कोरोनाकाल में लगभग पूरे विश्व में काफी समय तक लॉकडाउन की स्थित्ति रही। जो इतनी भयावह थी जिससे निकल पाना सभी को नामुमकिन लग रहा था। विश्व के बड़े-बड़े देशों की अर्थव्यवस्था और स्वास्थ्य सेवाएं तक खस्ता हाल हो गई थीं। अचानक आई इस महामारी से बचने के लिए विश्व भर की सरकार ने आनन-फानन में फैसले किये जिसमे से एक फैसला था बिना टेस्ट की गई वैक्सीन लगाना। यह वैक्सीन लोगों को कोरोना से बचाने के लिए आई लेकिन अन्य तरह की बीमारियां देकर चली गई। जिसका भुगतान विश्व भर की जनता आज तक कर रही है। कोरोना के बाद आई बहुत सी स्टडीज में देखा गया है कि लोग इसके बाद न केवल शारीरिक बल्कि मानसिक रोगी भी बनते जा रहे हैं, हालही में आये एक परीक्षण से भी यह बात सपष्ट भी होती है। जिसमे विशेषज्ञों का कहना है कि यह कहीं न कहीं कोरोना की ही देन है।
हालही में यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के द्वारा ‘न्यूरोइमेजिंग परीक्षण’ किया गया। इस परीक्षण में कोरोना महामारी के बाद लोगों के शरीर और मस्तिष्क पर पड़े प्रभावों का बड़े पैमाने पर अध्यन किया गया। हालांकि इस परिक्षण से पहले भी काफी अध्यनों में देखने को मिला है कि कोरोनाकाल में लगाई गयीं वैक्सीन के बाद लोगों में कई तरह की शारीरिक बीमारियां जैसे; हार्ट अटैक, हाई ब्लड प्रेशर, डायबटीज़, मांसपेशियों में लगातार दर्द, नियमित थकान, शॉर्ट टर्म मेमोरी लॉस जैसी बिमारियों को तेजी से बढ़ते हुए देखा गया है। विशेषज्ञों का कहना है कि कोरोना के समय बिना टेस्ट के लगाई गई वैक्सीन का असर लोगों के शरीर में अब तक देखने को मिल रहा है। यह वैक्सीन न केवल बुजुर्ग बल्कि युवा और किशोरों पर भी नकारात्मक प्रभाव डाल रही हैं। कोरोना महामारी का समय लोगों की मानसिक स्थिति के लिए काफी कठिन रहा है। युवाओं में अवसाद और मानसिक तनाव का बढ़ना अब चिंतनीय विषय बनता जा रहा है।
हालही में प्रकाशित इस परीक्षण में पाया गया है कि कोरोनाकाल के दौरान लगे लोकडाउन के बाद से युवा अत्यधिक समय अकेले व्यतीत करना पसंद करते हैं। शांत और बिना अपनी भावनाओं को बांटे जीवन जीने की यह शैली युवाओं में दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। इस स्टडी में अकेले रहने वाले व्यक्तियों के दिमाग की सेल्स और दुनिया को देखने समझने के तरीकों पर गौर किया गया जिसमे पाया कि ‘अकेले रहने वाले व्यक्ति दुनिया को सामान्य व्यक्तियों से अलग देखते हैं। इनका मस्तिष्क सोचने के तरीकों पर अलग असर डालता है। इतना ही नहीं ऐसे लोगों के दिमाग के काम करने का तरीका भी अलग होता है। अध्ययन में अकेलेपन से संबंधित कुछ भ्रांतियां को भी स्पष्ट किया गया है।
परीक्षण में खास तकनीक का उपयोग
शोधकर्ताओं ने 18 से 21 वर्ष के बीच के युवा जो कॉलेज के पहले साल में थे। ऐसे 66 छात्रों पर अध्ययन किया। उन्होंने छात्रों को 14 वीडियो क्लिप दिखाते हुए उनके मस्तिष्क की गतिविधियों की ‘फंक्शनल मैग्नेटिक रेजोनेंस इमेजिंग’ ली और उसका अध्ययन किया। दिखाए गए वीडियो में ऐसी चीज़ें थी जिससे उनके दिमाग को भटकने का कम से कम अवसर मिले, और दिमाग एक जगह केंद्रित रहे। इनमें भावुक संगीत, वीडियो से लेकर पार्टी और खेल की गतिविधियों को भी शामिल किया गया था ताकि सारे बच्चों का सही तरीके से परीक्षण हो सके। इस परिक्षण में बच्चों को हर तरीके की वीडियो दिखाई गई ताकि अलग-अलग बच्चे की रूचि को आसानी से मापा जा सके।
इस अध्ययन में प्रतिभागियों ने लॉस एंजेलिस की कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी की “लोनलीनेस स्केल” को पूरा किया जो प्रतिभागियों की अकेलेपन और सामाजिक जीवन जीने वाले व्यक्ति की भावनाओं को नाप कर एक डाटा बनाया गया। इसके बाद प्रतिभागियों के परीक्षण के आधार पर दो ग्रुप बनाये गए। एक ग्रुप में वह जो अकेले रहते हैं, दूसरा ग्रुप उन छात्रों का जो समाज के साथ रहते हुए भी खुद को अकेला महसूस करते हैं, और तीसरा ग्रुप में वह जिन्हे समाज के साथ रहना पसंद है। उसके बाद हर प्रतिभागी के दिमाग का विश्लेषण किया गया जिन्होंने वीडियो को देखकर उत्तेजना जाहिर की। इस अध्ययन के बाद शोधकर्ताओं ने पता लगाने का प्रयास किया कि उनमें कितनी समानताएं थी।
