दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था कहे जाने वाला चीन एशिया में खुद को बड़ा भाई बनाने का ख्वाब देखता रहा है। लेकिन उसकी इकनॉमी और सियासत को लेकर पारदर्शिता नहीं रही । जिसके चलते चीन की जनता सरकार के कामकाज से बेहद नाखुश है। शी जिनपिंग की कई नीतियों ने जनता में गुस्सा भरने का काम किया है। इसकी एक झलक आर्थिक आंकड़ों में देखने को मिली है। आंकड़ों के अनुसार, एक ओर जहां देश में अपूर्ति की तुलना मांग कम हो रही है वहीं दूसरी तरफ सम्पति संकट ने स्थिति को और ज्यादा भयावह बना दिया है। जिसका असर देश के सिस्टम पर दिखने भी लगा है।
दुनिया की दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्था कहे जाने वाले चीन की जनता का विश्वास अब अपने ही राष्ट्रपति शी जिनपिंग से उठता जा रहा है। विश्व की मजबूत अर्थव्यवस्था का दंभ भरने वाले चीन की इकॉनमी की हालत खस्ताहाल होती नजर आ रही है। वहीं दूसरी तरफ देश की आवाम शी जिनपिंग की कई नीतियों से आक्रोश में है।
गौरतलब है कि विस्तारवादी चीन एशिया में खुद को ‘बिग ब्रदर’ बनाने का ख्वाब देखता रहा है लेकिन उसकी इकॉनमी और सियासत को लेकर कभी पारदर्शिता नहीं रही। जिसके कारण चीन की जनता सरकार के कामकाज से बेहद नाखुश है।
पिछले कुछ वर्षों में उनकी कई नीतियों ने जनता में गुस्सा भर दिया है। इसकी झलक आर्थिक आंकड़ों में देखने को मिली है। मूलतः चीन की अर्थव्यवस्था को कोविड महामारी के बाद से कई समस्याओं का सामना करना पड़ा है। आरोप है कि लॉकडाउन के दौरान सरकार की कई नीतियां जनविरोधी थीं तभी से ही लोगों के अंदर क्रोध की ज्वाला जलने लगी।
वॉशिंगटन पोस्ट की एक रिपोर्ट के अनुसार, देश में चौतरफा राष्ट्रपति शी जिनपिंग के खिलाफ गुस्सा भड़का हुआ है। साल 2008 में शी जिनपिंग चीन के राष्ट्रपति बने। जब से ही लगातार अमेरिका से प्रतिस्पर्धा में लगे चीन के मौजूदा हालात खस्ता होते जा रहे हैं। हाल ही में भारत में आयोजित जी-20 शिखर सम्मेलन में भी चीन के राष्ट्रपति शामिल नहीं रहे। इसके लिए उन्होंने देश के घरेलू हालात का हवाला दिया था।
वर्तमान में चीन की अर्थव्यवस्था के सामने सबसे बड़ी चुनौती डिफ्लेशन है। चीनी करेंसी युआन का मूल्य अचानक बढ़ने के कारण यहां वस्तुओं की कीमतें बढ़ने की बजाय धीरे-धीरे वस्तुओं की कीमतें कम होती जा रही हैं। लोगों का सरकार से भरोसा भी उठने लगा है। लोग चाहते हैं कैसे भी वह बिना धन खर्च करे धन को संचय कर लें जिससे उनका भविष्य सुरक्षित हो सके। हालिया आंकड़ों के अनुसार तो देश में आपूर्ति की तुलना में मांग कम हो रही है।
फेल हुई कोविड नीति
चीन की जीरो कोविड नीति भी फेल होती नजर आ रही है। कोरोना वायरस ने एक बार फिर चीन की हालत खराब कर दी है। सख्त नियमों और व्यस्थाओं के बावजूद भी यहां लगातार संक्रमितों की संख्या बढ़ती जा रही है। जिसके चलते चीन के लोग पलायन के लिए मजबूर हो रहे हैं। हालात यह हैं कि लोग प्रदर्शन करने के लिए सड़कों पर उतर चुके हैं।
जन्म दर बढ़ाने की कोशिशों में चीन
