वर्ष 1962 में भारत-चीन जंग के दौरान उत्तराखण्ड के उत्तरकाशी जिले में गंगा घाटी के उजड़े दो गांव फिर से आबाद होने का इंतजार कर रहे हैं। नेलांग और जादूंग जिन्हें उत्तराखण्ड का लद्दाख भी कहा जाता है, बीते 61 साल से वीरान हैं। यहां के लोग निचले इलाकों में शरणार्थी जैसा जीवन जीने को मजबूर हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पांच साल पहले जब यहां के लोगों को आश्वस्त किया तो लोगों में उम्मीद जगी। प्रधानमंत्री दफ्तर की ओर से हस्तक्षेप करने के बाद देहरादून स्थित सचिवालय में इसकी सरसराहट हुई। राज्य के मुख्य सचिव ने सीमांत इलाके का दौरा कर स्थानीय अधिकारियों के साथ इन गांवों से पलायन कर चुके लोगों को फिर से बसाने की योजना की समीक्षा की। यही नहीं बल्कि जल्द से जल्द लोगों को उनके गांव में बसाने के लिए कार्यक्रम बनाने के निर्देश दिए गए। पूर्व सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत ने भी हर्षिल में एक कार्यक्रम के दौरान नेलांग और जादूंग के लोगों को फिर से गांव में बसाने का आश्वासन दिया था। प्रधानमंत्री और पूर्व मुख्यमंत्री के वादों को लेकिन नौकरशाही ने गंभीरता से नहीं लिया। फलस्वरूप आज भी दोनों गांवों की स्थिति जस की तस बनी हुई है
देश के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह अपने कई भाषणों में इस बात पर जोर देते दिख जाते हैं कि सीमा पर बसे हुए लोग और गांव देश के लिए स्ट्रैटिजिक एसेट्स (सामरिक संपत्ति) हैं। हालांकि उन गांवों में मूलभूत सुविधाओं की कमी के चलते वहां लोग पलायन कर रहे हैं। पलायन एक बड़ी समस्या है क्योंकि पलायन होने से न केवल गांव खाली हो जाते हैं, बल्कि सेना को भी कई चुनौती का सामना करना पड़ता है। इन इलाकों में आबादी का होना काफी अहम है। स्थानीय लोग न केवल सीमा पार की गतिविधियों पर नजर रखते हैं बल्कि कई अहम जानकारियां भी सेना को मुहैया कराते हैं। 1999 में जब कारगिल युद्ध हुआ था तो स्थानीय गुज्जर लोगों ने ही पाकिस्तानी सेना और कश्मीरी उग्रवादियों के नियंत्रण रेखा पार करके भारतीय इलाके में घुसने की सूचना दी थी।
कभी भारत-तिब्बत सीमा पर बसे उत्तराखण्ड के दो गांवों के बाशिंदों को भी आज इसी नजरिए से देखा जा रहा है। 1962 के युद्ध के बाद भारत-तिब्बत सीमा सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हो गई है। 1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान उत्तरकाशी के दो गांवों नेलांग और जादूंग पूरी तरह उजड़ गए थे। अगर यहां के लोग फिर से अपने मूल गावों में बसाए जाएंगे तो निश्चित तौर पर ग्रामीण सीमा की निगरानी में सहयोगी साबित हो सकते हैं। भाजपा के स्थानीय विधायक सुरेश सिंह चौहान भी मानते हैं कि बॉर्डर पर गांव खाली होने से सेना को ही नुकसान होता है। एक तरह से ग्रामीण सेना के लिए खुफिया का काम करते हैं। वह तभी संभव है जब ये दोनों गांव आबाद होंगे। लेकिन शासन-प्रसाशन की काहिली का आलम यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत की गांवों को आबाद करने की घोषणा के कई साल बाद भी गांव आबाद करने का मामला सर्वे से आगे नहीं बढ़ सका है।
गांव के लोगों की माने तो छह दशक पहले इन गांवों की जमीन को सेना ने अपनी जरूरत के लिए अधिग्रहित कर लिया था। लेकिन इसका कोई मुआवजा उन्हें आज तक नहीं मिला। आज भी ग्रामीण अपने घर, मकान एवं खेतों के मुआवजे के लिए दर-दर भटक रहे हैं। दोनों गांवों के लोगों के दिन तब फिरे जब 6 नवंबर 2018 में देश के प्रधानमंत्री सेना के जवानों के साथ दीपावली मनाने हर्षिल पहुंचे थे। तब प्रधानमंत्री मोदी से रूबरू हुए यहां के ग्रामीणों ने उनके सामने अपनी इस समस्या को रखा। जहां उन्होंने दोनों गांवों को आबाद करने का वायदा किया था। बगोरी के तत्कालीन प्रधान भवान सिंह राणा ने पिछले साल 6 जनवरी को अपने इन दोनों गांवों के विस्थापन से जुड़ी समस्या के निराकरण के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर उन्हें गांवों को आबाद करने वाले वायदे की याद दिलाई।
