जब पूरा देश 12 नवंबर को दीपावली का त्यौहार मना रहा था। उसी सुबह उत्तराखण्ड के उत्तरकाशी में चारधाम प्रोजेक्ट के तहत ब्रह्माखाल-यमुनोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग पर सिल्क्यारा से डंडालगांव के बीच निर्माणाधीन सुरंग का एक हिस्सा ढह गया जिसमें 40 मजदूर अंदर फंस गए हैं। हादसे को हुए अब तक 100 घंटे से भी अधिक हो चुके हैं लेकिन अभी तक इन मजदूरों को निकाला नहीं जा सका है। फिलहाल मजदूरों को सुरंग से सकुशल निकालने के लिए बचाव कार्य जारी है
देवभूमि कहे जाने वाले उत्तराखण्ड में आपदा या हादसे की खबर आना कोई नई बात नहीं है लेकिन इस बार की घटना से भविष्य में आने वाले खतरे की घंटी जरूर बस सकती है। 12 नवंबर की सुबह यमुनोत्री राजमार्ग में बन रही सुरंग में मलबा आ गया जिससे 40 मजदूर अंदर फंस गए। तब से इन लोगों को सुरक्षित बाहर निकालने की कोशिशें जारी हैं। लेकिन अभी तक सफलता हाथ नहीं लग पाई है। अंदर फंसे मजदूरों को निराश परिजनों की उम्मीद भी समय के साथ-साथ टूटती जा रही है। एक तरफ लोगों का सब्र का बांध टूट रहा है। वहीं दूसरी तरफ सवाल उठ रहे हैं कि आखिर बार-बार उत्तराखण्ड में इस तरह के हादसे क्यों हो रहे हैं? क्या यह पर्यावरण से छेड़छाड़ का नतीजा है या काम में लापरवाही का? ऐसे सवालों के जवाब न तो राज्य सरकार दे पा रही है न ही केंद्र में बैठी सरकार। इसी चुप्पी और अव्यवस्थाओं का नतीजा है आए दिन होते इस तरह के हादसे।
दरअसल, चार धाम वाली सड़क जो यमुनोत्री के लिए जा रही है वहां बद्रीनाथ, केदारनाथ, यमुनोत्री, गंगोत्री इन चारों को जोड़ा जा रहा था। उसी कार्य के लिए एक जगह जहां सुरंग का निर्माण चल रहा था, वहां दीपावली के दिन सुबह के शिफ्ट में जो लोग काम करने गए थे, उसी समय सुरंग में अचानक से मलबा आ गया। कहा जा रहा है कि उस सुरंग 40 लोग फंस गए। पिछले दो दिनों से उनको बाहर निकालने और सुरंग को साफ करने के प्रयास किए जा रहे हैं। लेकिन अभी तक उन 40 मजदूरों को सुरक्षित निकाला नहीं जा सका है। सुरंग का निर्माण करा रही एनएचआईडीसीएल के अनुसार टनल में फंसे हुए मजदूरों में दो उत्तराखण्ड, एक हिमाचल प्रदेश, चार बिहार, तीन पश्चिम बंगाल, आठ उत्तर प्रदेश, पांच उड़ीसा, दो असम और 15 झारखण्ड के हैं। टनल में फंसे मजदूरों को निकालने के लिए एनएचआईडीसीएल, एनडीआरएफ, एसडीआरएफ, आईटीबीपी, बीआरओ के लोग लगातार काम कर रहे हैं और अब हाई पावर आगर ड्रिलिंग मशीन से भी कोशिश की जा रही है।
इस हादसे पर पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि यहां जो हिमालय का क्षेत्र है वो बहुत ही कमजोर है और यहां लगातार इस तरह के हादसे होते रहे हैं। इसके बावजूद वहां की भौगोलिक स्थिति को बगैर ध्यान में रखे काम किए जा रहे हैं। जिसके लिए विस्फोटकों का इस्तेमाल होता है। इसलिए यहां हादसे होना स्वाभाविक माना जाता हैं।
