छब्बीस मार्च 1974 को उत्तराखण्ड का रैणी गांव देश-दुनिया की सुर्खिंयां बना था। इस दिन गौरा देवी के नेतृत्व में गांव की सैकड़ों महिलाएं उन पेड़ों से चिपक गई थीं जिन पर ठेकेदार आरी चलाने वाला था। महिलाओं ने न केवल पेड़ों को बल्कि पूरी दुनिया में पर्यावरण बचाने का संदेश दिया था। यही ‘चिपको आंदोलन’ था। जिसे उत्तराखण्ड में कक्षा ग्यारह की सामाजिक विज्ञान की पाठ्य पुस्तकों में पढ़ाया जाता रहा है। लेकिन सुनने में आ रहा है कि अब एनसीईआरटी किताबों के उन पन्नों पर कैंची चलाने की तैयारी कर रहा है जिसमें चिपको आंदोलन को परिभाषित किया गया है। इस बाबत अधिकारी कुछ स्पष्ट नहीं कह पा रहे हैं। प्रदेश में विरोध के स्वर बुलंद होने लगे हैं
ऐसा नहीं है कि राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) ने पहली बार पाठ्य पुस्तकों में बदलाव किया है बल्कि इससे पहले भी वर्ष 1975, 1988, 2000 और 2005 में पाठ्यक्रम की रूप-रेखा में बदलाव हुए है। दावा है कि छात्रों पर पढ़ाई के बोझ को कम करने के अलावा दोहराव को हटाने के लिए बदलाव किए जा रहे हैं जबकि विपक्ष का कहना है कि प्रमुख रूप से सामाजिक विज्ञान और इहितास की किताबों में की गई कटौती राजनीति से प्रेरित है। देश के साथ ही उत्तराखण्ड में भी पाठ्यक्रमों में बदलाव की प्रक्रिया चल रहे हैं। नए सत्र से पाठ्यक्रम बदलाव की किताबें आनी थीं। जिनकी मार्च माह में सत्र में शिक्षा शुरू होनी थी। लेकिन वह अभी तक स्कूलों में नहीं पहुंची है। अभी तक स्कूलों में पुरानी पुस्तकों और उनके पाठ्यक्रमों को ही एक बार फिर पढ़ाया जा रहा है। इस दौरान चर्चा का विषय चिपको आंदोलन बना हुआ है। 1970 के दशक में पेड़ों को बचाने के लिए उनसे चिपककर किया गया यह आंदोलन न केवल पर्यावरण की दृष्टि से देश और दुनिया में सराहा गया था बल्कि इसको उत्तराखण्ड की पाठ्यपुस्तकों में भी शामिल किया गया था। फिलहाल चिपको आंदोलन उत्तराखण्ड के स्कूलों में कक्षा ग्यारह की सामाजिक विज्ञान की किताब में पढ़ाया जा रहा है। लेकिन इस दौरान चर्चा यह चल रही है कि नए सत्र 2022-23 के पाठ्यक्रम में तब्दीली करते हुए एनसीईआरटी ने चिपको आंदोलन को किताबों से हटा दिया है। इस आंदोलन को व्यापक रूप देने वालों में मुख्य रूप से पर्यावरणविद् सुंदर लाल बहुगुणा और चंडी प्रसाद भट्ट शामिल थे। भट्ट इस बाबत कहते हैं कि अभी तक तो किताबों में चिपको आंदोलन पढ़ाया जा रहा है लेकिन भविष्य में क्या होगा, यह कहा नहीं जा सकता है। साथ ही वह यह भी कहते हैं कि अगर चिपको आंदोलन को पाठ्यक्रम से बाहर किया गया तो जनता इसे बर्दाश्त नहीं करेगी और इसका जमकर विरोध किया जाएगा।
आज के दौर में जिस तरह से पर्यावरण में बदलाव आ रहा है। जंगलों का क्षेत्रफल सिकुड़ रहा है। जैवविविधता संकट में है। ऐसे में चिपको आंदोलन जैसे पाठों के पाठ्यक्रमों में बने रहने से युवा पीढ़ी का पर्यावरण संरक्षण के प्रति एक ज्ञान विकसित होता, लेकिन वहीं दूसरी तरफ कई अनुपयोगी विषय लंबे समय से पाठ्यक्रमों में चलते आ रहे हैं। जिन्हें हटाने की जरूरत सिद्दत से महसूस की जा रही है। आज के दौर में पाठ्यक्रम में बदलाव जरूरी है। शिक्षा