रक्षा मंत्रालय ने उत्तराखण्ड समेत देश की सभी 62 छावनी परिषदों में चुनाव स्थगित कर दिए हैं। इस आदेश का असर वैसे तो उत्तराखण्ड की सभी 9 छावनियों में पड़ा है, लेकिन रानीखेत के बाशिंदों में इससे खुशी की लहर है। ये लोग पिछले कई सालों से रानीखेत को छावनी परिषद के कब्जे से बाहर करने की मांग करते रहे हैं। इस मांग को लेकर लोगों ने गत् दिनों चुनावों के बहिष्कार का ऐलान भी किया था। रानीखेत को नगर पालिका में शामिल करने की घोषणा भाजपा-कांग्रेस दोनों ही पार्टियां करती रही हैं। दोनों ही इस मुद्दे पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेकती रही हैं। एक बार फिर इस मुद्दे को लेकर जनता सीएम पुष्कर सिंह धामी के दरबार पहुंची है जहां उन्हें नगर पालिका में शामिल कराने का आश्वासन मिला है
उत्तराखण्ड की राजनीति में बड़े-बड़े चेहरों को प्रतिनिधित्व देने वाले रानीखेत के साथ यहां के चुने हुए जनप्रतिनिधि न्याय नहीं कर पाये शायद यही कारण रहा कि समय-समय पर रानीखेत के अस्तित्व को बचाने के लिए यहां की जनता को आंदोलनों का सहारा लेना पड़ा और आज भी रानीखेत की जनता अपने जायज हक के लिए संघर्षरत है। रानीखेत छावनी परिषद के सिविल एरिया को नगर पालिका का दर्जा देने की मांग काफी पुरानी है और आज भी रानीखेत के नागरिक नगर पालिका के लिए आंदोलरत हैं। छावनी परिषद के लिए होने वाले चुनावों के बहिष्कार की मुहीम के बीच छावनी परिषद के चुनावों का रद्द होना शायद जन दबाव का ही नतीजा है। रानीखेत को जिला बनाना और छावनी परिषद के नागरिक क्षेत्र को नगर पालिका का दर्जा देना जैसी मांगे नई नहीं हैं लेकिन इनका अपनी परिणति में पहुंच पाने के लिए सिर्फ जनप्रतिनिधि ही जिम्मेदार नहीं है, बल्कि राजनीतिक विचारधाराओं और प्रतिबद्धताओं से बंधा एक बड़ा नागरिक समूह भी जिम्मेदार है। जिसने अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धताओं को रानीखेत के हितों से ऊपर माना, साथ ही नागरिको का एक वर्ग जिसके लिए ‘हमे क्या फर्क पड़ता है’ की भावना रानीखेत के प्रति संवेदनाओं को झकझोर नहीं पाती और शायद यही कारण है कि यहां के आंदोलन रानीखेत के हितों के लिए निर्णायक साबित नहीं हो पाए।

कभी कत्यूरी शासक राजा सुधारदेव की रानी पद्मिनी की पसंदीदा स्थल रही रानीखेत का नाम संभवतः रानी के नाम पर ही पड़ा था रानीखेत की प्राकृतिक खूबसूरती ने रानी पद्मिनी को अपना स्थाई निवास बनाने के लिए आकर्षित किया था। शुरुआत में रानीखेत को अंग्रेजों ने अपने अवकाशकालीन डेस्टीनेशन के रूप में चुना और विकसित किया। समय के बीतने के साथ ये अंग्रेजों का पसंसदीदा स्थल बन गया। 1815 में युद्ध में पराजय के बाद संपूर्ण कुमाऊं को गोरखों ने अंग्रेजों को सौंप दिया। इस बीच कई अंग्रेजो ने चाय बागानों के लिए जमीन ली जिसमें एक अंग्रेज ट्रूप ने चौबटिया डपट कालिका और होल्म फॉर्म की जमीन ग्रामीणों से खरीद 1868 में रानीखेत को अंग्रेज सैनिकों और फौज के लिए पंसद किया। सर हैनरी रेमजे ने 1869 में इसकी स्थापना कर छावनी का गठन किया। 