इसके बाद 31 जनवरी 2022 को बकायदा पत्र लिखकर प्रधानमंत्री कार्यालय ने राज्य के मुख्य सचिव को इस पर कार्यवाही करने के निर्देश दिए थे। जिसके बाद 24 मार्च 2022 को उत्तरकाशी के जिला प्रशासन की ओर से पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों के साथ सेना, भारत-तिब्बत सीमा पुलिस और वन अधिकारियों के साथ मिलकर इन गांवों के लोगों को फिर से बसाने की मांग को लेकर कार्ययोजना तैयार की गई। उत्तरकाशी के तत्कालीन जिलाधिकारी मयूर दीक्षित ने प्रदेश के मुख्य सचिव को इन गांवों के लोगों के पुनर्वास से जुड़ी योजना की विस्तार से जानकारी दी। साथ ही उन्होंने यहां के लोगों को अपने मूल निवास पर भेजने के लिए सर्वे कराने के निर्देश दिए थे। तत्कालीन जिलाधिकारी के निर्देश पर अधिकारियों की टीम द्वारा बकायदा इन दोनों गांवों का सर्वेक्षण किया गया। सर्वे के लिए पहुंची टीम में 18 मूल निवासी भी शामिल थे। जादूंग गांव में पिछले साल 28 और 29 मार्च को सर्वेक्षण का कार्य पूरा कर लिया गया। जबकि नेलांग के लिए अधिकारियों की सर्वे टीम ने अप्रैल माह में स्थलीय निरीक्षण किया था।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ ही तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने भी दोनों गांवों को पुनः बहाल करने की बात कही थी। 24 अक्टूबर 2019 में उत्तरकाशी के स्थापना दिवस पर हर्षिल में हुए एक कार्यक्रम के दौरान उन्होंने कहा था कि उनकी सरकार नेलांग और जादूंग में फिर से ग्रामीणों को बसाएगी। वहां भवन निर्माण करने के लिए सरकार आर्थिक सहयोग भी करेगी। साथ ही यह भी घोषणा की थी कि नेलांग से 30 किलोमीटर आगे तक का क्षेत्र पर्यटकों के लिए खोला जाएगा। यही नहीं बल्कि मुख्यमंत्री ने लोगों से कहा कि नेलांग और जादूंग में ऐसी व्यवस्था की जाएगी कि पर्यटक ग्रामीणों के होम स्टे में भी ठहर सकेंगे। जिससे ग्रामीणों को आर्थिक लाभ प्राप्त होगा और वे पलायन नहीं करेंगे। लेकिन सरकारी स्तर पर पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत की यह घोषणा चार वर्षों बाद भी ठंडे बस्ते में पड़ी है।
उल्लेखनीय है कि आजादी से पूर्व भारत और तिब्बत के बीच व्यापार का एक मार्ग उत्तरकाशी जनपद की ओर से भी था। इस मार्ग पर उत्तरकाशी जनपद के सीमांत में नेलांग और जादूंग गांव आबाद थे। बताया जाता है कि 1962 से पहले नेलांग में लगभग 40 परिवार रहा करते थे जबकि जादूंग में लगभग 30 परिवार रहते थे। दोनों गावों की आबादी 2500 के करीब थी। जिनका मुख्य व्यवसाय भेड़पालन और खेतीबाड़ी करना था। यहां से निकले लोगों ने तब बगोरी और डुंडा गांव में अपने रिश्तेदारों के यहां शरण ली थी। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो आज भी खानाबदोश की जिंदगी जीने को मजबूर हैं। पिछले 61 सालों से इन दोनों गांवों के लोग अपने-अपने गांव में वापिस नहीं लौट पाए। क्यांकि बाद में सेना ने इन गांवों के इलाके को इनर लाइन के अंतर्गत घोषित कर दिया था।
नेलांग और जादूंग गांवों के लोगों की पैतृक संपत्ति आज भी वहीं है। हालांकि उनके घर तो अब देख-रेख के अभाव में खंडहर की स्थिति में आ चुके हैं। लेकिन वे जमीनें बंजर हालत में हैं जिस पर पूर्व में यहां के लोग खेती-बाड़ी करके जीवन- यापन करते थे। यह जमीन दोनों गांवों में है। बताया जा रहा है कि दोनों गांव के लोगों के स्थानीय देवता आज भी वहीं हैं। हर साल 2 मई को ग्रामीण अपने देवताओं की पूजा के लिए जाते हैं।