जैसे हर इंसान का मिजाज अलग होता है कि उसे लोगों के साथ रहना ज्यादा पसंद है या फिर अकेला रहना। वहीं अगर कोई व्यक्ति ऐसे लोगों से घिरा हो जो उसकी पसंद के नहीं हैं तो ऐसी अवस्था में भी व्यक्ति अकेला महसूस करने लगता है। इसका इस बात से कोई लेना देना नहीं है कि वे लोग उस व्यक्ति के लिए कितना मित्रवत बर्ताव कर रहे हैं। लोगों के व्यवहार में अकेलेपन की भूमिका पर कई तरह के वैज्ञानिक शोध हुए हैं और अकेलेपन के नुकसान पर बहुत कुछ कहा भी गया है, लेकिन नए अध्ययन में यह बात सामने आई है कि अकेले रहना पसंद करने वाले और अकेले ना रहने वाले लोगों के दिमाग अलग तरह से काम करते हैं, तथा इनके दुनिया और लोगों को देखने के तरीके भी बेहद अलग देखे गए हैं।
यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया में हुए इस अध्ययन में 66 युवाओं के ‘न्यूरोइमेजिंग परीक्षण’ में अकेले रहने वाले लोग और उसके साथ रह रहे सामाजिक लोगों (जो समाज में घुलना-मिलना पसंद करते हैं) की तुलना में उनके दिमाग की गतिविधियों को अच्छा नहीं देखा गया है। इनमे पाया गया कि अकेले रहने वाले व्यक्ति दूसरे लोगों को बुरा समझते हैं उन्हें लगता है कि उनके अलावा बाकी सब इस दुनिया में मतलबी और खतरनाक है। इन व्यक्तियों से मिलना और दोस्ती करना कभी न कभी इनके लिए घातक साबित हो सकता है इसलिए यह लोगों से दूरी बनाकर रखना पसंद करते हैं। ऐसे व्यक्तियों का अपनी भावनाओं पर काफी कण्ट्रोल भी होता है। और एक तरह से देखा जाए तो यह ‘नेगेटिव थिंकर’ यानी नकारात्मक सोच रखने वाले व्यक्ति बन जाते हैं। इनकी नकारात्मकता इतनी बढ़ जाती है कि यह अपराध की घटनाओं को अंजाम देने लगते हैं।
विशेषज्ञों का कहना है कि ‘हम आये दिन सुनते हैं कि एक युवा ने अपनी माँ के गले पर 20 बार चाकू मार कर मार डाला।, कभी ऐसी खबरें आती हैं कि कॉलेज के एक छात्र ने अपनी कक्षा के छात्रों को गोली से भून डाला। यह खबरें भी अब आम हो गई हैं कि एक फ़ोन के लिए एक कम उम्र के बच्चे ने घरवालों के मना करने पर उनकी हत्या करदी। इस तरह के अपराधों का बढ़ना लोगों का अकेले रहना भी एक बड़ा कारण है। इतना ही नहीं इस तरह का अंतर उन लोगों में भी पाया गया है जो अकेले तो नहीं रहते लेकिन उनके आस-पास मौजूद लोगों के बीच भी वह अकेला महसूस करते हैं। इसका कारण यह भी हो सकता है कि उनके आस-पास मौजूद लोगों में वह खुद को अच्छा महसूस नहीं करते हैं। इसके पीछे वजह हैं कि आज कल के समय में युवा अपने पास मौजूद चीज़ों का बेहद दिखावा करते हैं और जिनके पास उनके जैसे कपडे, गाडी, फ़ोन नहीं होता तो मिलकर उनका मजाक भी उड़ाया जाता है। यह चलन काफी तेजी से बढ़ रहा है और इसी के घातक परिणाम कई तरह से हमें समाज में देखने को मिलते हैं।’
इस परीक्षण में काम करने वाली मनोवैज्ञानिक एलिसा बेयक का कहना कि ‘यह वाकई चौंकाने वाली बात रही कि अकेले रहने वाले लोग भी एक दूसरे से काफी अलग पाए गए। ऐसा नहीं है कि अकेलापन आज के समय की दैन है लेकिन इसका कुछ समय से अत्यधिक बढ़ना दर्शाता है कि लॉकडाउन में अकेले रहने की आदत ने लोगों को काफी प्रभावित किया है जिस कारण इस अवस्था में लगातार वृद्धि देखी गई है। यह वृद्धि भी व्यक्ति की उम्र के एक निश्चित समय पर अधिक देखी गई है। जब व्यक्ति बाल्यावस्था से निकल कर किशोरवस्था में पहुँचता है तो उसके जीवन के इस पड़ाव पर सबसे अधिक अकेला महसूस करता है क्योंकि उसके जीवन में हो रहे बदलावों को वह समझ नहीं पाता और कभी-कभी उसके पास मौजूद लोग भी समझा नहीं पाते इसलिए वह अकेला रहना शुरू करता है और उसे इसकी आदत लग जाती है जिससे वह जीवन में उम्र भर के लिए अमल में ले आता है और लोगों को लेकर उसकी सोच भी बदलती जाती है। दरअसल, अकेलापन कोई दुर्लभ या कुछ लोगों को ही होने वाला अहसास नहीं है। सभी इंसानों में यह एक ऐसी भावनात्मक अवस्था है जब व्यक्ति की इच्छाओं और वास्तविक संबंधों में अंतर आ जाता है।
शोधकर्ताओं का यह भी कहना है कि ‘अकेले रहने से अवसाद और इससे अधिक खतरनाक अवस्थाओं के उत्पन्न होने का खतरा भी बढ़ जाता है। लोगों से कटे रहने का मानसिक और शारीरिक सेहत पर भी गहरा असर होता है। जो व्यक्तिगत और सामाजिक रूप से काफी घातक साबित हो सकता है।’