1913 में इसे पाली परगना तहसील का मुख्यालय बनाया गया। रानीखेत छावनी परिषद का गठन 1924 के छावनी बोर्ड अधिनियम के अंतर्गत किया गया था। छावनी परिषद में सात चुने हुए सदस्य और सात नामित सदस्य होते हैं। स्थानीय स्टेशन कमांडर इसके पदेन अध्यक्ष और छावनी परिषद के मुख्य अधिशाषी अधिकारी इसके पदेन सचिव होते हैं। 2015 में यहां छावनी परिषद के चुनाव हुए थे। छावनी परिषद का कार्यकाल 2020 में पूरा हो चुका था लेकिन कतिपय कारणों के चलते इसका कार्यकाल 2 वर्षों तक बढ़ाया गया था। 30 अप्रैल 2023 को घोषित चुनावों के बीच बहिष्कार की सुगबुगाहट के चलते फिलहाल इन्हें स्थगित कर दिया गया है। इस बीच बहिष्कार की मुहीम ने एक नया मोड़ ले लिया जब नगर पालिका की मांग के आंदोलन में घोषणा की गई कि जब तक नगर पालिका का गठन नहीं होता तब तक आने वाले हर चुनाव का बहिष्कार किया जाएगा। जिसमें लोकसभा चुनाव शिमल हैं। छावनी परिषद के अंदर सैन्य और नागरिक क्षेत्र हैं। छावनी परिषद का कुल क्षेत्रफल 4,183 एकड़ है। जिसमें 167 एकड़ क्षेत्र सिविल एरिया के नाम से जाना जाता है। इस सिविल क्षेत्र को ही नगर पालिका बनाने की मांग लंबे समय से की जा रही है। सबसे बड़ा मुद्दा भूमि के मालिकाना हक का है। यहां के निवासी भूमि के मालिक न होकर सिर्फ लीजधारक हैं। जिसके चलते भवन निर्माण के लिए हाउस लोन की सुविधा से यहां के नागरिक वंचित रहते आ रहे हैं।
मकानो के पुनर्निर्माण और मरम्मत के लिए छावनी के कानून हमेशा आड़े आते हैं। हालांकि कुछ वर्षों में छावनी परिषद की शिथिलता के चलते कई नए निर्माण हुए हैं। अब प्रश्न यही है कि ये शिशिथलता नियमों के अंतर्गत ही गई या फिर कुछ अन्य कारणों से। क्योंकि कई सामान्य लोगों को भवन मरम्मत की अनुमति के लिए छावनी परिषद कार्यालय में चक्कर काटते देखा जाता है जबकि प्रभावशाली लोगों के भवन निर्माण बिना किसी बाधा के निर्बाध चल रहे हैं। अगर गौर से देखा जाए तो कई कॉलोनियां नियम विरुद्ध खड़ी हो गईं। हालांकि छावनी परिषद के सूत्र भेदभाव के आरोपों का खंडन करते हैं। रानीखेत छावनी परिषद के नागरिक क्षेत्र को नगर पालिका का दर्जा देने के आंदोलन का परिणाम क्या होगा? यह आने वाला वक्त बताएगा क्योंकि इस आंदोलन का भविष्य जनप्रतिनिधियों और राजनीतिक प्रतिबद्धताओं की नीयत तय करेगा। छावनी परषिद को नगर पिलका में तब्दील करने में कई पेंच है। छावनी परिषद के सूत्र बताते हैं कि फिलहाल छावनी परिषद के स्तर पर नगर पालिका के गठन की प्रक्रिया गतिमान नहीं है। वैसे भी छावनी परिषद की भूमि पर रक्षा मंत्रालय का स्वामित्व होता है और छावनी का क्षेत्र कम या ज्यादा करने का निर्णय केंद्र सरकार को ही करना है। छावनी परिषद से सिर्फ प्रस्ताव पर अनापत्ति मांगी जाती है। सवाल है कि केंद्र सरकार खासकर रक्षा मंत्रालय के स्तर से इस पर पहल होगी? इस बीच भाजपा नेताओं का एक प्रतिनिधिमंडल पूर्व मंत्री व कालाढूंगी विधायक बंशीधर भगत के नेतृत्व में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के नेतृत्व में नगर पालिका के संबंध में मिला है जिसमें दीपभगत, गिरीश भगत, शंकर ठाकुर शामिल थे। प्रतिनिधिमंडल के सदस्य मुख्यमंत्री के सकारात्मक आश्वासन से खासे उत्साहित हैं। लेकिन इन आश्वासनों और घोषणाओं से रानीखेत की जनता कई बार ठगी गई है।