विशेषज्ञों का कहना है कि आज जो पढ़ाया जा रहा है उसमें सवाल तो उठते ही हैं। विद्यालयों में कुछ भी चुनौतीपूर्ण नहीं होता। न ही अध्यापकों के लेक्चर में कुछ नया होता है। ऐसे में विद्यार्थी स्कूल जाना पंसद नहीं करते। स्कूल पाठ्यक्रम आज के संदर्भ के न होने के चलते युवा दिशाहीन भटकते हैं। पाठ्यक्रम सिर्फ परीक्षा पास करने तक सीमित है। विद्यार्थी खुद अपनी पढ़ाई से असंतुष्ट नजर आते हैं। विशेषज्ञ सवाल उठाते हुए कहते हैं कि अब अंग्रेजी को लीजिए इसमें जितने भी उपन्यास पढ़ाए जाते हैं वे सब पुराने विक्टोरियाई मूल्यों में गहरे तक धंसे हैं। कहानी भले ही अच्छी हो लेकिन उसका वर्तमान संदर्भ कुछ नहीं निकलता। यूजीसी ने वर्ष 1984 में विभिन्न विषयों के लिए पाठ्यक्रम विकास केंद्र बनाए थे। इन केंद्रों ने एक रिपोर्ट भी सौंपी थी लेकिन इस पर अमल नहीं हो पाया। आज भी कई संस्थानों में पाठ्यक्रमों को आधुनिक बनाने में पूरी उदासीनता है। परिवर्तन की कमी पूरी शिक्षा व्यवस्था में दिखती है। कुछ जानकार बताते हैं कि रॉयल्टी भी एक बड़ा मुद््दा है। जिन शिक्षकों ने वर्षों पहले पाठ्य पुस्तक लिखकर उन्हें पाठ्यक्रम में शामिल करा लिया वे इसमें परिवर्तन नहीं चाहते। पाठ्यक्रम बदलेगा तो स्वाभाविक है कि पाठ्य पुस्तकों की सूची भी बदलेगी। ऐसे में रॉयल्टी का हित आड़े आता है। उच्च शिक्षा में भी पाठ्यक्रम बदलाव की जरूरत महसूस की जा रही है। यहां छात्र-छात्राओं की रुचि के अनुसार पाठ्यक्रम नहीं चल रहे हैं। जैसे विज्ञान हर दिन तरक्की कर रहा है लेकिन इसका पाठ्यक्रम पुराना चल रहा है। ऐसे ही अन्य विषयों का भी है। ऐसे में अद्यतन जानकारी के लिए पुराने पाठ्यक्रमों को बदला जाना बेहद जरूरी है। लेकिन व्यवस्थागत स्तर पर शिक्षा अभी भी लकीर की फकीर बनी हुई है।
क्या हटा, क्या जुड़ा
एनसीईआरटी द्वारा हाल में पाठ्यक्रमों से कुछ पाठों को हटा दिया गया है जिसमें इंटरमीडिएट में चलने वाली आरोह भाग दो में फिराक गोरखपुरी की गजल, चार्ली चैपलिन, अंतरा भाग दो में सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की ‘गीत गाने दो’, विष्णु खरे की ‘एक काम और सत्य’ हट चुका है। 12 वीं कक्षा के इतिहास पुस्तक से मुगल शासकों और उनके साम्राज्य, पांडुलिपियों की रचना, रंग चित्रण, आदर्श राज्य, राजधानियां और दरबार, शाही परिवार, शाही नौकरशाही, मुगल अभिजात्य वर्ग, साम्राज्य एवं सीमाएं, अकबरनामा, बादशाहनामा, राजनीतिक दलों का उदय को हटा दिया गया है तो वहीं 12 वीं की नागरिक शास्त्र की पुस्तकों से विश्व राजनीति में अमेरीकी आधिपत्य, द कोल्ड वॉर एरा, पॉलिटिक्स इन इंडिया सिंस इंडिपेडेंस, राइज ऑफ पॉपुलर मूवमेंटस, एरा ऑफ वन पार्टी डोमिनेंस तो वहीं सामाजिक विज्ञान की पुस्तकों से वर्ष 2002 के गुजरात दंगों के सभी संदर्भ सामाजिक विज्ञान पुस्तकों से हटाए गए हैं।
