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अफगानिस्तान में असफल अमेरिका

करीब अठारह साल पहले अमेरिका ने अफगानिस्तान में तालिबान आतंकियों के खिलाफ जिस अभियान की शुरुआत की थी, उसमें उसे आज तक सफलता नहीं मिल पाई है। जानकारों का मानना है कि जब तक अमेरिका आतंकवाद को अपनी सुविधा के हिसाब से परिभाषित करने की जिद नहीं छोड़ेगा, तब तक उसे आतंकवाद के खात्मे के लिए न तो समूचे विश्व समुदाय का साथ मिल पाएगा और न ही वह इसमें सफल हो सकेगा? आज स्थिति यह है कि अफगानिस्तान में अपने सैकड़ों सैनिक गंवा देने के बावजूद वह तालिबान से शांति वार्ता के लिए तैयार है। तालिबान भी उसे धमका रहे हैं कि शांतिवार्ता के दौरान संघर्ष विराम का कोई तुक नहीं है।

तालिबान अमेरिका को अपनी ताकत का अहसास कराने में पीछे नहीं है। हाल ही में अमेरिका के शांति वार्ता रद्द करने के बाद आतंकवाद से जूझ रहे अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में 17 सितंबर को दो अलग-अलग जगहों पर हुए आत्मघाती हमलों में लगभग 48 लोगों की मौत हो गई। इन हमलों में 100 से ज्यादा लोगों के घायल होने की आशंका है। पहला हमला अमेरिकी दूतावास और अफगान रक्षा मंत्रालय की इमारत के पास हुआ। अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी की चारीकर शहर की चुनावी रैली में यह आत्मघाती विस्फोट हुआ। दूसरा बम धमाका परवान इलाके में हुआ जहां राष्ट्रपति अशरफ गनी के लिए एक जनसभा आयोजित की गई थी। दोनों हमलों की जिम्मेदारी तालिबान ने ली है।

कुछ दिनों पहले ही अमेरिका ने तालिबान से शांति वार्ता रद्द करने के बाद अफगानिस्तान में तालिबान के खिलाफ सैन्य कार्रवाई तेज कर दी थी। अमेरिका ने अफगानिस्तान बलों के साथ सयुंक्त अभियान में तालिबान के करीब 90 आतंकियों को मार गिराया था। अफगानिस्तान के दक्षिण पूर्वी प्रांत पकतीका में कुछ दिन पहले 15 सितंबर को तालिबान के खिलाफ संयुक्त आतंकरोधी अभियान चलाया था। इसमें सुरक्षा बलों ने आतंकियों की 23 मोटरसाइकिलें, एक ट्रैक्टर और कई हथियार भी तबाह किए थे।

अमेरिका के न्यूयाॅर्क में वल्र्ड ट्रेड सेंटर की दो इमारतों पर हमले के 18 साल हो गए हैं। दुनिया 9/11 के नाम से इस घटना को याद करती है। इस घटना ने दुनिया को सबसे ज्यादा प्रभावित किया था । इसके तुरंत बाद अमेरिका के उस समय के राष्ट्रपति जाॅर्ज बुश ने अल कायदा के खिलाफ जंग का ऐलान किया था और अफगानिस्तान पर हमले शुरू किए थे, जहां अल कायदा का आधार था। तब बुश ने दुनिया को दो हिस्सों में बांट दिया था। उन्होंने कहा था कि एक तरफ अमेरिका और वो देश हैं, जो आतंकवाद के खिलाफ लड़ रहे हैं और जो इस लड़ाई में शामिल नहीं है वह आतंकवादियों के साथ हंै। उस लड़ाई के शुरू हुए 18 साल हो गए हैं और अभी तक जंग जीती नहीं जा सकी है। इस दौरान अमेरिका और नाटो की सेना ने खूब बम बरसाए। हजारों लोग मारे गए। अल कायदा का सरगना ओसामा बिन लादेन भी मारा गया। फिर भी जंग खत्म नहीं हुई।

नौबत यहां तक आ गई कि अल कायदा को पैदा करने वाले तालिबान के साथ अमेरिका को बात करनी पड़ी। हालांकि वह बात अब खत्म हो गई है और निकट भविष्य में शुरू होने की संभावना नहीं है। जब बात चल रही थी तब भी और जब खत्म हो गई है तब भी। इसकी कोई संभावना दूर-दूर तक नहीं दिखाई दे रही है कि आतंकवाद के खिलाफ जंग खत्म हो गई है या खत्म होने की कगार पर पहुंच गई है। अगर तालिबान मजबूत है और अफगानिस्तान के दो-तिहाई हिस्सों में उसका नियंत्रण है तो फिर आतंकवाद के खत्म होने के बारे में सोचा ही नहीं जा सकता है। इसकी पाठशाला से निकले आतंकी पूरी दुनिया में फैले हैं। यूरोप में इसका जैसा विस्तार हुआ है, उसकी कल्पना नहीं की जा सकती है।

दरअसल अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपने चुनाव प्रचार में वादा किया था कि वे अफगानिस्तान से सेना वापस बुलाएंगे। अफगानिस्तान की लड़ाई अमेरिका के लिए वियतनाम की दूसरी लड़ाई की तरह हो गई है। इसलिए लोगों ने उनका समर्थन किया था और राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने अफगानिस्तान से सेना वापस बुलाने का रास्ता यह निकाला था कि वहां की चुनी हुई सरकार की बलि चढ़ा दी जाए। तभी उन्होंने तालिबान के साथ बातचीत शुरू की।

