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Uttarakhand

नहीं टिक रही जवानी, पहाड़ हो रहे खाली

कहते हैं पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी पहाड़ में नहीं टिकती। यह सिर्फ एक कहावत नहीं, बल्कि पहाड़ का सच है। पहाड़ से पलायन को रोकने के सरकार के लाख दावों के बावजूद हकीकत एकदम विपरीत है। बीते कई सालों में जिस तरह से पहाड़ों में पलायन बढ़ा है उससे साफ साबित हो रहा है कि लोगों का गांवों से लगातार मोहभंग हो रहा है। बेहतर सुविधाओं और रोजगार की तलाश में गांव मानवविहीन होते जा रहे हैं। हालांकि स्थाई पलायन में कमी भाजपा सरकार के लिए राहत की खबर है। ग्राम्य विकास एवं पलायन निवारण आयोग की हालिया रिपोर्ट में सबसे ज्यादा चिंताजनक स्थिति सीमांत जनपदों की है। जहां से बढ़ता पलायन देश की सुरक्षा के नजरिए से भी खतरा है। पलायन की यह व्यथा सरकारों की पर्वतीय नीति पर भी सवाल खड़े कर रही है

‘ पलायन’ वह किस्सा है जो उत्तराखण्ड में सबसे ज्यादा सुना औेर कहा जाता है। हर राजनेता और सामाजिक चिंतक भी पलायन को लेकर अपनी-अपनी चिंता व्यक्त करते रहते हैं। राजनीतिक दल हर चुनाव में पलायन रोकने के लिए ठोस योजनाएं बनाने के दावे करते हैं। जबकि गैर सरकारी संगठन इसके लिए सेमिनार के आयोजन कर अपना पसीना बहाते हैं। इस पूरी कवायद का लाभ राज्य को कितना मिला यह तो कहा नहीं जा सकता लेकिन सच्चाई यह है कि आज भी राज्य से प्रत्येक दिन 230 लोग पलायन कर रहे हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि पलायन पर चिंता केवल नारों-वादों और कागजातां में ही हो रही है जबकि हकीकत बिल्कुल विपरीत है।

ग्राम्य विकास एवं पलायन निवारण आयोग की हालिया रिपोर्ट ने यह साफ कर दिया है कि उत्तराखण्ड राज्य के अस्तित्व में आने के 22 वर्ष बाद भी पलायन की समस्या जस की तस बनी हुई है। जितना पलायन आंतरिक हो रहा है उससे थोड़ा कम राज्य से बाहर हो रहा है। हालांकि इसमें अस्थाई और स्थाई पलायन की अगर तुलना करें तो स्थाई पलायन में 40 प्रतिशत की कमी पर चिंतकों को कुछ संतोष मिल सकता है और इसे उपलब्धि मानकर अपनी पीठ थपथपाई जा सकती है। लेकिन इसका दूसरा गंभीर पहलू यह भी है कि इसके चलते कई गांव, स्थान निर्जन होते जा रहे हैं जिस पर ज्यादा गंभीरता से नीति बनाने की आवश्यकता है।
पलायन आयोग की रिपोर्ट में वर्ष 2018 से 2022 तक महज चार वर्षों के आंकड़ों के अनुसार 3 लाख 35 हजार 841 लोगों ने पलायन किया। जिसमें 28 हजार 531 ने स्थाई तौर पर और 3 लाख 7 हजार 310 ने अस्थाई पलायन किया। गौर करने वाली बात यह है कि वर्ष 2008-18 तक में 5 लाख 2 हजार 717 लोगां ने पलायन किया, लेकिन इसके बाद 2022 तक महज चार वर्ष में 3,35,841 लोगों का पलायन हुआ जो कि सबसे ज्यादा गंभीर बात है। इसमें वार्षिक पलायन के आंकड़ों की तुलना अनुसार औसतन 50272 लोगों ने पलायन किया लेकिन 2018 से 22 तक के चार सालों में हर वर्ष 83960 का पलायन करने का औसत है।

