ये कैसी देवभूमि है जहां मंदिर तक में एक मां को रहने तक की जगह नहीं दिया जाता। यहां गरीब मजबूरी में सरकारी जगह का भी प्रयोग नहीं कर सकते। सरकार कहती है कि गरीबों को मुफ्त भोजन दिया जा रहा है , करोङो रूपये के शौचालय बन गए हैं। लेकिन क्या यह सब बहुत है जब देवभूमि के नाम से विश्वभर में प्रख्यात उत्तराखंड में मानवीय संवेदनाएं दम तोड़ रही हों।उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में कोरोना काल में देघाट ग्राम सभा की जनता का अमानवीय व्यवहार सामने आया है। मामला देघाट में पिछले बीस वर्षों से रह रही गंगा कांडपाल का है। जो लॉक डाउन शुरू होने के पहले अपनी बड़ी बेटी का इलाज कराने अपने दामाद और बेटी के नवजात शिशु को लेकर दिल्ली गयी थी। उत्तराखंड की स्वास्थ्य स्तिथि की यह भी एक त्रासदी है कि गंगा के लड़की को सिजेरियन ऑपरेशन के दौरान ग़लत टांके लगा दिए गए।
जिसके इलाज के लिए वह अपने अन्य बेटियों को छोड़ ,बड़ी बेटी के इलाज के लिए दिल्ली गयी थी। लॉक डाउन की वजह से वह वापस नहीं आ पाई। गंगा की तीन लड़कियां और एक लड़का है। गंगा के पति जगदीश चंद्र कांडपाल ,सोनीपत में निजी होटल में काम करते हैं। लॉक डाउन की वजह से वह भी सोनीपत के एक किराए के कमरे में रह रहे हैं , नौकरी चली जाने के कारण राशन आदि बड़ी मुश्किल से जुटा पा रहे हैं।
अब जब दूसरे राज्यों में जाने की अनुमति मिली तो गंगा देवी घर वापस आ गयी। जहां उसे मकान मालिक ने घर में प्रवेश नहीं दिया , गांव वालों ने भी आपत्ति जताते हुए। उस पर और उसके तीन बच्चों पर टीका टिपण्णी करने लगे। होना यह चाहिए था कि मकान मालिक को ग्राम सभा के प्रधान को सूचित कर उन्हें होम क्वारंटाइन करना चाहिए था या प्रधान को प्रशासन के लोगों को सूचित कर सरकारी व्यवस्था के अनुसार किसी अन्य जगह 14 दिन के लिए क्वारंटाइन कर जांच में नेगेटिव आने के बाद घर भेज दिया जाता। लेकिन यहां न तो प्रधान ने कोई पहल की और न ही प्रशासन ने उसकी कोई मदद की। ऐसी स्तिथि में उसे मजबूरन गांव के पास की झाड़ियों में अपना दिन बिताना पड़ा जो गांव में स्तिथ नदी के उस पर है।
गंगा के बच्चे और वह गांव के लोगों से दिनभर मिन्नतें मांगती रही कि उसे होम क्वारंटाइन किया जाए उसी के किराए के कमरे में रहने दिया जाए। पर किसी ने भी उसकी ओर मानवता का हाथ नहीं बढ़ाया।
बच्चे अपनी मां की यह दयनीय स्थिति देख गांव वालों से बहस करते रहे जब बात नहीं बनी तो हाथ जोड़ दया की भीख मांगने लगे। पर गांव के लोगों ने जैसे अत्याचार करने की कसम खा रखी थी। गंगा ने गांव वालों से दो प्रस्ताव भी रखे उसने कहा कि मुझे गांव में स्तिथि भैरव मंदिर या शहीद स्मारक में ही जगह दे दें। 14 दिन रहने के लिए पर किसी ने भी उसके इस बात को नहीं माना।जब वह अपनी एक बेटी के साथ नदी किनारे स्तिथ चट्टान पर बैठने के लिए गयी तो गांव वालों ने वहां भी घेरा और उस पत्थर को भी धोया।
और आखिरकार उसे वहां से भी लोगों ने हटा दिया। आपको बता दें कि सरकार द्वारा मोहान गांव जो कि देघाट से लगभग 90 किमी की दूरी पर है वहां प्रवासियों का थर्मल स्क्रीनिंग किया जा रहा है। गंगा के अनुसार वहां उनका टेम्परेचर 97.6 आता है। जिसके बाद उन्हें वहां , देघाट जाकर होम क्वारंटाइन की परमिशन दे दी जाती है। पर शायद गंगा नहीं जानती थी कि जिन लोगों के साथ उसने अपने जीवन के 20 वर्ष गुजारे थे वह कोरोना काल में उसी के साथ ऐसा दुर्व्यवहार करेंगे। गंगा कहती हैं,