कई दौर की बातचीत के बाद जब अंतिम वार्ता कैंप डेविड में होनी थी उससे पहले काबुल में एक बड़ा हमला हुआ, जिसमें एक अमेरिकी सैनिक की मौत हो गई। तालिबान ने इस हमले की जिम्मेदारी ली। इसी बहाने ट्रंप ने वार्ता बंद कर दी। यह महज एक बहाना या तात्कालिक कारण था। क्योंकि पिछले 18 साल में सैकड़ों अमेरिकी सैनिक मारे जा चुके हैं। इसलिए एक सैनिक का मारा जाना किसी ऐतिहासिक वार्ता के अचानक बंद होने का कारण नहीं हो सकता है। अमेरिका में पहले से इस वार्ता का विरोध हो रहा था। ट्रंप प्रशासन के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जाॅन बोल्टन इस वार्ता के पक्ष में नहीं थे। वे ईरान के साथ टकराव के पक्ष में भी नहीं थे। तभी ट्रंप ने उनको पद से हटा दिया है। बहरहाल, तालिबान से वार्ता बंद होने के बाद अफगानिस्तान में अमेरिकी सेनाओं का थोड़े दिन और रहना तय हो गया है। लेकिन इससे आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई नहीं जीती जा सकती है।

जानकारों के मुताबिक जब तक अमेरिका अपने हितों के हिसाब से आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई को परिभाषित करता रहेगा तब तक यह लड़ाई चलती रहेगी। यह कितनी हैरान करने वाली बात है कि सारी दुनिया आतंकवाद से प्रभावित है पर अब तक इसकी कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं है। भारत संयुक्त राष्ट्र संघ के मंच पर और दूसरे तमाम बहुपक्षीय मंचों पर कहता रहा है कि सबसे पहले दुनिया आतंकवाद को परिभाषित करे। यह परिभाषा नहीं है इसलिए कहा जाता है कि एक का आतंकवादी, दूसरे का स्वतंत्रता सेनानी है। परिभाषा नहीं होने की वजह से दुनिया इस बात पर भारत के साथ नहीं खड़ी होती है कि वह आतंकवाद से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाला देश है।


अमेरिका ने आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई को अपनी लड़ाई बनाया हुआ है, जो उसके हितों से प्रभावित होता है। उसके यहां हमला हुआ तो उसने अफगानिस्तान पर हल्ला बोल दिया। उसने अफगान लड़ाई शुरू करने के तुरंत बाद इराक पर हमला शुरू कर दिया। फिर ईरान के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। वह सीरिया में भी बमबारी कर रहा है। अफ्रीका से लेकर एशिया तक वह अपने हित में कहीं आतंकवादियों को आश्रय देता है, उनसे बात करता है तो कहीं उनसे लड़ाई करता है। यूरोप के उसके पिछड़े देश वहीं करते हैं, जो वह कहता है। आतंकवाद से ऐसे ही चुनिंदा लड़ाई होती रही तो यह लड़ाई कभी भी जीती नहीं जा सकेगी।

पिछले हफ्ते तालिबान के आत्मघाती हमले में हमलावरों ने अफगानिस्तान में दो अलग-अलग हमलों में 48 लोगों की हत्या कर दी, जो राष्ट्रपति अशरफ गनी की एक चुनावी रैली के निकट सबसे घातक घटना थी। अफगानिस्तान के राष्ट्रपति चुनाव से 11 दिन पहले हमले हुए थे, जिसे तालिबान कमांडरों ने संयुक्त राष्ट्र अमेरिका और विद्रोही समूह के बीच हिंसक रूप से बाधित और अनुवर्ती शांति वार्ता का पालन करने की कसम खाई है।

अफगान में राष्ट्रपति के चुनाव के लिए 28 सितंबर को वोटिंग होनी है। चुनाव के लिए अफगान के राष्ट्रपति गनी केंद्रीय परवन प्रांत की राजधानी चारीकर में एक रैली को संबोधित कर रहे थे, जब एक आत्मघाती हमलावर ने सभा पर हमला किया था। जिसमंे लगभग 48 लोगों की मौत हो गई और सौ से अधिक लोग घायल हो गए थे। अफगान राष्ट्रपति ने रैली में बमबारी की निंदा एक ट्विट कर की। उन्होंने लिखा’’ तालिबान ने निर्दोष नागरिकों को लक्षित करके इस एकता को तोड़ने की कोशिश की। उन्होंने बेशर्मी से एक समय में जिम्मेदारी स्वीकार कर ली जब वे शांति के प्रयासों के रूप में आतंक के कøत्यों को रोक रहे थे।

तालिबान द्वारा सभाओं और मतदान केंद्रों पर हमले की धमकी के बाद देश भर में रैलियों में सुरक्षा कड़ी कर दी गई है। समूह ने आगामी चुनावों में लोगों को मतदान करने से रोकने के लिए अफगान और विदेशी ताकतों के साथ संघर्ष तेज करने की कसम खाई है। दूसरी तरफ तालिबान ने कहा है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अगर भविष्य में शांति वार्ता फिर से शुरू करना चाहते हैं तो उनके दरवाजे खुले हैं।

वाॅशिंगटन व तालिबान के बीच शांति वार्ता इसी माह की शुरुआत में ही विफल हो गई थी। इसमें हजारों अमेरिकी जवानों की वापसी के एक समझौते पर पहुंचना था। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा एक हमले में अमेरिकी सैनिक के मारे जाने का हवाला दिए जाने के बाद वार्ता विफल हुई थी। सैनिक की मौत वार्ता से हटने का कारण रही। इस वार्ता में अफगान सरकार शामिल नहीं थी।

तालिबान के मुख्य वार्ताकार शेर मोहम्मद अब्बास स्तानिकजई ने एक बयान में कहा कि अफगानिस्तान में शांति का एकमात्र रास्ता है। उन्होंने कहा कि आतंकवादियों ने बातचीत के दौरान लड़ाई जारी रखकर ‘कुछ भी गलत’ नहीं किया है।

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