एक देश जो कभी बीते कल में शोषण और दमन के खिलाफ सुपरपावर देश ‘अमेरिका’ के सामने डटकर खड़ा था। उसने क्रांति की और आजादी हासिल की। पर समय का ऐसा चक्र चला कि आज वही देश अपनी जनता के दमन में जुट गया है। सड़कों पर विरोध में उतरी अपनी जनता की आलोचनाओं को दबाने के लिए अत्याचार का सहारा ले रहा है। ऐसा क्यों हो रहा है, क्यों आज जनता सड़कों पर है? जानने के लिए शुरआत करते है करीब सात दशक पुराने प्रकरण से। बात है 11 दिसंबर, 1964 की जब अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर के वेन्यू संयुक्त राष्ट्र के मुख्यालय में यूएन की जनरल असेंबली का सत्र चल रहा था। सदस्य देशों के प्रतिनिधि अपनी बारी आने अपनी बात मंच पर सबके साथ साझा कर रहे थे।
इसी क्रम में 36 साल का एक शख्स मंच पर पहुंचा और अपनी भाषा स्पेनिश में भाषण देना शुरू किया। ये भाषण नहीं था बल्कि उस वक्त अमेरिका पर तीखे वार किए जा रहे थे। उस रोज अमेरिका की ही धरती पर खड़े होकर उस शख्स ने अमेरिका को कटघरे में खड़ा कर दिया था। उसने कहा, ‘वो जो अपने बच्चों को खुद मारते हैं। जो चमड़ी का रंग देखकर अपने ही लोगों के साथ भेदभाव करते हैं। जो अपनी ही ब्लैक आबादी के हत्यारों को खुलेआम घूमने देते हैं। अपने बुनियादी अधिकार मांगे जाने पर अपनी ब्लैक पापुलेशन को सजा देते हैं। ऐसे लोग खुद को मानवाधिकार, आजादी का सरंक्षक कैसे कह सकते हैं?
अमेरिकी सरकार स्वतंत्रता और मानवाधिकार की रक्षक नहीं है। वो शोषण करती है अत्याचारी है।’ उस दिन उस 36 वर्षीय व्यक्ति ने अमेरिका की आंखों में आंखे डालकर अमेरिका को उसकी सच्चाई से अवगत करा दिया था। साथ ही एलान किया कि वो और उसके जैसे लोग उसके हमवतन अमेरिकी साम्राज्यवाद से आखिरी दम तक संघर्ष करते रहेंगे। अमेरिका के हथियारों वाले हाथों को पैरालाइज कर देंगे। आरोपों की बौछारों, बयानों और चेतावनियों से भरे इस भाषण की आखरी लाइन थी। पातरिया ओ मोएरते यानी मुल्क या मौत। जिसका अर्थ था मदरलैंड ऑडर डेथ। आजाद नहीं तो जिन्दगी भी मंजूर नहीं। अगर देश के लिए जान भी देनी पड़ी तो परवाह नहीं। किसने दिया था ये नारा और ये भाषण। उस शख्स का नाम था, अर्नेस्टो चे ग्वेरा। चे पैदा तो अर्जेंटीना में हुए। लेकिन उनकी कर्मभूमि रही क्यूबा। क्यूबन क्रांति के नायकों में से भी वह एक थे। उनका उछाला ये नारा 1950 के उस दशक में कम्युनिस्ट लीडर फिदेल कास्त्रो और उनके नेतृत्व में हुए क्यूबन रेवॉल्यूशन का सबसे लोकप्रिय स्लोगन हुआ करता था।
अब बात करते हैं वर्तमान में क्यूबा में हो रहे विरोध प्रदर्शनों की। वो क्यूबा जिसने सात दशक पहले ‘पातरिया ओ मोएरते’ यानी मदरलैंड ऑर डेथ का नारा दिया था, लेकिन अब उसी क्यूबा में एक अलग नारा सुनाई दे रहा है और वो नारा है ‘पातरिया य विदा’। मतलब होमलैंड ऐंड लाइफ। मतलब अब देश भी चाहिए और जिंदगी भी चाहिए। एक देश होने की कीमत यह नहीं हो सकती कि नागरिकों की जान ही न बचे। इनके जीवन में खुशियों के आने की कोई उम्मीद नहीं हो। जीवन दुख और संघर्ष में ही बीते। अब बात 