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कनाडा चुनाव पर चीन के प्रभाव की आशंका: आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का कसता शिंकजा

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) के माध्यम से विदेशी हस्तक्षेप, विशेषकर चीन की ओर से कनाडा में आगामी आम चुनाव को लेकर एक नई चिंता सामने आई है। ‘अल जजीरा’ न्यूज़ चैनल की रिपोर्ट के अनुसार कनाडा की सुरक्षा एजेंसियों को आशंका है कि चीन एआई का उपयोग कर चुनावी प्रक्रिया को प्रभावित करने की योजना बना रहा है। यह आशंका केवल एक देश विशेष तक सीमित नहीं है, बल्कि वैश्विक लोकतांत्रिक प्रणालियों के लिए एक चेतावनी है कि एआई एक नया और गम्भीर हथियार बन चुका है। निश्चित ही एआई ने जहां मानव जीवन को सुविधाजनक बनाया है, वहीं यह लोकतंत्र के लिए एक गम्भीर चुनौती भी बन उभरने लगा है। यदि इस तकनीक का नियमन और विवेकपूर्ण प्रयोग सुनिश्चित नहीं किया गया तो आने वाले वर्षों में चुनावों की पारदर्शिता और निष्पक्षता गहरे संकट में पड़ सकती है
कनाडा में संसदीय लोकतंत्र प्रणाली है, जिसमें आम चुनाव हर चार साल में होते हैं। अगला आम चुनाव 28 अप्रैल को प्रस्तावित है, जिसमें प्रधानमंत्री मार्क कर्नी की लिबरल पार्टी और मुख्य विपक्षी कंजरवेटिव पार्टी के बीच कड़ा मुकाबला होने की सम्भावना है। पिछले कुछ वर्षों में चीन-कनाडा सम्बंधों में तनाव बढ़ा है, विशेषकर हांगकांग, ताइवान और मानवाधिकारों से जुड़े मुद्दों को लेकर। ऐसे में यह आशंका और भी प्रासंगिक हो जाती है कि चीन चुनावी हस्तक्षेप के माध्यम से अपनी रणनीतिक पकड़ मजबूत करना चाहता है।
डीपफेक वीडियो और ऑडियो क्लिप्स
कनाडा आशंकित है कि एआई तकनीक के सहारे राजनेताओं के नकली वीडियो या ऑडियो तैयार किए जा सकते हैं, जिनमें वे ऐसी बातें करते या कहते दिखाए जाते हैं जो उन्होंने कभी नहीं कहीं। ये क्लिप सोशल मीडिया पर वायरल हो सकते हैं और जनता की राय को प्रभावित कर सकते हैं। एआई आधारित टूल्स के जरिए बड़े पैमाने पर नकली खबरें गढ़ी और फैलाई जा सकती हैं। बाॅट (BOT) नेटवर्क के जरिए इन्हें प्रचारित किया जाता है, जिससे एक ही प्रकार की खबरें बार-बार दिखने लगती हैं और लोग उन्हें सच मानने लगते हैं।
कनाडाई प्रधानमंत्री मार्क कार्नी
एआई चुनावी डेटा का विश्लेषण कर यह पता लगा सकता है कि किस क्षेत्र में कौन सी भावनात्मक या सामाजिक कमजोरी है। इन आंकड़ों के आधार पर विशेष समुदायों को निशाना बनाकर उनके सोचने की दिशा बदली जा सकती है। प्राकृतिक भाषा प्रसंस्करण (Natural Language Processing) आधारित एआई सिस्टम सोशल मीडिया ट्रेंड्स का विश्लेषण कर उन्हें कृत्रिम रूप से नियंत्रित कर सकते हैं। ट्रेंडिंग हैशटैग्स और ट्वीट्स के जरिए किसी एक पार्टी के पक्ष या विपक्ष में माहौल बनाया जा सकता है। इसी तरह एआई के जरिए नेताओं, पार्टी वाॅलंटियर्स या चुनाव अधिकारियों की ईमेल या डिजिटल जानकारी चुराकर उसे सार्वजनिक किया जा सकता है, जिससे उनकी छवि को नुकसान पहुंचाया जा सकता है।
कनाडा की प्रतिक्रिया और तैयारी