” मैं यहां अपने बच्चों के लालन पालन के लिए घरों में बर्तन धोकर गुजारा करती थी । मैं यहां की ही वोटर हूँ। न जाने कितनी बार यहां के प्रधान को वोट दिया है। पर अब यहां के प्रधान ने और लोगों ने हमें इस तरह अलग कर दिया। मुझे विश्वास भी नहीं हो रहा है कि ऐसा हमारे साथ हो रहा है
गंगा की छोटी बेटी कहती है कि, “हम गरीब हैं इसलिए ये लोग हमारे साथ ऐसा दुर्व्यवहार कर रहे हैं। हम जानते हैं हमारी जगह कोई सेठ आदि होता तो ये उसके और उसकी मां के साथ अच्छे से पेश आते।मेरी मां जिसने हमें पालपोश कर बड़ा किया ,दिन रात मेहनत कर पढ़ाया उसी को मैं इतनी बुरी स्तिथि में कैसे देख सकती हूं।सबने हमशे मुंह मोड़ लिया। मेरी ने यहां के पटवारी से भी बात की पर उसने भी हमारी मदद नहीं की। हमारा राशन सारा खत्म हो गया है। जो है भी उससे ज्यादा से ज्यादा एक सप्ताह ही गुजारा किया जा सकता है। उसके बाद हमारा क्या होगा। हम नहीं जानते।”।”
गंगा के बच्चों ने जब स्थानीय पत्रकारों और प्रशासन से गुहार लगाई तो देर रात प्रशासन ने गंगा को पास के अस्पताल में बरामदे में रहने की जगह दे दी। पर अपमानित होने का सिलसिला लगातार वहां भी जारी रहा । ऐसे में गंगा के बड़े दामाद केवलानंद भट्ट अल्मोड़ा के गांव मासी से आकर अपनी सास गंगा को अपने साथ ले जाते हैं।
केवलानंद भट्ट बताते हैं कि, ” सभी कागज़ मेरे पास है। हमको कोरोना नहीं है। मोहान में टेस्ट के बाद हम सबको होम क्वारंटाइन में रहने के लिए कहा गया था। जिसके बाद मेरी सास देघाट और मैं अपनी पत्नी के साथ मासी आया। पर हमारे साथ ऐसा अमानवीय व्यवहार किया गया जैसा मुझे बिल्कुल उम्मीद नहीं थी।”
सवाल यह है कि क्या पहाड़ में महिलाओं के साथ ऐसा अमानवीय व्यवहार स्वीकार्य है। क्या उत्तराखंड में गरीबों की ज़िंदगी की क़ीमत सरकार के लिए सिर्फ वोट तक ही है।
इस बारे मे जब अल्मोड़ा के जिलाधिकारी नितिन सिंह भदौरिया से बात की गई तो उन्होंने समस्या का समाधान करने की बात कही। उन्होंने इसके लिये परिवार के सदस्यों का भी नंबर माँगा।इसके बाद एस डी एम राहुल साह जो देघाट और भिकियासैंण के भी उप जिलाधिकारी हैं उनका कॉल दि संडे पोस्ट के संवाददाता दिग दर्शन यानी कि मेरे मोबाइल पर आता है।
उनका कहना है कि “गंगा को रात को हॉस्पिटल में रहने दिया गया। पर मेरे पास शिकायत आयी कि दिन मे वो चली जाती थीं। मैं मानता हूं कि गांव के लोगों ने गलत बर्ताव किया।लेकिन हमने उन्हें बेड की भी व्यवस्था दी थी । हमारे पास तसवीर भी है।”
पटवारी और प्रधान के गैर जिम्मेदाराने रवैये का यह आलम है कि गंगा के लाख जतन के बाद वे गंगा की राशन कार्ड बनवाने में कोई मदद नहीं कर रहे हैं।
लेकिन यह समस्या प्राथमिक स्तर पर ही क्यों नहीं सुलझाई गयी? गांव के प्रधान को आदेश है कि बाहर के आये लोगों की देखभाल करें, ऐसे में इस मामले में प्रधान की भूमिका न के बराबर क्यों रही? प्रश्न यह भी है कि यदि समाज ऐसा करता है तो प्रशासन की भूमिका क्या होनी चाहिए?