आखिरकार सभी कयासों को सही साबित करते हुए रूस ने यूक्रेन पर धावा बोल ही दिया। इस हमले के बाद अब यह आशंका बलवती हो चली है कि इसका खामियाजा यूक्रेन से कहीं ज्यादा पूरे विश्व पर पड़ सकता है
तमाम आर्थिक प्रतिबंधों को दरकिनार करते हुए रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने 24 फरवरी को यूक्रेन के खिलाफ सैन्य कार्रवाई का एलान कर दिया। राष्ट्रपति पुतिन ने राष्ट्र को संबोधित करते हुए कहा कि ‘यूक्रेन-रूस युद्ध को अब और टाला नहीं जा सकता है इसलिए रूस की सेना यूक्रेन के खिलाफ एक स्पेशल मिलिट्री ऑपरेशन लॉन्च कर रही है। इस ऑपरेशन का लक्ष्य पूर्वी यूक्रेन के हिस्सों (दोनेश्क और लुहान्स्क) में मौजूद यूक्रेनी सेना को हटाना है।’ हालांकि, इस दौरान रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने ये भी साफ किया कि उनके इस सैन्य अभियान का मकसद यूक्रेन पर कब्जा करना नहीं है। रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने यूक्रेन के खिलाफ मिलिट्री ऑपरेशन का एलान करते हुए अमेरिका और यूरोपीय देशों को एक बड़ी धमकी भी दी। उन्होंने कहा कि ‘रूस और यूक्रेन युद्ध में कोई भी देश दखल देता है तो उसे परिणाम भुगतने होंगे।’
व्लादिमीर पुतिन ने अपने संबोधन में यूक्रेन के सैनिकों को भी एक संदेश दिया। उन्होंने कहा कि ‘यूक्रेनी सैनिकों आपके पूर्वज नाजियों के खिलाफ लड़े थे। आप कीव में बैठे नाजियों के ऑर्डर मत मानो। अपने हथियार रखो और घर जाओ।’ इससे पहले युद्ध की आशंका देखते हुए अमेरिका समेत कई देशों ने रूस पर कड़े आर्थिक प्रतिबंध लगा डाले थे। खबर लिखे जाने तक रूसी बम वर्षक विमानों द्वारा यूक्रेन पर बड़े स्तर के हवाई हमलों के समाचार आने लगे हैं। गौरतलब है कि राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने एक दिन पहले 23 फरवरी को पूर्वी यूक्रेन के अलगावादी विद्रोही इलाके दोनेश्क और लुहान्स्क को स्वतंत्र राज्य की मान्यता दे डाली थी। यहां के विद्रोही वर्ष 2014 से ही यूक्रेन से लड़ रहे हैं। रूस के इस कदम बाद कई पश्चिमी देशों ने रूस पर प्रतिबंध लगा डाले थे। अमेरिका, ब्रिटेन के बाद जापान ने भी रूस पर प्रतिबंध लगाने का एलान कर दिया था।
विवाद की वजह
रूस हमेशा से यूक्रेन को अपना हिस्सा मानता है। राष्ट्रपति पुतिन ने एक बयान में कहा था कि आधुनिक यूक्रेन को सोवियत संघ से बनाया था। वर्ष 1991 में सोवियत यूनियन बिखरा तो यूक्रेन एक स्वतंत्र राष्ट्र बन गया। जिसके बाद यूक्रेन का झुकाव अमेरिका के तरफ गया। तब से ही रूस यूक्रेन पर आरोप लगा रहा है कि यूक्रेन अमेरिका का उपनिवेश बन गया है। यहां की सरकार अमेरिका की कठपुतली हो गई है। दरअसल रूस को आशंका है कि अमेरिका यूक्रेन को नाटो में शामिल करना चाहता है। रूस नहीं चाहता है कि यूक्रेन नाटो में शामिल हो। रूस कई बार यूक्रेन को नाटो में शामिल न किए जाने की मांग अमेरिका के समक्ष रख चुका है। रूस पश्चिमी देशों से लिखित आश्वासन चाहता था कि नाटो (नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइजेशन) के कदम पूर्व की तरफ न बढ़ें।
राष्ट्रपति पुतिन पहले ही सोवियत संघ के विघटन को पिछली सदी की सबसे बड़ी त्रासदी कह चुके हैं और वह लगातार सोवियत संघ से अलग हुए देशों में रूस के प्रभाव को फिर से कायम रखने की कोशिश कर रहे हैं। पुतिन ने एक बयान में कहा था कि रूस और यूक्रेन एक ही इतिहास और आध्यात्मिक विरासत साझा करते हैं। शीत युद्ध की समाप्ति के बाद नाटो का विस्तार पूर्व की तरफ हुआ और इसमें वे भी देश शामिल हुए जो पहले सोवियत संघ का हिस्सा थे। रूस इसे खतरे के रूप में देखता है। यूक्रेन अभी इसका हिस्सा तो नहीं है लेकिन यूक्रेन द्वारा नाटो देशों के साथ संयुक्त सैन्य अभ्यास और अमेरिकी एंटी-टैंक मिसाइल्स जैसे हथियारों के हासिल करने के कारण रूस को लगता है कि अमेरिका रूस के खिलाफ हमले को तैयारी कर रहा है। इसमें यूक्रेन का लॉन्चपैड के तौर पर इस्तेमाल कर सकता है। इसलिए यूक्रेन को अमेरिका नाटो में शामिल करना चाहता है।
विवाद की दूसरी वजह कीमिया है। वर्ष 1954 में सोवियत संघ के तत्कालीन राष्ट्रपति निकिता ख्रुश्चेव ने यूक्रेन को क्रीमिया उपहार में दिया था।
वर्ष 1991 में जब यूक्रेन सोवियत संघ से अलग हुआ तो क्रीमिया यूक्रेन के पास रहा। तभी से क्रीमिया को लेकर रूस और यूक्रेन के बीच विवाद जारी है। दोनों देश इस पर अपना-अपना दावा करते हैं। दोनों देशों में शांति बनाने के लिए कई बार पश्चिमी देश आगे आए। वर्ष 2015 में फ्रांस और जर्मनी ने बेलारूस की राजधानी मिन्स्क में रूस-यूक्रेन के बीच शांति समझौता कराया था। उस समझौते में संघर्ष विराम पर सहमति बनी थी। लेकिन दोनों देशों के बीच तनाव कम नहीं हुआ। विवाद की तीसरी वजह आर्थिक है। रूस नार्ड स्ट्रीम 2 पाइपलाइन के जरिए जर्मनी समेत यूरोप के अन्य देशों को सीधे तेल और गैस सप्लाई कर सकेगा। इससे यूक्रेन को जबरदस्त आर्थिक नुकसान होगा। वर्तमान में यूक्रेन के रास्ते यूरोप जाने वाली पाइपलाइन से उसे अच्छी कमाई होती है। अमेरिका भी नहीं चाहता है कि जर्मनी नार्ड स्ट्रीम को मंजूरी दे क्योंकि अमेरिका का मानना है कि इससे यूरोप की रूस पर निर्भरता और बढ़ जाएगी।