एक वक्त था जब चीन विश्वभर में जनसंख्या के मामले में पहले नंबर पर था। लेकिन अब चीन की जन्मदर लगातार गिरती जा रही है। जिसने चीनी सरकार की मुश्किलें बढ़ा दी हैं । जन्म दर को बढ़ावा देने के लिए अब सरकार द्वारा तरह -तरह की योजना चलाई जा रही हैं । इसी कड़ी में सरकार ने नवविवाहित जोड़ों को 30 दिन की पेड मैरिज लीव देने का एलान किया। इससे पहले शादी के लिए सिर्फ तीन दिनों की पेड लीव मिलती थी। लेकिन इस योजना में बड़ा परिवर्तन लाकर इसे तीस दिनों के लिए बढ़ा दिया गया । यह परिवर्तन ऐसे वक्त में किया गया जब चीन में जन्मदर तेजी से गिर रही है। चीन द्वारा घोषित जनसंख्या अनुमानों के अनुसार, उसकी आबादी में पिछले वर्ष 8.5 लाख की गिरावट दर्ज की गई और इसका कारण वर्ष 1980 से 2015 तक सख्त तौर से एक-बच्चे की नीति को बताया गया।
छिन सकता है युवा देश होने का तमगा
जन्म दर में गिरावट के कारण चीन में बुजुर्ग नागरिकों की आबादी बढ़ रही है और युवाओं की संख्या कम होती जा रही है। नागरिकों की औसत आयु 39 वर्ष है। जैसे-जैसे बुजुर्ग नागरिकों की संख्या बढ़ रही है। चीन का कार्यबल भी धीमा हो गया है। आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2025 तक आबादी के मामले में चीन को पछाड़कर भारत दुनिया का सबसे बड़ा और युवा देश बन सकता है। जिससे संभावना जताई जा है कि चीन के सिर से सबसे बड़ी मार्केट और युवा देश होने का तमगा छीन सकता है। यही वजह है कि चीन किसी भी तरह अपने देश में जन्म दर को बढ़ाने के प्रयासों में लगा है। इसके लिए उसने पहले अपनी एक बच्चे वाली पॉलिसी बदली और उसके स्थान पर 2 बच्चों की पॉलिसी लागू की। जब उससे भी कोई खास फर्क नहीं पड़ा तो अब वहां पर कुंवारी लड़कियों को मां बनाने की योजना चालू की गई है।
युवा कामगारों की किल्लत
चीन में इन दिनों युवा कामगारों की किल्लत चल रही है। चीन को अपनी फैक्ट्रियों में मजदूर नहीं मिल रहे हैं। वहां मजदूरों की कमी होना इसलिए चिंता का विषय है, क्योंकि दुनिया की कुल जरूरत का एक तिहाई प्रोडक्शन चीन में होता है।
बीस से चालीस वर्ष के चीनी युवा फैक्ट्रियों में काम करने से कतराने लगे हैं। गावों में रहने वाले युवा शहरों में जाकर काम करने के लिए घर नहीं छोड़ना चाहते। फैक्ट्रियों में इन युवा कामगारों की कमी होने से चीन की अर्थव्यवस्था खतरे की ओर जाती दिख रही है। डॉयचे वेले की रिपोर्ट मुताबिक मजदूरी या फैक्ट्रियों में नौकरी के लिए युवाओं को परिवार से दूर रहना मंजूर नहीं । इसके चलते चीन की 80 प्रतिशत कंपनियां युवा कामगारों की कमी से जूझ रही हैं । वहीं चाइना इंटरनेशनल इंटेलेक्च ग्रुप (सीआईआईसी) के सर्वे के मुताबिक भी चीन में जितने कामगारों की जरूरत है उसमें 10 से 30 फीसदी तक की कमी है। एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार, चीन में 16 से 24 आयु के 18 प्रतिशत नौजवान बेरोजगार भी हैं। वहां इसी वर्ष एक करोड़ से ज्यादा युवा ग्रेजुएट हुए हैं जिन्हें रोजगार की जरूरत है।
बेरोजगारी भी आक्रोश का कारण