स्थाई पलायन की सूची

सबसे ज्यादा पलायन गांवों से ही हुआ है। वर्ष 2011-18 तक सभी 13 जिलों से 1,18,981 लोगों ने स्थाई तौर पर पलायन किया है। इसमें से सबसे ज्यादा पोड़ी, टिहरी, उत्तरकाशी, चमोली और अल्मोड़ा से ही हुआ है। इनमें 25584 लोगों ने पौड़ी जिले से पलायन किया है तो दूसरे स्थान पर टिहरी जिला रहा है जिसमें 18830 लोगों ने अपना घर-बार छोड़कर स्थाई तौर पर पलायन किया है। तीसरे स्थान पर अल्मोड़ा जिला रहा है जहां 16217 लोग और चौथे स्थान पर चमोली जिले को रखा गया है। यहां से 14289 लोग पूरी तरह से अपने घर, खेती-बाड़ी आदी को छोड़कर अन्य स्थानों में चले गए हैं। हैरत की बात यह है कि 2018 से लेकर 2022 तक के चार सालों में इन्हीं चार जिलों में स्थाई पलायन फिर से बढ़ा है, बस फर्क इतना है कि इन चार वर्षों में अल्मोड़ा जिला पहले स्थान पर रहा है जहां 5926 लोगों ने स्थाई पलायन किया है। 5653 लोगों के साथ दूसरे स्थान पर टिहरी जिला रहा है तो तीसरे स्थान पर पौड़ी जिला रहा है जहां 5474 लोगों ने स्थाई तौर पर अपना घर छोड़ा है। इन चार सालों में नैनीताल जिला चौथे स्थान पर आया है जिसमें 2014 लोगों ने स्थाई पलायन किया है। राहत की बात यह है कि 2018 के दशक में चमोली जिला चोथे स्थान की बजाय पांचवे स्थान पर आया है जहां से इन चार सालों में महज 1722 ही लोग स्थाई तौर पर बाहर गए हैं।

 

इस स्थाई पलायन के चलते हर जिलों की ग्राम पंचायतों की जनसंख्या में भी बड़ा बदलाव देखने को मिला है। जहां 2011 से 2018 तक के आंकड़ों में 3946 ग्राम पंचायतें प्रभावित हुई हैं। इसमें संख्या के अनुसार 53 से लेकर 821 ग्राम पंचायतें प्रभावित हुई हैं, जिसमें सबसे कम देहरादून जिले की 53 ग्राम पंचायतें और सबसे अधिक पोड़ी जिले की 821, ग्राम पंचायतें प्रभावित हुई हैं। प्रभावित होने वाली सौ से ऊपर की ग्राम सभाओं की
जनपदवार बात करें तो पौड़ी जिले में 821 अल्मोड़ा में 646, टिहरी में 585, पिथौरागढ़ में 384 तो चमोली जिले में 373, रूद्रप्रयाग 230 और नैनीताल जिले की 213 तथा चंपावत 208 व बागेश्वर 195, उत्तरकाशी जिले की 111 ग्राम पंचायतें प्रभावित हुई हैं। हैरत की बात यह है कि स्थाई पलायन में हरिद्वार, ऊधमसिंह नगर और देहरादून जेसे मैदानी जिलों की भी ग्राम पंचायतें प्रभावित हुए बगैर नहीं रह पाई और इन जिलों में भी क्रमशः 73,54,53 ग्राम पंचायतें पलायन के चलते प्रभावित हुई हैं।

इसी प्रकार से 2018 से 2022 तक के चार वर्षों में भी ग्राम पंचायतों से पलायन रुका नहीं और 2067 ग्राम पंचायतें पलायन से प्रभावित हुई हैं। इसमें पौड़ी गढ़वाल जिला पहले स्थान पर ही बना रहा जिसमें 467, अल्मोड़ा 407, टिहरी 350, पिथौरागढ़ 173, नैनीताल 152 एवं चमोली जिले में 151 ग्राम पंचायतें पलायन के चलते प्रभावित हुई हैं। इसी तरह से बागेश्वर में 93,चंपावत में 90, उत्तरकाशी में 78, रूद्रप्रयाग में 71 ग्राम पंचयतों में जनसख्या प्रभावित हुई है। देहरादून, हरिद्वार और ऊधमसिंह नगर में इन चार सालों में 26 ग्राम पंचायतें हरिद्वार, देहरादून में 7 तथा ऊधमसिंह नगर में महज 2 ग्राम पंचायतों की ही जनसंख्या प्रभावित हुई है।
इस तरह के पलायन से तकरीबन हर जिलों में निर्जन गांव बढ़ रहे हैं। आमतौर पर इन गांवों को ‘घोस्ट विलेज’ भूतिया गांव कहा जाता है। अगर इनकी संख्या देखें तो स्थिति निरंतर बदहाल होती जा रही है। 2018-22 तक महज चार वर्षों में गांव, मजरे या तोक ग्राम आबादी विहीन हो चुके हैं। इनमें सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाला जिला टिहरी है जहां 9 गांव भूतिया गांव हो चुके हैं। चंपावत जिला दूसरे स्थान पर है जिसमें 5 गांव आबादी विहीन हुए हैं। पोड़ी, पिथौरागढ़ जिलों के 3-3 गांव तथा चमोली और अल्मोड़ा जिले में 2-2 गांव भूतिया गांव बन चुके हैं। इसके चलते इन जिलों के कई विकासख्ांडों की आबादी 2011 की जनगणना के बाद 50 फीसदी कम हुई है जिसके कारण सभी जिलों के 67 विकासखंडां के 565 गांवों तोक और मजरों की आबादी में बड़ा अंतर आ चुका है। गौर करने वाली बात यह है कि राज्य के 13 जिलों में 95 विकासख्ांड हैं। इस तरह से 63 प्रतिशत विकासख्ांडों में इसका असर हुआ है।