एनसीईआरटी के कक्षा 12 वीं में बदलाव के तहत नागरिक शास्त्र की पुस्तक से समकालीन विश्व राजनीति से समकालीन विश्व में अमेरिका वर्चस्व और शीत युद्ध, स्वतंत्र भारत की राजनीति किताब में से जन आंदोलन का उदय, एक दल के प्रभुत्व का दौर तो कक्षा 9वीं के राजनीतिक विज्ञान के पाठ्यक्रम से डेमोक्रेटिक राइट्स, स्ट्रक्चर ऑफ द इंडियन कॉन्स्टीट्यूशन, नवीं की अर्थशास्त्र की पुस्तक से फू्रड सिक्योरिटी इन इंडिया, दसवीं के राजनीतिक विज्ञान से डेमोक्रेसी एंड डाइवर्सिटी, कास्ट रिलिजन एंड जेंडर, चैलेंजेज टू डेमोक्रेसी तो वहीं कक्षा 11वीं के पॉलिटिकल साइंस के पाठ्यक्रम से फेडरलिज्म, सिटीजनशिप, नेशनलिज्म और सेक्युलरिज्म जैसे अध्याय हटाए गए हैं। इसी तरह लोक गवर्नमेंट के दो यूनिटों को हटा दिया गया है। व्हाई डू वी नीड लोकल गवर्नमेंटस, ग्रोथ ऑफ लोकल गवर्नमेंट इन इंडिया हट चुका है। 12 वीं के राजनीतिक विज्ञान से सिक्युरिटी इन द कंटेम्पररी वर्ल्ड, एनवायरनमेंट एंड नेचुरल रिसोर्सेज, सोशल एंड न्यू सोशल मूवमेंट्स इन इंडिया, रीजनल डेवलपमेंट नाम अध्याय से चेंजिंग नेचर ऑफ इकोनॉमिक डेवलपमेंट तथा प्लानिंग एंड फाइव इयर्स प्लान्स जैसी यूनिट हटा दी गई हैं। 12 वीं के राजनीतिक विज्ञान से जम्मू-कश्मीर में अलगाववाद की राजनीति से जुड़ा पैराग्राफ हटा दिया गया है। वहीं एनसीईआरटी द्वारा 12वीं के राजनीतिक विज्ञान के पाठ्यक्रम में 370 हटाए जाने का अध्याय जोड़ा गया है।
बात अपनी-अपनी
मैंने ऐसा नहीं सुना है कि सरकार स्कूली पाठ्यक्रम से चिपको आंदोलन को हटाने जा रही है। अभी तक जो मुझे मालूम है चिपको आंदोलन को उत्तराखण्ड के एनसीईआरटी के सिलेबस से हटाया नहीं गया है। अगर ऐसा किया जाता है तो यह जनता की भावनाओं के साथ खिलवाड़ होगा। साथ ही हमारी आने वाली पीढ़ियां पहाड़ के इस आंदोलनकारी इतिहास से वंचित रह जाएंगी। इसके विरोध में जनता भी सड़कों पर उतर सकती है।
चंडी प्रसाद भट्ट, पर्यावरणविद्
सरकार पाठ्यक्रमों में काफी कुछ बदलाव कर रही है। हालांकि ये बदलाव होने जरूरी हैं लेकिन चिपको आंदोलन हमारा ऐसा इतिहास रहा है जिससे हमें बहुत कुछ प्रेरणा मिलती रही है। इस आंदोलन के जरिए ही पहली बार पहाड़ी महिलाओं की वीरता दुनिया के सामने आई थी। इसी के साथ हम देश-दुनिया को यह भी संदेश देने में कामयाब रहे थे कि पर्यावरण के साथ खिलवाड़ कितना घातक होता है। इसलिए ऐसे विषय हटने नहीं चाहिए।
सुरेश भाई, पर्यावरणविद्
निदेशालय से पाठ्यक्रमों में परिवर्तन के लिए एनसीईआरटी की तरफ से सुझाव मांगे गए थे। जिसके लिए एक सुझाव समिति भी बनाई गई थी। समिति ने अपने सुझाव एनसीईआरटी को दे दिए हैं। क्या विषय पाठ्य-पुस्तकों से हटाया जाना है और क्या जोड़ा जाना है, यह एनसीईआरटी ही तय करता है। वैसे मेरे हिसाब से उत्तराखण्ड राज्य की प्रकृति के हिसाब से पर्यावरण का विषय विद्यार्थियों को पढ़ाया जाना बेहद जरूरी है। वह विषय चिपको आंदोलन भी हो सकता है या कोई नया अध्याय भी जोड़ा जा सकता है।
बंशीधर तिवारी, महानिदेशक, विद्यालयी शिक्षा उत्तराखण्ड
फिलहाल हमारे स्कूलों में चिपको आंदोलन का अध्ययन कराया जा रहा है। कक्षा 11 की सामाजिक विज्ञान में यह विषय बच्चे पढ़ रहे हैं। साथ ही उत्तराखण्ड के इतिहास में दिलचस्पी भी ले रहे हैं। अभी हमारे पास एनसीईआरटी का पुरानी सिलेबस चल रहा है। सत्र 2022-23 में क्या पाठ्यक्रम आएगा यह कहना मुश्किल है।
गजेंद्र रौतेला, प्रधानाध्यापक, राजकीय प्राथमिक विद्यालय, चमेली अगस्तमुनी