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एक गांव ऐसा भी जहां सांकेतिक भाषा प्रचलन में

आम लोगों को मूक बधिर लोगों की सांकेतिक भाषा समझने और समझाने में काफी कठिनाई महसूस होती है। उनके लिए इसे सीखना भी सरल नहीं होता है। लेकिन इंडोनेशिया में एक ऐसा गांव है जहां सभी लोगों को यह हाव- भाव वाली भाषा आती है, और वे अपने रोजमर्रा के जीवन में इसका प्रयोग सरलता पूर्वक करते हैं। बाली में स्थित इस गांव का नाम बेंकाला है। जिसमें करीब तीन हजार लोग रहते हैं। पूरा गांव काटा कोलोक नामक सांकेतिक भाषा का प्रयोग करता हैं ।

3 हजार लोगों के इस गाँव में सांकेतिक भाषा प्रचलन में है। इस गांव में चालीस परिवार ऐसे हैं जिसमें कोई न कोई व्यक्ति मूक बधिर है। कोई बोलने में असमर्थ है,तो कोई सुनने में, तो कोई बोल -सुन दोनों में असमर्थ है। इसलिए इस गांव को डीफ विलेज भी कहा जाता है। ऐसा नहीं है कि पूरा गांव ही बोलने – सुनने में असमर्थ है लेकिन गांव में रहने वाले ज्यादातर परिवारों में कोई न कोई शख्स मूक बधिर समस्या से ग्रसित होता है। जिससे पूरे गांव को यह भाषा अच्छी तरह आती है। इस गांव में आम लोग ही नहीं, बल्कि सरकारी ऑफिस में भी सांकेतिक भाषा काटा कोलोक का इस्तेमाल किया जाता है। वहां के स्कूलों में भी बच्चों को पढ़ाने के लिए इस भाषा का प्रयोग किया जाता है। डी डब्लू के अनुसार यहां के स्कूलों में भी ज्यादातर छात्र इशारों की भाषा समझते हैं। यह भाषा हाव -भाव की भाषा है और इसे यहां के लोगों के लिए सीखना आसान हैं।

गौरतलब है कि इंडोनेशिया टूरिज्म के लिए जाना जाता है। यदि यहां किसी को घूमने जाना होता है तो वह इंग्लिश भाषा सीख कर ही जाता है। बाहरी देशों से आने वाले लोग बहासा इंडोनेशिया जो कि वहां की मूल भाषा है उसे नहीं समझ पाते। इसलिए वहां जाने वाले पर्यटकों को इंग्लिश भाषा का इस्तेमाल वहां के लोगों से बात चीत करने के लिए करना पड़ता है। लेकिन बाली में स्थित इस गांव के लोगों को भी अपने ही देश में गांव के बाहर निकलने पर कठिनाई का सामना करना पड़ता है। इस भाषा को केवल गांव के लोग ही समझ सकते हैं।

डी डब्लू की एक रिपोर्ट मुताबिक अक्सर जब ये लोग गांव से बाहर सांकेतिक भाषा का इस्तेमाल करते हैं तो उन्हें काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। लोग उनकी बातों और भावनाओं को समझ पाने में असमर्थ होते हैं। दरअसल बाहरी लोग सांकेतिक भाषा को नहीं समझते। गांव के लोग बाहर जाकर जब इस भाषा में बात करते हैं तो उन्हें लाचार या मूर्ख समझा जाता है। जिससे वो कई बार अपमानित महसूस करते हैं। इसलिए इस गांव के लोग बाहर बहुत कम जाते हैं। हालांकि बेंकाल गांव के लोगों के बीच एक अनूठा प्रेम देखने को मिलता है। गांव के लोग इस भाषा का प्रयोग आपस में ज्यादातर इसलिए भी करते हैं ताकि गांव में रहने वाले मूक बधिर लोग खुद को अलग -थलग महसूस न करें। यहां के निवासी सेलिब्रेशन हो या सुख -दुःख , अपनी भावनाओं को सांकेतिक भाषा में एक दूसरे को बताते हैं।

सांकेतिक भाषा का यह प्रचलन गांव में कई पीढ़ियों से हैं। इसलिए गांव वाले शब्दों के माध्यम से नहीं बल्कि संकेतों के माध्यम से एक दुसरे को सुनते- समझते हैं । अब मजबूरी कह लो या जरुरत यह गांव इशारों की भाषा से भली -भांति चलता है । इस गांव में पैदा होने वाले अधिकतर बच्चे जन्म से ही बोल और सुन सकने में असमर्थ होते हैं। या यूं कहे कि यहां के लोग बचपन से ही मूक बधिर की समस्या से ग्रसित होते हैं। इसके पीछे की वजह वहां मौजूद सात पीढ़ियों से चली आ रही जीन DFNB3 को माना जाता है। इस जीन की वजह से ही लोग इस गांव में मूक बधिर पैदा होते हैं। ऑटोसोमल रिसेसिव नॉन सिंड्रोमिक बहरापन (DFNB3) ये एक ऐसी जेनेटिक बीमारी होती है जो बहुत कम ही लोगों में पाई जाती है। यही जीन सुनने की क्षमता को गंभीरता से प्रभावित करता है। इसकी गंभीरता में भी भिन्नता हो सकती है जैसे कोई कम सुनता है तो कोई बिलकुल ही नहीं सुनता। अधिकतर बच्चों को इसके गंभीर प्रभाव से गहरा नुकसान होता है।

कथित कहानी

 

इस गांव में अधिकतर लोगों का बचपन से ही मूक बधिर होने के पीछे एक कहानी भी सुनाई जाती है। गांव के लोगों को लगता है कि यह बहरापन उन्हें श्राप की वजह से मिला है। गांव वालों की कहानी के मुताबिक इस गावे में रहने वाले दो जादूगरों के बीच लड़ाई हुई थी। इसी लड़ाई के दौरान उन्होंने एक-दूसरे को बहरा हो जाने का श्राप दिया था। गांव वालों का मानना है कि गांव के सभी लोगों पर इन्ही दो काले जादूगरों का श्राप हैं, जो कि पिछले सात पुश्तों से अभी तक चला आ रहा है।

एक गांव ऐसा भी …

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