आयोग के आंकड़ों अनुसार उत्तरकाशी जिले के भटवाड़ी, चिन्याली सौड, नौगांव ओैर पुरोला विकासखंडों के 54 गांवों की आबादी 50 प्रतिशत कम हुई है। इसी तरह से चमोली जिले के दशोली, देवल, जोशीमठ, कर्णप्रयाग, पोखरी और थराली विकासखंडां की 18 गांवां की आबादी में 50 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है। रूद्रप्रयाग जिले के अगस्तमुनि, जखोली और ऊखीमठ के 23 गांव, जिला टिहरी के भिलंगना, देवप्रयाग, जाखणीधार जौनपुर, कीर्तिनगर, नरेंद्रनगर एवं प्रतापनगर और थौलधार के 71 गांव, देहरादून जिले के कालसी, सहसपुर और विकासनगर के 42 गांव तथा पौड़ी जिले के सभी विकासखंडां के 112 गांवों की आबादी में 50 प्रतिशत कमी आई है। गौर करने वाली बात यह है कि इनमें बीरोखाल विकासखंड का क्षेत्र सतपाल महाराज की राजनीति का गढ़ माना जाता रहा है और इसी क्षेत्र में सबसे ज्यादा 27 गांवों की आबादी घटी है। पोखड़ा विकासखंड सतपाल महाराज का मूल गांव धैड़ का क्षेत्र है जबकि इसी विकासखंड के 9 गांवों की आबादी में 50 प्रतिशत की गिरावट देखी गई है।

इसी तरह से पिथौरागढ़ जिले के बेरीनाग, नालीछीना, गंगोली हाट और मुन्स्यारी के 45 गांव, बागेश्वर जिले के गरूड़, कपकोट और बागेश्वर के 37 गांव, अल्मोड़ा जिले के भिकियासैंण, चौखुटिया, धौलादेवी, द्वाराहाट, हवालबाग, सल्ट, स्यालदे और ताड़ीखेत के 80 गांव, चंपावत जिले के लोहाघाट, पाती एवं चंपावत के 44 गांव, नैनीताल जिले के बेतालघाट, भीमताल और ओखलाडांडा के 14 तथा ऊधमसिंह नगर जिले के काशीपुर और जसपुर विकासखंडों के 9 गांवों की आबादी में 50 प्रतिशत की कमी आई है। वर्ष 2018 के बाद से गांवों की आबादी में 50 प्रतिशत की कमी रुकी नहीं है। हालांकि इससे पहले बड़ी राहत देखने को भी मिली है। इन चार वर्षों में टिहरी जिले के चम्बा और जाखणीधार विकासखंडों के 8 ग्राम, तोक और मजरों में ही 50 फीसदी जनसंख्या की गिरावट पाई गई तो नैनीताल जिले के रामगढ़ विकासखंड के केवल 1 ही गांव में यह गिरावट पाई गई।