11 जुलाई, 2021 की है। रविवार का दिन था। उस दिन क्यूबा के 50 से ज्यादा शहरों में एक साथ बड़ी घटना घटी। हजारों लोग सड़कों पर उतर आए। इस भीड़ में हर उम्र के लोग थे। इन लोगों ने एक-दूसरे के साथ कंधे से कंधा मिलाकर रैलियां निकालीं। इन रैलियों में लोगों ने ‘पातरिया ओ मोएरते’ के नारे लगाए। इस नारे का निशाना क्यूबा की कम्युनिस्ट सरकार थी। इस सरकार के वर्तमान प्रमुख मिगुएल डियाज कनेल हैं। जनता का आरोप है कि मिगुएल सरकार बिगड़ती अर्थव्यवस्था को ठीक करने में पूरी तरह असफल साबित हुई है।
देश की अर्थव्यवस्था पहले से ही खराब स्थिति में थी। फिर अमेरिका ने इस पर दशकों तक आर्थिक प्रतिबंध लगाए थे। ओबामा के कार्यकाल के दौरान प्रतिबंधों में कुछ ढील दी गई। लेकिन डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल के दौरान अमेरिका ने क्यूबा पर फिर से आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए। लेकिन अब लोग अपनी ही सरकार के खिलाफ सड़कों पर उतर आए हैं। पहले से मौजूद इतनी सारी समस्याओं के बीच 2020 में कोराना आया। उसके बाद से क्यूबा की आर्थिक स्थिति बद से बदतर होती चली गई। पर्यटन क्यूबा की अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा आर्थिक स्तोत्र था। कोविड के कारण पर्यटन क्षेत्र लगभग ठप हो गया। लाखों लोगों की आय चली गई। सरकार के पास विदेशी मुद्रा की भी भारी कमी थी। सरकारी खजाना इतना खाली हो गया कि सरकार विदेशों से खाद्यान्न और अन्य राशन का आयात भी नहीं कर पा रही थी। इसके कारण क्यूबा में खाद्य पदार्थों की भारी किल्लत हो गई थी। राशन की दुकानों में ऐसा कोई सामान नहीं था कि लोग वहां से कुछ खरीद सकें। ऐसे में लोगों के लिए दो वक्त का खाना जुटाना मुश्किल हो गया।
बिजली आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए सरकार के पास संसाधन भी नहीं हैं। नतीजतन, क्यूबा में लंबी बिजली कटौती आम हो गई। क्यूबावासियों को इन मुसीबतों से बाहर निकलने की एक ही उम्मीद थी। अगर कोविड पर काबू पाया जाता, संक्रमण कम होता तो काम फिर से चालू हो जाता। पर्यटकों के भी आने की उम्मीद है। लेकिन इस मोर्चे पर भी लोगों को निराशा ही हाथ लगी। इसका कारण टीकों की कमी है। धन की कमी और विदेशों में टीके खरीदने में झिझक के कारण क्यूबा के पास टीकों की बहुत कम खुराक है। क्यूबा में अब जो हो रहा है वह पिछले छह दशकों में कभी नहीं हुआ। 1959 में क्यूबा की क्रांति के बाद से वहां इतने बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन नहीं हुए हैं। वहां के घटनाक्रम पर कई देशों की प्रतिक्रिया आई है। इनमें सबसे अहम है अमेरिका की प्रतिक्रिया। अमेरिका क्यूबा का पड़ोसी देश है। अमेरिका ने क्यूबा को अपने चंगुल में रखने की बहुत कोशिश की। यहां अपने हिसाब से सरकार बनी। लेकिन 1959 में, फिदेल कास्त्रो ने अमेरिकी समर्थक सरकार को उखाड़ फेंका और क्यूबा को एक कम्युनिस्ट देश बना दिया। अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए ने क्यूबा की कम्युनिस्ट सरकार को गिराने की बहुत कोशिश की। फिदेल कास्त्रो को मारने के लिए सीआईए ने कई असफल प्रयास भी किए। इस पृष्ठभूमि के कारण, क्यूबा और अमेरिका के बीच संबंध कभी सामान्य नहीं हुए। उनके बीच हमेशा अविश्वास बना रहता था।
