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आपातकाल की ओर फ्रांस

फ्रांस में ट्रैफिक जांच के दौरान एक नाबालिग को गोली मारने का मामला ठंडा होता नहीं दिख रहा है। घटना के बाद से राजधानी पेरिस समेत अन्य शहरों में शुरू हुआ हिंसक प्रदर्शन अब व्यापक रूप लेता नजर आ रहा है। हालत यह है कि देशभर में आपातकाल के आसार बनते नजर आ रहे हैं

पिछले दिनों फ्रांस की राजधानी पेरिस में पुलिस के हाथों अल्जीरियाई मूल के 17 वर्षीय किशोर नाहेल एम की मौत के बाद पूरा देश दंगों की आग में जल रहा है। कई शहरों में गृहयुद्ध जैसे हालात पैदा हो गए हैं। प्रदर्शनकारियों ने सैकड़ों गाड़ियां फूंक दी हैं। फ्रांस के अलावा यह हिंसक प्रदर्शन यूरोप के कई अन्य देशों में भी फैल गया है। इन सबके बीच जहां एक ओर फ्रांस जल रहा है, वहीं दूसरी ओर श्वेत और अरब मूल के फ्रांसीसी नागरिकों के बीच दूरियां बढ़ती जा रही हैं। इतना ही नहीं, सोशल मीडिया पर मुस्लिम प्रवासियों से जुड़े वीडियो शेयर कर उन्हें यूरोप आने से रोकने की मांग तेज हो गई है। हालत यह हो गई है कि देश में आपातकाल लगने के आसार बनने लगे हैं।

दरअसल, प्रधानमंत्री एलिजाबेथ बोर्न सरकार देश में शांति बहाल करने के लिए आपातकाल जैसी स्थिति घोषित करने सहित सभी विकल्पों पर विचार कर रही है। एक प्रेस काॅन्फ्रेंस के दौरान बोर्न ने कहा कि शांति व्यवस्था बहाल करने के लिए हम सभी विकल्पों पर विचार-विमर्श कर रहे हैं।

देश में इमरजेंसी घोषित किए जाने की स्थिति में अधिकारियों को कफ्र्यू घोषित करने, प्रदर्शनों पर प्रतिबंध लगाने और संदिग्ध दंगाइयों को रोकने के लिए उनके घरों की तलाशी लेने का अधिकार मिल जाता है। इसके अलावा और भी कई तरह की व्यवस्थाओं को अमल में ला दिया जाता है ताकि हिंसक प्रदर्शन को रोका जा सके। इससे पहले फ्रांस में 2005 में हुए दगों के दौरान राइव विंग सरकार ने दो सप्ताह तक चले हिंसक प्रदर्शन और झड़पों को देखते हुए देश में इमरजेंसी घोषित कर दी थी। वर्ष 1950 के दशक के बाद यह पहली बार था जब फ्रांस में इमरजेंसी जैसे कठोर कानून का इस्तेमाल किया गया था। लेकिन देश में मौजूदा समय में चल रहे प्रदर्शनों को रोकने के लिए सुरक्षा बलों के करीब 50 हजार जवानों की तैनाती की गई है। वहीं अब तक करीब 1 हजार लोगों को गिरफ्तार किया गया है।

French President Emmanuel Macron | France unrest: President Emmanuel Macron calls crisis meeting after second night of rioting - Telegraph India

दरअसल पेरिस में 27 जून को पुलिस की गोली से एक लड़के की मौत हो गई थी। यह घटना उस समय हुई जब ट्रैफिक सिग्नल पर लड़का नहीं रुका और आगे बढ़ गया। इतनी देर में पुलिस के अधिकारी ने उस पर गोली चला दी जिससे मौके पर ही उसकी मौत हो गई। मामला उस समय और तूल पकड़ लिया जब घटना का एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गया। वीडियो वायरल होते ही पेरिस समेत फ्रांस के कई शहरों में हिंसक प्रदर्शन शुरू हो गए।

इस घटना को लेकर फ्रांस में एक राजनीतिक दंगल भी छिड़ गया है। कंजरवेटिव और धुर दक्षिणपंथी नेता सरकार से मांग कर रहे हैं कि देश में आपातकाल लागू कर दिया जाए लेकिन प्रधानमंत्री एलिजाबेथ बोर्न और आंतरिक मंत्री गेराल्ड डर्मैनिन ने एक बयान में कहा ‘अभी वे इसके पक्ष में नहीं हैं।’ लेकिन कंजरवेटिव लेस रिपब्लिकंस पार्टी के अध्यक्ष एरिक सियोटी ने आपातकाल लगाने की मांग की है, वहीं मरीन ले पेन की धुर दक्षिणपंथी राष्ट्रीय पार्टी रैली (रैसेम्बलमेंट नेशनल) ने भी इसकी मांग की थी। सांसद और पार्टी प्रवक्ता सेबेस्टियन चैनू ने कहा कि पहले कुछ इलाकों में कफ्र्यू लगाना चाहिए, विशेष रूप से जहां हिंसा अपने चरम पर थी। उन्होंने आरोप लगाया कि प्रशासन हालात पर काबू पाने में विफल साबित हुआ है।