2018 के बाद राज्य से बाहर गए प्रवासियों के भी आंकड़े कम चौंकाने वाले नहीं हैं। प्रदेश के सभी 13 जिलों से बाहर जाने वाले लोगों के आंकड़े प्रतिशत में दिए गए हैं। जिसके अनुसार नजदीकी कस्बों से 35 प्रतिशत लोगों ने पलायन किया है तो वहीं जिला मुख्यालय से 18 प्रतिशत लोगों ने पलायन किया है। इसी तरह राज्य के अन्य जनपदों से पलायन का आंकड़ा 24 प्रतिशत रहा है। राज्य से पलायन करने वाले लोगां का आंकड़ा बेहद चौंकाने वाला है। यह बात तब ज्यादा गंभीर हो जाती है जब 2018 के बाद तत्कालीन राज्य सरकार प्रवासियों के रिवर्स पलायन के लिए तमाम तरह की घोषणाएं और दावे किए थे लेकिन पलायन आयोग के आंकड़ों में 22 फीसदी लोग इन चार वर्षों में राज्य के बाहर पलायन कर गए जो कि सरकार की नीति और नीयत पर सवाल उठाने के लिए काफी है। सरकारी नीतियां पलायन रोकने में नाकाम ही रही हैं। हालांकि देश से बाहर भी उत्तराखण्ड के लोगों का पलायन हुआ है जिनका आंकड़ा 1 प्रतिशत है।

पलायन आयोग द्वारा पलायन के कई कारणों का उल्लेख अपनी रिपोर्ट में किया गया है। दिलचस्प बात यह है कि आयोग द्वारा 2011 से 18 में जो कारण बताए हैं, वही सभी कारण 2018-22 में भी बताए गए हैं यानी इन दोनों कालखंडों में पलायन के कारण सरकार और प्रशासन के अलावा सभी चिंतकों को अच्छी तरह से ज्ञात थे लेकिन इनके निवारण के लिए कोई ठोस कार्यवाही नहीं की गई। आयोग के अनुसार रोजगार, चिकित्सा, शिक्षा बुनियादी सुविधाओं की कमी जैसे सड़क, बिजली, पानी और कृषि और पैदावर में कमी जिसमें वन्य जीवों का कृषि पर आतंक, परिवार और रिश्तेदारों के बेहतर जीवनशैली से प्रभावित होने जैसे कमोवेश यही सब कारण विगत 12 वर्षों से उत्तराखण्ड की जनता के पलायन के लिए जिम्मेदार बताए गए हैं। आंकड़ों को देखें तो 50 प्रतिशत लोगों ने आजीविका के लिए पलायन किया है तो 8-83 फीसदी लोग चिकित्सा, स्वास्थ्य की कमी के चलते पलायन को मजबूर हुए हैं। शिक्षा की कमी के चलते 15-21 और 5-44 प्रतिशत लोग कृषि की कमी यानी खेती में फसलों की कम उत्पादकता के कारण पलायन कर गए। यही नहीं 5-61 प्रतिशत वे लोग हैं जिनकी खेती को जंगली जानवरों द्वारा हानि पहुंचाई जाती रही है जिसके चलते उन्होंने पलायन का मार्ग चुना है। इसमें सबसे ज्यादा गौर करने वाली बात यह है कि विगत पांच वर्षों में खेती का रकबा घटा है बावजूद इसके प्रदेश को केंद्र सरकार से दो बार कृषि कर्मणा पुरस्कार भी मिल चुका है। साथ ही किसानों की आय को दोगुना करने के लिए केंद्र और राज्य सरकार द्वारा करोड़ों का बजट खर्च किया जा रहा है। हैरानी इस बात की है कि करोड़ों खर्च करने के बावजूद कृषि उत्पादन में भारी कमी और खेती को जंगली जानवरों से हो रही क्षति के कारण कुल 11 प्रतिशत लोगों का पलायन हुआ है जो कि अपने आप में बेहद चौंकाने वाला आंकड़ा है।

8 प्रतिशत से ज्यादा लोगों ने अन्य विशेष कारण से पलायन किया है। हालांकि इन कारणों का खुलासा पलायन आयोग द्वारा नहीं किया गया है लेकिन जानकारों की मानें तो इसमें ज्यादातर सामाजिक कारण हैं जो जातिगत व्यवस्था से हो सकते हैं, साथ ही किसी परिवार के एक सदस्य द्वारा नगरीय क्षेत्रों में सरकारी या निजी क्षेत्र में नौकरी, रोजगार आदि के मिलने से उसका परिवार भी पलायन कर रहा है। इस बारे में स्वर्गीय इंद्रमणी बड़ोना कहा करते थे कि जिस गांव में सड़क बनती है तो सबसे पहले गांव सड़क में आ जाता है फिर कस्बे में और फिर नगरीय क्षेत्र में पलायन बढ़ता है। वास्तव में यह एक बेहद सोचनीय विषय है कि जिस सड़क को गांव में पलायन रोकने का बड़ा माध्यम माना जाता है वही सड़क गांव से पलायन का एक माध्यम बन जाती है। भले ही यह पलायन अस्थाई या नजदीकी क्षेत्रों में ही होता हो लेकिन यह भी पलायन का एक रूप ही है।