15 अगस्त 2011 को तत्कालीन मुख्यमंत्री रमेश चन्द्र पोखरियाल ‘निशंक’ द्वारा घोषित नए चार जिलों में रानीखेत का नाम भी शामिल था लेकिन उसका क्या हुआ सब जानते हैं। भाजपा नेता वर्तमान में नैनीताल से सांसद एवं केंद्रीय रक्षा राज्य मंत्री अजय भट्ट के नेतृत्व में उस वक्त भाजपाइयों ने पूरे शहर में रानीखेत जिले की घोषणा पर विजयी जुलूस निकाला था और जनता का धन्यवाद स्वीकार किया था। उस वक्त से आज तक परिस्थितियां काफी बदल चुकी हैं। 2017 में अजय भट्ट का चुनाव हार जाना 2019 के लोक चुनावों में नैनीताल से सांसद और रक्षा राज्यमंत्री पद पर उनका आसीन होना समय के उलटफेर का गवाह है। अजय भट्ट को रानीखेत में 2017 की हार की टीस अभी गहरी है। विधायक बंशीधर भगत के नेतृत्व में भाजपा प्रतिनिधिमंडल का मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी से मिलना भाजपा के अंदर अंतर्विरोधों की ओर इशारा करता है। स्थानीय नेताओं का रक्षा राज्यमंत्री अजय भट्ट से न मिल राज्य सरकार के दरवाजे खटखटाना कई सवाल पैदा करता है। जबकि नगर पालिका गठन में राज्य सरकार की भूमिका सीमित है खासकर छावनी परिषद से नागरिक क्षेत्र को काश्तकर नगर पालिका गठन के संदर्भ में। रानीखेत में घोषणाओं के साथ श्रेय लेकर उत्सव मना लेने की परंपराएं पुरानी हैं। नारायण दत्त तिवारी के मुख्यमंत्रित्व काल में रानीखेत के कांग्रेसियों ने नगर पालिका की घोषणा का बड़ा जश्न मनाया था। चाहे जिला हो या नगर पालिका का मामला सवालों के कठघरे में कांग्रेस और भाजपा दोनों हैं।
ऐसा नहीं कि भाजपा और कांग्रेस के नेताओं को इस शहर ने कुछ नहीं दिया। बची सिंह रावत, हरीश रावत, अजय भट्ट सरीखे नेता इसी शहर से राजनीति शुरू कर राष्ट्रीय राजनीति पर पहचान बनाने में सफल हुए। रानीखेत से निकले नेताओं का कद तो बढ़ता गया लेकिन रानीखेत का कद घटता गया। नगर पालिका आंदोलन के बीच फिलहाल सरकारी स्तर पर ऐसी कोई पहल नजर नहीं आती जिससे पता चलता हो कि नगर पालिका के गठन की प्रक्रिया चल रही हो। छावनी परिषद के चुनावों की घोषणा होते ही एक बड़ा तबका चुनाव में भाग लेने को उत्सुक था मगर अचानक बहिष्कार के आह्नान ने कई लोगों को शांत रहने पर मजबूर कर दिया था। चुनाव बहिष्कार की पहल को व्यापक समर्थन जरूर मिला था लेकिन अगर 30 अप्रैल को चुनाव होते तो तब हालात क्या होते कहना मुश्किल है? फिलहाल चुनाव स्थगित होने की घोषणा ने सब आशंकाओं पर विराम लगा दिया।
रानीखेत को नगर पालिका बनाने की मांग को अंतिम परिणति में पहुंचाने के दावों के बीच चुनौती कम बढ़ी नहीं है क्योंकि लंबे समय तक चलने वाले आंदोलनों में रानीखेत का अनुभव कुछ अच्छा नहीं रहा है। नगर ने कई बार जिले व नगर पालिका के आंदोलनों को बीच में दम तोड़ते देखा है। हर बार राजनीतिक हित आड़े आते रहे हैं फिर वह चाहे कांग्रेस की सरकार रही हो या फिर भाजपा की। हां इस बार रानीखेत के पास एक अवसर है क्योंकि केंद्र व राज्य में भाजपा की सरकारे हैं और केंद्र में रक्षा राज्यमंत्री के पद पर अजय भट्ट है जिन्हें रानीखेत से ही
राजनीतिक पहचान मिली है।