बराक ओबामा ने क्यूबा के साथ संबंध सुधारने की कोशिश की। मार्च 2016 में, वह तीन दिवसीय दौरे पर क्यूबा पहुंचे। यह एक सदी में पहली बार था जब किसी अमेरिकी राष्ट्रपति ने क्यूबा का दौरा किया था। इस यात्रा को बर्लिन की दीवार गिरने जैसा ऐतिहासिक क्षण माना गया। उम्मीद थी कि क्यूबा और अमेरिका के बीच संबंध सुधरेंगे। दोनों के रिश्ते में कुछ चमक आई थी। लेकिन फिर डोनाल्ड ट्रम्प राष्ट्रपति बने और गति रुक गई। ट्रंप सरकार ने क्यूबा पर आर्थिक प्रतिबंधों की पकड़ और मजबूत की है। इसके बाद दोनों देशों के हालात में सुधार की कोई उम्मीद नजर नहीं आ रही थी। अमेरिका में अब जो बाइडेन की सरकार सत्ता में है। उन्होंने क्यूबा मास प्रोटेस्ट पर प्रतिक्रिया दी है। 12 जुलाई को बाइडेन प्रशासन ने इस मुद्दे पर एक सार्वजनिक बयान जारी किया। इसमें क्यूबा के प्रदर्शनकारियों के साथ एकजुटता व्यक्त की गई। इस बयान को ट्विटर पर शेयर करते हुए बाइडेन ने लिखा-हम क्यूबा के लोगों के साथ खड़े हैं। क्यूबा के लोग अपने बुनियादी और मौलिक अधिकारों की मांग के लिए बहादुरी से आगे आए हैं। वहां की जनता कोरोना महामारी से हो रहे दर्द से राहत चाहती है। वे दशकों के दमन और आर्थिक संकटों से मुक्ति की मांग कर रहे हैं।
इसके बाद चीन का भी बयान आया। उन्होंने कहा कि क्यूबा में जो हो रहा है उसके लिए अमेरिका जिम्मेदार है। चीन ने कहा कि अमेरिका द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों के कारण क्यूबा में दवा, ईंधन और अन्य जरूरी चीजों की कमी हो गई है। चीन ने यह भी कहा कि वह क्यूबा के आंतरिक मामलों में किसी भी विदेशी हस्तक्षेप का विरोध करेगा। रिपोर्ट्स के मुताबिक रूस, चीन और ईरान तीनों ने अमेरिका को चेतावनी दी है। कहा गया है कि उन्हें किसी भी हाल में क्यूबा में दखल नहीं देना चाहिए। क्यूबा के मुद्दे पर दुनिया के कई देश बोलने लगे हैं। हस्तक्षेप न करने का निर्देश सही है। दशकों तक अमेरिका ने मानवाधिकारों और लोकतंत्र की गुहार लगाकर दूसरे देशों में पैर जमाए। अपने हितों को ग्रेटर गुड के रूप में नाम देकर सैन्य गतिविधियों और हमलों को उचित ठहराया। लेकिन चीन, रूस और ईरान भी क्यूबा सरकार का समर्थन करके कोई अच्छा काम नहीं कर रहे हैं। वे भी इस मसले को अपने तरीके से समेटने की कोशिश कर रहे हैं। इस आरोप में एक अहम बिंदु गायब है। यहां मसला किसी और का नहीं, क्यूबा के आम लोगों का है। वे लाभार्थी हैं। वे अपनी सरकार के काम से निराश हैं और बदलाव चाहते हैं। वे अपने अधिकारों की मांग को लेकर सड़कों पर उतर आए हैं। क्यूबा की सरकार को यह समझना होगा कि दीवारों पर चे ग्वेरा के चित्र बनाने और चौकों पर उनकी मूर्तियां लगाने से वे क्रांतिकारी नहीं बन जाएंगे। उन्हें क्रांति के वादे पर खरा उतरना होगा।