तिब्बत पर अमेरिकी हस्तक्षेप से बौखलाया चीन अब भारत पर अपना गुस्सा उतारने की कोशिश कर रहा है। आपको बता दें कि अमेरिकी संसद ने हाल ही में तिब्बती नीति और समर्थन अधिनियम पारित किया था और राष्ट्रपति ट्रम्प ने जाते-जाते इस पर हस्ताक्षर भी कर दिए हैं। इसको चीन की विस्तारवादी नीति पर सीधा हमला भी माना जा रहा है। इसके बाद चीन भारत से भी डर गया है, क्योंकि भारत पहले ही तिब्बत के पक्ष में बोल चुका है।
क्या है तिब्बत, भारत और अमेरिका के बीच की ये जंग
इसके लिए हमें पहले यह समझना होगा कि तिब्बती निर्वासित सरकार और संसद, जिसे आमतौर पर केंद्रीय तिब्बती प्रशासन कहा जाता है। वह भारत से ही अपना काम कर रही है। इसके पीछे एक लंबा इतिहास है। वर्ष 1959 में तिब्बत पर चीनी कब्जे के बाद तिब्बत के धार्मिक नेता दलाई लामा अपने समर्थकों और अनुयायियों के साथ भारत भाग आए और उन्होंने भारत में राजनीतिक शरण ले ली। उनके साथ तिब्बतियों की एक बड़ी आबादी भी भारत आई, जो अब हिमाचल के धर्मशाला से देश के कई हिस्सों में बस गए हैं। यहां रहते हुए दलाई लामा चीन के खिलाफ मोर्चाबंदी कर रहे हैं और लगातार अपने देश की स्वतंत्रता की मांग कर रहे हैं।
अब तिब्बती नीति और समर्थन कानून पास हो गया है। इससे तिब्बतियों को अपने धार्मिक नेता (अगले दलाई लामा) को चुनने का अधिकार है। अगर चीन इसमें बाधा डालता है, तो अमेरिका दूसरे देशों की सहमति से चीन के खिलाफ कोई कार्रवाई कर सकता है या उस पर सख्त आर्थिक प्रतिबंध लगा सकता है।
दिल्ली ने पास कानून के संबंध में अमेरिकी कांग्रेस को अभी तक कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं दी है, लेकिन चीन इतना भयभीत हो चुका है कि पहले से ही भारत को धमकी देने की कोशिश कर रहा है। चीन दलाई लामा को शरण देने के लिए तब से भारत को चेतवानी देता रहा है। चीन ने अक्सर भारत के दलाई लामा की मान्यताओं पर सहमत होने पर अपनी नाराजगी व्यक्त की है। उन्होंने इसे तिब्बत कार्ड कहा है और भारत को इससे दूर रहने की चेतावनी दी है।
चीन दिला रहा भारत को वाजपेयी युग में हुए समझौते की याद
अब भी चीन भारत को वाजपेयी युग में हुए समझौते की याद दिला रहा है ताकि भारत तिब्बत में अमेरिका का समर्थन न करे। दरअसल, 2003 में तत्कालीन पीएम अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने तिब्बत को चीन का हिस्सा माना था और चीन सिक्किम को भारत का हिस्सा मानता था। यह एक तरह का समझौता था कि दोनों देशों को आपसी मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। उस समय चीन के राष्ट्रपति जियांग जेमिन थे। उसी समय आधिकारिक तौर पर उत्तरी सीमा को भारत-तिब्बत सीमा कहने के बजाय, भारत ने इसे भारत-चीन सीमा कहना शुरू कर दिया। यह तिब्बत पर चीन के अधिकार की मान्यता थी।
चीन ने हमेशा यह आशंका जताई है कि तिब्बत में सबसे महत्वपूर्ण माने जाने वाले दलाई लामा और भारत चीन में अस्थिरता ला सकते हैं। अब जबकि कोरोना संक्रमण के कारण चीन पहले से ही संदेह के घेरे में है, अन्य देश भी किसी भी कारण से इसके खिलाफ आक्रामक हो सकते हैं। खासकर अगर भारत अमेरिका का समर्थन करता है, तो वह चीन के खिलाफ एक बड़ा मोर्चा खोल सकता है।
वर्ष 2003 में चीन के साथ हुई वार्ता का उल्लंघन
यही कारण है कि चीन भारत को अपने संबंधों की याद दिला रहा है बिगड़ी हुई स्थिति में यदि भारत तिब्बत की मदद करता है या उसके स्वतंत्र राष्ट्र होने की बात करता है, तो यह वर्ष 2003 में चीन के साथ हुई वार्ता का उल्लंघन होगा। ऐसा भी हो सकता है कि चीन सिक्किम पर अपना अधिकार जताना शुरू कर दे। फिलहाल एक अस्थिर अर्थव्यवस्था के लिए कोरोना के बीच कोई नया विवाद देश को परेशानी में डाल सकता है।
वैसे तिब्बत के मामले में चीन न केवल आक्रामक है, इससे पहले उसने भारत और कई बड़े देशों को ताइवान और हांगकांग के मुद्दे पर भी दूर रहने की सलाह दी है। यह ज्ञात है कि कई यूरोपीय देश हांगकांग में सुरक्षा कानून के कार्यान्वयन के लिए चीन के खिलाफ आए थे, लेकिन चीन ने कूटनीति से सभी को चुप करा दिया। अब हांगकांग में एक नया कानून पारित किया गया है। इस नए राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत, चीन हांगकांग में सीधे हस्तक्षेप कर सकता है। हांगकांग में एक नया राष्ट्रीय सुरक्षा कार्यालय स्थापित किया जाएगा, जो वहां की स्थिति की निगरानी करेगा। अगर इस कार्यालय ने किसी के खिलाफ मामला दर्ज किया है, तो इस पर चीन में सुनवाई की जा सकती है।