दो साल पहले चमोली का हादसा हुआ और इस साल चार धाम यात्रा शुरू होने से पहले जोशीमठ में जमीन धंसने की घटनाओं के साथ ही उत्तराखण्ड के कई हिस्सों से लैंडस्लाइड की खबरें लगातार आ रही हैं। ऐसे में निर्माण कार्यों होना ही हादसों की मुख्य वजह माना जा रहा है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि पर्यावरण से लगातार छेड़छाड़ हो रही है और बड़ी मात्रा में हो रही है। जिन नियमों के तहत काम होना चाहिए उसको दरकिनार करके ये सब काम किया जा रहा है। इस चार धाम प्रोजेक्ट में पर्यावरण के मानकों का पालन न करना पड़े और पूरे प्रोजेक्ट में जो पर्यावरण पर प्रभाव का आकलन है, उसका अध्ययन न करना पड़े, इसके लिए सरकार तमाम जुगाड़ लगा रही है। इससे बचने के लिए पूरे चारधाम यात्रा प्रोजेक्ट को 53 भागों में बांट दिया गया। जबकि 825 किलोमीटर का यह एक ही प्रोजेक्ट है और उसको 53 छोटे-छोटे हिस्सों में बांटकर किया जा रहा है। ताकि पर्यावरण के मानकों का पालन न करना पड़े।
यह सब जगह हो रहा है। चाहे वह बड़ी जल विद्युत परियोजनाएं हों या रेलवे की कोई परियोजना बन रही हो। इन सब में भी इसी तरह काम हो रहा है। यहां पर भी पर्यावरण के मानकों का पालन नहीं किया जा रहा है। जमीन के नीचे यहां विस्फोट न हो इसके लिए सख्त मानक हैं। सुप्रीम कोर्ट के आदेश है कि निर्धारित मानकों के अनुसार ही कार्य हो। उसके बावजूद विस्फोटकों से सुरंगों का निर्माण होता है।
जब जोशीमठ में जमीन धंसी थी, उसके बाद ही सरकार ने कहा था कि अब सख्ती का पालन करने के निर्देश दिए गए हैं। तो क्या मानक है यहां पर? क्या सड़कों और सुरंगों के निर्माण में उन मानकों का पालन नहीं हो रहा है? ऐसे सवालों ने अब स्थानीय लोगों को परेशान कर दिया है। मानकों के अनुसार टनल बोरिंग मशीन का इस्तेमाल करते हुए सुरंगों का निर्माण किया जाना चाहिए। लेकिन ये बहुत खर्चीला पड़ता है। ऐसे में, विस्फोटकों का इस्तेमाल किया जाता है। इसमें भी कहा गया है कि कंट्रोल ब्लास्टिंग किया जाए। अब कंट्रोल ब्लास्टिंग का तो कोई मतलब ही नहीं बनता है।
उसमें धमाका होता है, जिससे वहां आस- पास के जो पत्थर और बोल्डर हैं वो हिलते हैं। वहां एक के ऊपर एक चट्टानें हैं। जब भी ब्लास्ट किया जाता है तो बाकी चट्टानों को हिला देते हैं। उससे पानी का रिसाव होने लगता है। अभी यहां रेलवे का प्रोजेक्ट चल रहा है वह अभी तक पूरा नहीं हुआ और उसमें जगह- जगह से गांव वाले शिकायत कर रहे हैं कि हमारे यहां जो जल स्रोत हैं वो सूखने लगे हैं। जमीन का पानी नीचे बैठने लगा है। दरारे पड़ने लगी हैं। जोशीमठ में जो हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट है एनटीपीसी का तपोवन विष्णुगढ़ प्रोजेक्ट, उसमें पिछले कई वर्षों से लगातार पानी निकल रहा है। यहां के पानी के स्रोतों पर इसका असर पड़ा। यह केवल जोशीमठ का, उत्तराखण्ड का, हिमाचल का मसला नहीं है। पूरे हिमालय क्षेत्र में जिस तरह पर्यावरण के मानकों की अनदेखी करके भारी निर्माण कार्य हो रहे हैं, वहां ऐसे हादसे देखने में आ रहे हैं।