सरकार ने भले ही अभी आपातकाल लगाने से इनकार किया हो, लेकिन शांति बहाल करने के लिए करीब पचास हजार पुलिसकर्मियों और अधिकारियों को तैनात किया है। यह रणनीति 2005 में पिछली फ्रांसीसी सरकार द्वारा पुलिस से भागने के दौरान दो लड़कों की आकस्मिक मौत के बाद दंगों को दबाने के लिए इस्तेमाल की गई थी।

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फ्रांस की जानकारी रखने वाले विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार के लिए यह दंगा इसलिए भी चिंता का विषय है, क्योंकि ठीक एक साल बाद 2024 में फ्रांस में ओलंपिक खेल होने वाले हैं, जिसमें दुनिया भर से करीब 10 हजार 500 खिलाड़ी भाग लेंगे। आयोजन समिति का कहना है कि वे स्थिति पर निगाह रखे हैं तथा खेलों की तैयारी जारी है। इसके अलावा ग्रीष्म ऋतु में फ्रांस में लाखों विदेशी पर्यटक आते हैं, इन दंगों से उसके ऊपर भी प्रभाव पड़ेगा।

तात्कालिक रूप से इन दंगों का कारण पुलिस द्वारा गोली चलाने से एक अल्जीरियाई युवक की मौत को बताया जा रहा है। लेकिन इसकी जड़ें बहुत गहरी हैं। फ्रांस एक बहुसांस्कृतिक और धर्मनिरपेक्ष देश माना जाता है, इसके धर्मनिरपेक्षता की नीति की मिसाल दुनिया भर में दी जाती है तथा यह भी माना जाता है कि वर्ष 1789 की फ्रांसीसी क्रांति में जो धर्मनिरपेक्षता के मूल्य पैदा हुए थे, उसकी निरन्तरता आज भी जारी है। 2020 तक फ्रांस की आबादी 7 करोड़ थी, जिसमें 85 फीसदी यूरोपीय मूल के हैं। यूरोप में सबसे ज्यादा अप्रवासी फ्रांस में ही हैं। अल्जीरिया एक समय में फ्रांस का उपनिवेश था, इस कारण से भारी पैमाने पर अल्जीरियाई यहां पर आकर बसे, जिनमें मुस्लिमों की आबादी सर्वाधिक है। एक सर्वेक्षण के अनुसार फ्रांस में करीब 50 लाख मुस्लिम रहते हैं, इसके अलावा करीब 60 लाख उत्तरी अफ्रीका मूल के लोग हैं। 3 .3 फीसदी आबादी अश्वेतों की है, जबकि 1 .7 प्रतिशत एशियाई मूल के लोग हैं।

गौरतलब है कि नाहेल अल्जीरियाई मूल का मुस्लिम था, इस कारण से वहां पर मुस्लिम अप्रवासियों का गुस्सा उबाल पर आया। इधर कई वर्षों से फ्रांस में दो संस्कृतियों के बीच टकराव व्यापक रूप से देखने को मिल रहा है, एक ओर फ्रांस की धर्मनिरपेक्षता यह मानती है कि व्यक्ति को हर तरह के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, इसलिए जब 2015 में शार्ली एब्दो पत्रिका द्वारा पैगम्बर मोहम्मद साहब के कार्टून छापने पर फ्रांस में काफी बवाल हुआ, तब वहां के तत्कालीन राष्ट्रपति ने इसकी निंदा करने से इनकार कर दिया। इसी को लेकर फ्रांस में उग्रपंथियों ने कार्टून बनाने वाले कार्टूनिस्ट की हत्या कर दी थी, इसके अलावा पेरिस के बाहरी इलाके में एक अध्यापक की हत्या इसलिए कर दी गई थी कि उस अध्यापक ने अपनी कक्षा में छात्रों को उस कार्टून के बारे में बताया था। कुछ सालों में फ्रांस में इस्लामिक आतंकियों के हमले बढ़े हैं। यही वजह है कि फ्रांस को कट्टरपंथी हमलावरों का भारी दबाव झेलना पड़ रहा है। साल 2021 में फ्रांस के नीस शहर में चर्च के अंदर चाकू से हमला हुआ था, जिसमें 3 लोगों की मौत हो गई थी। संदिग्ध हमलावर बार-बार अल्लाहु अकबर का नारा लगा रहा था। यह शख्स शरणार्थी के नाम पर फ्रांस पहुंचा था।