चीन में युवाओं की एक बड़ी आबादी बेरोजगारी से जूझ रही है। अधिकतर युवा अब स्किल्ड हो रहे हैं। वे सरलता से मशीन हैंडल कर उपकरण चला सकते हैं। युवाओं में क्षमता तो है, लेकिन वे फैक्ट्रियों में काम करना नहीं चाहते। वहीं जो मजदूर चीन की फैक्ट्रियों में हैं उनकी उम्र ज्यादा है। चीनी युवा रोजगार की तलाश में फैक्ट्रियों तक पहुंचते तो हैं लेकिन वे जल्द ही उसे छोड़ देते हैं । इसलिए फैक्ट्रियों में मजदूरों की कमी एक बड़ी समस्या बनती जा रही है। फैक्ट्री मालिकों के मुताबिक युवा मजदूर यदि मिलते हैं तो प्रोडक्शन ज्यादा होगा और फैक्ट्रियों के हालात बेहतर करने होंगे। प्रोडक्शन में मंद गति और श्रम न होने के कारण ही अमेरिकी निवेशक भी चीन में निवेश करने से कतरा रहे हैं।
चीन छोड़ रही बड़ी कंपनियां
राजनीतिक जानकारों के मुताबिक चीन के इन हालातों को देखकर वहाँ की कंपनियां भी देश छोड़ने की कोशिश कर रही हैं। चीनी व्यापारियों के बीच यह धारणा बनती जा रही है कि विदेशों में व्यापार करना अधिक लाभदायक है। चीन से अब इलेक्ट्रॉनिक चिप की कंपनियां अपना बोरिया बिस्तर समेट रही हैं। सबसे ज्यादा प्रभावित कंपनी एप्पल ने सबसे पहले यह काम किया है। कंपनियां मैक्सिको और वियतनाम आदि देशों में जा रही हैं। कोविड काल के दौरान चीन द्वारा फोन से लेकर कार तक की इलेक्ट्रानिक चिप की आपूर्ति पर रोक लगा दी गई थी।
इसके अलावा गूगल ,अमेज़न , सैमसंग जैसी दिग्गज कंपनियां भी बाहर निकलने की तैयारी में हैं। सीएनबीसी के मुताबिक, चीन इस समय न केवल इलेक्ट्रॉनिक्स बल्कि परिधान, जूते, फर्नीचर और यात्रा के सामान का कारोबार भी खो रहा है। बल्कि अपने देश की जनता का विश्वास भी खो रहा है। अमेरिकन एंटरप्राइज इंस्टीट्यूट के सीनियर फेलो डेरेक शेजर्स का कहना है कि कमजोर होती चीनी अर्थव्यवस्था, सख्त कोविड नियम, जवाबी व्यापार प्रतिबंध और कई मोर्चों पर कम्युनिस्ट चीन की युद्ध जैसी स्थिति के बाद अब चीन में कारोबार करना बहुत मुश्किल हो गया है।
अमेरिका का विरोध पड़ा महंगा
वैश्विक संदर्भ में चीन का व्यवहार उम्मीद के मुताबिक नहीं है, इसलिए शी जिनपिंग के देश को संयुक्त राष्ट्र की आलोचना का सामना करना पड़ रहा है। अमेरिका चीन के पड़ोसी दुश्मन देशों का करीबी बन गया है। इससे शी जिनपिंग सरकार के लिए नई आशंकाएं पैदा हो सकती हैं। लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था के संकट को शी जिनपिंग कैसे रोकेंगे ये सवाल देश के अंदर उठने लगा है।
बीआरआई से कई देश कर सकते हैं किनारा !
भारत की राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में आयोजित जी -20 समिट के समापन के बाद से चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव प्रोजेक्ट की भी खूब चर्चा की जा रही है। इस समिट में शामिल इटली की प्रधानमंत्री जॉर्जिया मेलोनी द्वारा बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) को छोड़ने के संकेत दिए गए हैं। जो परेशानियों से घिरे चीन के लिए एक और झटका है। दरअसल, जॉर्जिया मेलोनी ने 10 सितंबर को नई दिल्ली में जी-20 समिट के इतर चीन के प्रधानमंत्री के साथ मुलाकात भी की। उन्होंने कहा कि बीआरआई को छोड़ने से चीन के साथ संबंधों में कोई परिवर्तन नहीं होगा, लेकिन निर्णय अभी भी लिया जाना बाकी है।
अगर इटली बीआरआई से अलग होता है तो जाहिर सी बात है कि और देश भी इटली की राह अपना सकते हैं। जो चीन के महत्वाकांक्षा प्रोजेक्ट बीआरआई को कमजोर कर सकता है, जो कि सीधे तौर पर चीन की विस्तारवादी नीति को प्रभावित करने का काम करेगा।