कनाडा की खुफिया एजेंसी सीएसआईएस (Canadian Security Intelligence Service) और साइबर सुरक्षा एजेंसियों ने इस खतरे को गम्भीरता से लिया है। सरकार ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स के साथ समन्वय स्थापित करना शुरू कर दिया है ताकि संदिग्ध गतिविधियों की पहचान की जा सके। इसके अलावा चुनाव आयोग ने डिजिटल साक्षरता अभियान चलाने की भी योजना बनाई है ताकि मतदाता फेक न्यूज और डीपफेक से सतर्क रहें।
वैश्विक संकट बनता एआई
गौरतलब है कि एआई आधारित चुनावी हस्तक्षेप की आशंका केवल कनाडा तक सीमित नहीं है। अमेरिका, भारत, जर्मनी और अन्य लोकतांत्रिक देशों में भी यह चिंता बढ़ती जा रही है। खासकर उन देशों में जहां सोशल मीडिया की पहुंच व्यापक है और मतदाता डिजिटल माध्यमों पर अत्यधिक निर्भर हैं। अमेरिका में (2016 राष्ट्रपति चुनाव) के दौरान एआई आधारित ‘बाॅट्स’ और सोशल मीडिया टूल्स का इस्तेमाल कर डोनाल्ड ट्रंप के पक्ष में जनमत को प्रभावित किया गया था। हजारों फर्जी सोशल मीडिया अकाउंट्स और ग्राफिक सामग्री के जरिए हिलेरी क्लिंटन के खिलाफ माहौल बनाया गया। एआई एल्गोरिद्म्स द्वारा मतदाताओं की माइक्रो-टार्गेटिंग कर भावनात्मक मुद्दों को भड़काया गया। अमेरिका की खुफिया एजेंसियों ने पुष्टि तब की थी कि रूस ने चुनाव में दखल देने की कोशिश की थी, हालांकि चुनाव के नतीजों पर सीधे प्रभाव को साबित करना मुश्किल रहा।
केन्या में (2013 और 2017 के चुनाव दौरान मतदाताओं के डेटा का विश्लेषण कर एआई द्वारा जाति, धर्म, और क्षेत्र आधारित विभाजन को उभारा गया। सोशल मीडिया पर घृणात्मक और डर फैलाने वाले कंटेंट चलाए गए। देश में चुनाव के बाद हिंसा बढ़ी वाट्सऐप और फेसबुक के जरिए एआई टूल्स से निर्मित नकली खबरें फैलाई गईं। ‘बाॅट्स’ द्वारा विरोधियों के खिलाफ झूठे आरोप और भावनात्मक वीडियो फैला कर आम जनता को प्रभावित किया गया। चुनाव बाद चुनाव आयोग और अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों ने इसकी जांच की, पर ठोस कार्यवाही नहीं हुई।
फिलीपींस में भी 2016 में हुए चुनाव दौरान एआई और डेटा एनालिटिक्स के जरिए सोशल मीडिया पर नियंत्रित नैरेटिव गढ़े गए। फेसबुक ‘बाॅट्स’ और नकली अकाउंट्स के जरिए विपक्षी नेता काॅड्रिगो की छवि को निखारा गया था। वे यह चुनाव जीत 2022 तक राष्ट्रपति रहे।
भारत में भी एआई आधारित टूल्स के जरिए 2019 के लोकसभा चुनाव में हस्तक्षेप के मामले सामने आए थे। भाजपा नेता मनोज तिवारी का एक वीडियो वायरल हुआ जिसमें वह हरियाणवी में वोट मांगते दिखे। वाट्सऐप यूनिवर्स पर बड़े पैमाने पर नकली खबरों का प्रचार कर मतदाताओं को प्रभावित करने का प्रयास किया गया था। एआई के जरिए चुनावी हस्तक्षेप आज एक वैश्विक चुनौती है। यह समस्या केवल विदेशी हस्तक्षेप तक सीमित नहीं, बल्कि घरेलू राजनीति में भी एआई का दुरुपयोग होने लगा है। डीपफेक और नकली खबरों का प्रचार अब चुनावी रणनीति का हिस्सा बनते जा रहे हैं। जब तक इन पर ठोस वैश्विक नियम नहीं बनाए जाते, लोकतंत्र की निष्पक्षता पर सवाल उठते रहेंगे।

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