वर्ष 2015 में इस्लामिक आतंकियों ने चार्ली हेब्दो मैगजीन के दफ्तर पर हमला कर 12 लोगों की हत्या कर दी थी। इसी साल इस्लामिक स्टेट आॅफ इराक के आतंकियों ने पूरे पेरिस पर हमला कर दिया था। इसमें 130 लोग मारे गए थे। इससे पहले इस्लामिक स्टेट के एक आतंकवादी ने भीड़ पर एक विशाल लाॅरी चढ़ा दी थी, जिसमें 86 लोगों की मौत हो गई थी। पिछले दो दशकों में यूरोप में इस्लाम के नाम पर हिंसा में हजारों लोग मारे गए हैं। कई लोग दावा करते हैं कि इसकी वजह यूरोप में बड़ी संख्या में इस्लामिक देशों से आने वाले प्रवासी हैं। इससे पूरे यूरोप की राजनीति में भूचाल आ गया है।

यूरोपीय देशों में इस्लामिक प्रवासियों का मुद्दा गरमाया हुआ है। ब्रिटेन इन प्रवासियों को अमेरिका भेजने की योजना पर काम कर रहा है। दूसरी ओर, पोलैंड अपने दरवाजे कड़े नियमों से बंद कर रहा है। हाल ही में पाकिस्तानी अवैध अप्रवासियों को ले जा रही एक नाव ग्रीस के पास डूब गई जिसमें सैकड़ों लोग मारे गए। प्यू रिसर्च की रिपोर्ट के मुताबिक, सीरिया, अफगानिस्तान और अन्य देशों से आने वाले 86 फीसदी प्रवासी मुस्लिम होते हैं।

वर्ष 2021 में यूरोप की कुल जनसंख्या का 5 प्रतिशत मुस्लिम थे, जो लगभग 26 मिलियन तक पहुंच जाता है। पिछले 3 सालों में यह संख्या और बढ़ी है। यूरोप में फ्रांस में मुसलमानों की संख्या सबसे अधिक 9 प्रतिशत है। इसके बाद स्वीडन का स्थान 8 प्रतिशत है, जबकि पूर्वी यूरोपीय देश पोलैंड और हंगरी में मुस्लिम आबादी बहुत कम है। कई बार यह दावा किया जाता है कि यूरोप पर मुसलमानों का कब्जा हो जाएगा लेकिन विशेषज्ञ इसे फर्जी दावा बताते हैं। उनका कहना है कि अगर पलायन इसी तरह जारी रहा तो साल 2050 तक यूरोप की कुल आबादी का सिर्फ 14 फीसदी हिस्सा ही मुस्लिम होगा।

French riots an unwelcome, perilous crisis for Macron

यह वर्तमान जनसंख्या का लगभग 3 गुना होगा लेकिन ईसाइयों और ईश्वर को न मानने वाले लोगों की जनसंख्या से बहुत कम होगा। वहीं ताजा हिंसा एक बार फिर साबित कर रही है कि यूरोप में श्वेत आबादी और अरब मूल के लोगों के बीच संघर्ष बढ़ रहा है। अरब मूल के लोगों का दावा है कि यूरोप के देश उनके साथ यूरोपीय लोगों की तुलना में सौतेला व्यवहार करते हैं। नाहेल एम की हत्या के मामले में भी उनका कहना है कि अगर वह श्वेत बच्चा होता तो फ्रांसीसी पुलिस उसे नहीं मारती। पोलैंड जैसे देश अब प्रवासियों से जुड़े नियमों को बेहद सख्त बनाने की वकालत कर रहे हैं।

इन घटनाओं के बाद कहा जा रहा है कि फ्रांस में लोगों की सोच में बदलाव आने लगा। अन्य यूरोपीय देशों की तरह फ्रांस में भी दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावाद तेजी से उभर रहा है, विशेष रूप से फ्रांस में मुस्लिम देशों से आए शरणार्थियों के मुद्दों को लेकर। इस दक्षिणपंथी उभार को रोकने के लिए ही पिछले चुनाव में मैक्रान पक्ष में डेमोक्रेटिक और वामपंथी मतदाताओं ने मतदान किया, लेकिन राष्ट्रपति भी समय-समय पर अपनी छवि को बहुसंख्यक लोगों के अनुसार बदलते रहते हैं। रूस-यूक्रेन के युद्ध के कारण फ्रांस में आर्थिक संकट पहले ही से काफी बढ़ गया है। पेंशन की उम्र को 64 वर्ष किए जाने के फैसले से पहले से ही से वहां पर लोगों के बीच नाराजगी है। बढ़ते हुए आर्थिक संकट का दोष वहां की धुर दक्षिणपंथी पार्टियां मुस्लिम अप्रवासियों को ही दे रही हैं, जिन पर इन संकटों का सबसे अधिक प्रभाव पड़ रहा है। इस कारण से उनके अंदर धार्मिक अस्मिताएं उभर रही हैं। अगर चंद अश्वेत आबादी को छोड़ दिया जाए, तो बहुसंख्यक अप्रवासी पेरिस के बाहर बने बड़े-बड़े घेटों में रहने के लिए मजबूर हैं। यह संकट केवल फ्रांस के लिए ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय है।

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