 

उत्तराखण्ड में हर रोज औसतन 230 लोग पहाड़ से पलायन कर रहे हैं। जबकि 2018 से पहले तक यह आंकड़ा 138 था। हास्यास्पद यह है कि पलायन रोकने के लिए बने पलायन आयोग के अस्तित्व में आने के बाद उत्तराखण्ड में पलायन की रफ्तार और तेज हो गई है। ग्राम्य विकास एवं पलायन निवारण आयोग ने 2018 से अब तक की स्थिति पर आधारित रिपोर्ट सार्वजनिक की है। रिपोर्ट के अनुसार गत 4 साल में राज्य के 24 और गांव पूरी तरह निर्जन हो गए। इसमें सीमांत के 12 गांव भी शामिल हैं। इस तरह उत्तराखण्ड में घोस्ट विलेजों की संख्या 1726 पहुंच गई है

 

पलायन को लेकर नीतियां बनी, नाम बदले पर हकीकत जस की तस

पृथक प्रदेश बने हुए 22 वर्ष हो चुके हैं लेकिन आज भी कई ऐसे क्षेत्र हैं जो सड़क से नहीं जुड़ पाए हैं। आयोग की रिपोर्ट में लगभग 4 प्रतिशत लोगों ने सड़क, बिजली, पानी की सुविधा न होने के चलते पलायन किया है। प्रदेश के 62 विकासखंडों के 6291 गांव सड़कों से नहीं जुड़ पाए हैं। आंकड़ों को देखें तो इनमें तीन श्रेणियां आयोग द्वारा निर्धारित की गई है जिनमें सड़क पांच किमी की दूरी, पांच से दस किमी की दूरी और दस किमी की दूरी की श्रेणियां बनाई गई हैं। इनमें से 10 किमी की दूरी वाले गांव, तोक और मजरों की संख्या 82 है तो 6 से 10 किमी दूरी के गांव की संख्या 376 है। शून्य से 5 किमी की दूरी के गांव तोक एवं मजरों की संख्या 5828 है। यह आंकड़ा बेहद चौंकाने वाला है। इतनी बड़ी तादात के गांव की जनसंख्या सड़क से महज पांच किमी की दूरी पर आज भी निवास कर रही है। जबकि सरकारी दावों की मानें तो सड़को का जाल बिछाया जा चुका है।
अल्मोड़ा जिले के 11 विकासखंडों के 1055 गांव आज भी सड़क सुविधा से वंचित हैं। इनमें पांच किमी दूरी वाले गांव 1013, 6 से 10 किमी दूरी के 37 तथा 10 किमी सड़क से दूरी के 5 गांव आज भी हैं। इसी तरह से पौड़ी जिले में सभी 15 विकासखंडों के 934 गांव मजरों और तोकों के पांच किमी दूरी वाले गांव 877 तथा 6 से 10 किमी दूरी के 57 गांव आज भी सड़क से नहीं जोड़ा जा सका है। जबकि राज्य बनने के बाद से लेकर पौड़ी जिला राजनीतिक तौर पर सबसे मजबूत रहा है। इस जिले ने राज्य को 4 मुख्यमंत्री दिए हैं और वर्तमान में पौड़ी से ही सतपाल महाराज लोक निर्माण विभाग के मंत्री बने हुए हैं।

सड़कों की कमी में तीसरा स्थान पिथौरागढ़ जिले का है। जिले के 8 विकासखंडों के 922 गांवों में आज भी 834 ऐसे गांव हैं जिनकी सड़क से दूरी 5 किमी और 54 गांव 6 से 10 किमी दूर हैं तो 34 ऐसे गांव हैं जो 10 किमी सड़क से दूर है। टिहरी जिला चौथे स्थान पर है जिसमें 9 विकासख्ांडों के 825 गांवों की आबादी सड़कों से दूर ही है। 777 गांव 5 किमी सड़क से दूर हैं तो 52 गांव ऐसे हैं जो 6 से 10 किमी दूरी पर स्थित है, साथ ही 10 किमी दूरी के 3 गांव आज भी हैं। चमोली 555 गांव आज भी सड़कों से नहीं जोड़े जा सके हैं तो नैनीताल में 529 गांव ऐसे हैं जिनको सड़कों से नहीं जोड़ा गया है। इसी तरह से चंपावत, बागेश्वर, उत्तरकाशी और रूद्रप्रयाग जिले के 1228 ऐसे गांव आज भी हैं जो सड़क सुविधा से वंचित ही हैं। इन चारों जिलों में 16 विकासखंडों के 1109 गांवों की सड़क से दूरी 5 किमी की है तो 100 ऐसे भी गांव हैं जो 6 से 10 किमी की दूरी पर हैं। सड़क से 10 किमी की दूरी पर स्थित गांव की संख्या 19 है।

