन इससे सचमुच शांति का रास्ता निकलेगा, अभी कहना जल्दबाजी होगी।

अमेरिका अफगानिस्तान में अपने सैनिकों की संख्या 8,600 तक घटाएगा


तालिबान के साथ हुए समझौते के अनुसार,  अमेरिका अफगानिस्तान में अपने सैनिकों की संख्या घटाकर 8,600 कर देगा। लेकिन अधिकारियों का कहना है कि अगर अफगान पक्ष किसी समझौते पर पहुंचने में सफल नहीं रहता है तो अमेरिका अपने सैनिकों की वापसी के लिये विवश भी नहीं है।

अफगानिस्तान इस समय युद्ध प्रभावित हैं जहां अमेरिका स्थायी शांति के लिये अपने प्रयासों और तालिबान के साथ समझौते पर किये गए हस्ताक्षर के तहत अफगानिस्तान में अपने बलों की संख्या शुरू में ही घटाकर 8,600 सैनिकों तक करने के लिये प्रतिबद्ध है। अभी अफगानिस्तान में लगभग 13,000 अमेरिकी सैनिक तैनात हैं। यह वह स्तर है जिसे अफगानिस्तान में अमेरिकी और नाटो बलों के कमांडर, जनरल स्कॉट्स मिलर ने उनके मिशन को पूरा करने के लिए जरुरी बताया गया है।

एक वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी ने कहा कि जवानों की वापसी और समझौता एक समानांतर प्रक्रिया है। यह समझौते के तहत ही किया जा रहा है।

विदेश मंत्री माइक पोम्पिओ और भारत समेत कई अन्य विदेशी राजनयिकों की मौजूदगी में अमेरिका द्वारा दोहा में तालिबान के साथ एक समझौते पर दस्तखत किए गए हैं।

नाम ना जाहिर करने की शर्त पर अधिकारी ने कहा, “हमारी वापसी इस समझौते से जुड़ी है और शर्तों पर आधारित है। अगर राजनीतिक समझौता विफल होता है, अगर वार्ता नाकाम होती है तो ऐसी कोई बात नहीं है कि अमेरिका सैनिकों की वापसी के लिये बाध्य है।”

अधिकारी ने कहा, “यह कहने की बात नहीं है कि राष्ट्रपति के पास अमेरिका के कमांडर-इन-चीफ के तौर पर यह विशेषाधिकार नहीं है कि वह कोई भी फैसला कर सकते हैं जो उन्हें हमारे राष्ट्रपति के तौर पर उचित लगता है, लेकिन अफगान पक्ष अगर किसी समझौते पर पहुंचने में नाकाम रहते हैं या तालिबान समझौते की वार्ता के दौरान बुरा इरादा दिखाता है तो अमेरिका पर कोई बाध्यता नहीं है कि वह अपने सैनिकों को वापस बुलाए।”

सवालों के जवाब में अधिकारी ने कहा कि सैनिकों की वापसी तत्काल नहीं होगी। सैनिकों की संख्या घटाकर 8,600 करना शुरुआती समझौते का हिस्सा है और यह कुछ माह में शुरू होगा।

अधिकारी ने कहा, “यह तत्काल नहीं हो जाएगा । इसे अमल में लाने में थोड़ा वक्त लगेगा। लेकिन यह मौके पर मौजूद कमांडर की अनुशंसा है, राष्ट्रपति का इरादा है और यह एक समझौता है।”

एक अन्य वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी के अनुसार सैनिकों की वापसी पर काम करने का अमेरिकी का मकसद समझौते में व्यक्त प्रतिबद्धता के मुताबिक तालिबान की कार्रवाई से सम्बंधित है, जिसमें व्यापक आतंकवाद निरोधक प्रतिबद्धताएं भी शामिल हैं क्योंकि यह अमेरिका की पहली चिंता है।

एक अधिकारी का कहना है कि राष्ट्रपति की महत्वाकांक्षा है वहां राजनीतिक व्यवस्था बनाने, युद्ध खत्म करने और अफगानिस्तान में अमेरिकी सेना की प्रतिबद्धता को खत्म करना।

तालिबान क्या है?

तालिबान आंदोलन को तालिबान या तालेबान भी कहा जाता है। इसे एक सुन्नी इस्लामिक आधारवादी आन्दोलन के नाम से भी जाना जाता है। साल 1994 में इसकी शुरूआत दक्षिणी अफ़ग़ानिस्तान में हुई थी। तालिबान पश्तो भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है ज्ञानार्थी (छात्र)। वो छात्र जो इस्लामिक कट्टरपंथ की विचारधारा को मानते हैं। तालिबान एक इस्लामिक कट्टपंथी राजनीतिक आंदोलन हैं। पाकिस्तान तथा अफ़ग़ानिस्तान के मदरसों में पढ़ने वाले छात्रों को इसकी सदस्यता मिलती है। 1996 से लेकर 2001 तक मुल्ला उमर अफगानिस्तान में तालिबानी शासन के दौरान देश का सर्वोच्च धार्मिक नेता था। उसने खुद को हेड ऑफ सुप्रीम काउंसिल घोषित कर रखा था। तालेबान आन्दोलन को सिर्फ पाकिस्तान, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात से ही मान्यता प्राप्त है।

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