सबसे ज्यादा गंभीर बात यह है कि राजधानी का तमगा ओढ़े देहरादून जैसे जिले के 5 ऐसे विकासखंडों के 239 ऐसे गांव तोक मजरे हैं जो सड़कों से नहीं जोड़े जा सके हैं। इनमें 210 गांव ऐसे हैं जो सड़क से 5 किमी दूर हैं और 24 ऐसे गांव हैं जिनकी दूरी सड़क से 6 से लेकर 10 किमी तक है। यह अपने आप में ही बेहद चौंकाने वाला मामला है कि 22 वर्षों से राजधानी और विकसित जिला होने के बावजूद आज भी 210 गांव सड़कों की सुविधा से वंचित चले आ रहे हैं। हैरानी की बात यह है कि हर सरकारी कर्मचारी और अधिकारी यहां तक कि ब्यूरोक्रेट पर अपनी पोस्टिंग देहरादून जिले में करवाने के लिए तमाम तरह से हथकंडे अपनाता है। साथ ही तमाम तरह से विभागों के मुख्यालय तक इसी देहरादून में होने के बावजूद जिले के गांवों में सबसे बुनियादी सुविधा तक नहीं दी जा सकी है जिसके चलते राज्य से पलायन होने का एक कारण सड़क सुविधा को माना जा रहा है।

 

अस्थाई पलायन की सूची

पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत की सरकार में ग्राम्य विकास एवं पलायन निवारण आयोग का गठन किया गया था। तब से लेकर दो बार आयोग अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप चुका है। हाल ही में आयोग ने अपनी दूसरी रिपोर्ट भी राज्य सरकार को सौंपी है जिसमें पलायन को लेकर तमाम तरह के आंकड़े दिए गए हैं। इस नई रिपोर्ट में कई पहलुओं को भी रखा गया है जिसमें पलायन में पहले की अपेक्षा कमी तो देखी गई है लेकिन जो कारण पहली रिपोर्ट में बताए गए थे, वही कारण दूसरी रिपोर्ट में भी रखे गए हैं। रिपोर्ट में सुखद पहलू यह है कि 2018-22 तक के आंकड़ों में राज्य में स्वरोजगार के मामले ज्यादा बढ़े हैं जो कि एक बड़ी राहत देखी जा सकती है।

जबकि पलायन रोकने के लिए राज्य सरकार के दावों की जमीनी हकीकत कुछ और ही नजर आ रही है। आयोग की रिपोर्ट के बाद सरकार इसके लिए कई तरह की घोषणा करती है लेकिन अफसरशाही की उदासीनता के चलते दावों को जमीन पर उतारने के लिए ठोस प्रयास नहीं हो रहे हैं। इसका सबसे बड़ा प्रमाण इस बात से ही पता चल जाता है कि पलायन रोकने के लिए मुख्यमंत्री पलायन रोकथाम योजना के तहत 25 करोड़ का बजट स्वीकृत किया गया था जो कि 2022 में दिसंबर तक महज 11 करोड़ 64 लाख ही खर्च किए जा सके। जबकि इस वर्ष गैरसैंण में सरकार ने मुख्यमंत्री पलायन रोकथाम योजना मद में 25 करोड़, मुख्यमंत्री सीमांत क्षेत्र विकास योजना के मद में 20 करोड़ और ग्राम्य विकास महायोजना में 5 करोड़ का बजट रखा गया है। अब देखना है कि आयोग की रिपोर्ट के बाद सरकार द्वारा पलायन रोकने के लिए उठाए गए कदमों का कितना असर होता है। उम्मीद की जानी चाहिए कि आयोग की अगली रिपोर्ट में पलायन के आंकड़ों की तस्वीर कुछ अलग होगी।

 

 

 

 

 

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