उत्तरकाशी जिले में गंगोत्री धाम जाते वक्त गंगोत्री धाम से कुछ पहले भैरव घाटी बैरियर से नेलांग और जादूंग को रास्ता जाता है। 1962 तक यह गांव भारत और तिब्बत के बीच में व्यापार का प्रमुख केंद्र थे लेकिन 1962 में भारत और चीन के बीच में युद्ध के बाद गांवों की तस्वीर ही बदल गई। यह रास्ता 1962 से पहले भारत-तिब्बत व्यापार का सिल्क रूट हुआ करता था, इस रास्ते तिब्बती अपने याकों पर हिमालयन नमक, जड़ी-बूटी ढोकर लाते थे और बदले में भारत से जरूरी राशन, कपड़े लेकर जाते थे। इस व्यापारिक मार्ग की महत्ता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि तिब्बती व्यापारियों की सुगम आवाजाही के लिए भैरों घाटी के समीप पहाड़ी के बीचों-बीच एक गली काटी गई जिसे गर्तांगली का नाम दिया गया। यह मार्ग साल्ट रूट था। भारत-चीन युद्ध के बाद यह व्यापार पूरी तरह से बंद हो गया।
59 साल बाद आई गरतांग गली में रौनक
दो साल पहले पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने भारत-तिब्बत व्यापार की गवाह रही गरतांग गली को पर्यटकों के लिए खुलवा कर नेलांग घाटी में रौनक ला दी। फिलहाल उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले की नेलांग घाटी में स्थित ऐतिहासिक गरतांग गली की सीढ़ियों का देश-दुनिया के पर्यटक दीदार करने लगे हैं। गरतांग गली की सीढ़ियों का पुनर्निर्माण कार्य जुलाई 2021 में पूरा किया जा चुका है। त्रिवेंद्र सिंह रावत इसे अपनी महत्वपूर्ण उपलब्धियों में गिनाते रहे है। पुनर्निर्माण होने के बाद गरतांग गली की लगभग 150 मीटर लंबी सीढ़ियां नए रंग-रूप में नजर आने लगी हैं। 11 हजार फीट की ऊंचाई पर बनी गरतांग गली की सीढ़ियां इंजीनियरिंग का नायाब नमूना हैं। 1962 में भारत-चीन युद्ध के बाद इस लकड़ी के सीढ़ीनुमा पुल को बंद कर दिया गया था। करीब 59 सालों बाद वह दोबारा पर्यटकों के लिए खोला गया है। इसके पुनर्निर्माण में 64 लाख का खर्चा आया है। गरतांग गली के खुलने के बाद स्थानीय लोगों और साहसिक पर्यटन से जुड़े लोगों को फायदा मिल रहा है। ट्रैकिंग के शौकीनों के लिए यह एक मुख्य केंद्र बन रहा है। बताया जाता है कि गरतांग गली तक पहुंचने के लिए पेशावर से आए पठानों ने 150 साल पहले एक पुल का निर्माण भी किया था। आजादी से पहले तिब्बत के साथ व्यापार के लिए उत्तरकाशी में नेलांग वैली होते हुए तिब्बत ट्रैक बनाया गया था। इसमें भैरों घाटी के नजदीक खड़ी चट्टान वाले हिस्से में लोहे की रॉड गाड़ कर और उसके ऊपर लकड़ी बिछाकर रास्ता तैयार किया गया था। इस पुल से नेलांग घाटी का रोमांचक दृश्य दिखाई देता है। यह क्षेत्र वनस्पति और वन्य जीवों के लिहाज से भी काफी समृद्ध है और यहां दुर्लभ पशु जैसे हिम तेंदुआ और ब्लू शीप यानी भरल रहते हैं। वर्ष 1962 में भारत-चीन युद्ध के बाद केंद्र सरकार ने उत्तरकाशी के इनर लाइन क्षेत्र में पर्यटकों की आवाजाही पर प्रतिबंध लगा दिया था। फिलहाल पर्यटकों को ईनर लाईन में जाने के परमिट जारी किये जाने लगे हैं। लेकिन दूसरी तरफ नेलांग और जादूंग के लोगों को एक निश्चित प्रक्रिया पूरी करने के बाद साल में एक ही बार पूजा-अर्चना के लिए इजाजत दी जाती है।
बात अपनी-अपनी
प्रधानमंत्री जी का उत्तराखण्ड पर विशेष फोकस है। वह देवभूमि के उत्थान के लिए विकास की नई इबारत लिख रहे है। नेलांग और जादूंग गांवों के मामले पर गंभीरता पूर्वक काम किया जाएगा। दोनों गांवों को आबाद कराया जाएगा। इस मामले पर वहां के डीएम से रिपोर्ट मांगी जाएगी। अब तक क्या-क्या हुआ है इसकी भी समीक्षा करायेंगे। वैसे भी हमारी सरकार वाइब्रेट विलेज को लेकर सजग है। वाइब्रेट विलेज के तहत सीमा पर फिर से लोग बसेंगे। इससे पलायन की समस्या का भी समाधान हो सकेगा। साथ ही स्थानीय लोगों का सेना को भी सहयोग मिलेगा।
पुष्कर सिंह धामी, मुख्यमंत्री
मोदी जी की ऐसी कई घोषणाएं और वादे है जो उत्तराखण्ड की धरती पर नहीं उतरे। जुमलेबाजी के लिए चर्चित हमारे पीएम साहब का नेलांग और जादूंग को आबाद कराने का मामला भी जुमला ही प्रतीत हो रहा है। इस पर अब तक सर्वे से आगे काम नहीं बढ़ा है। जिससे यह भी अंदाजा लगाया जा सकता है कि डबल इंजन की सरकार में एक इंजन की अनसुनी हो रही है। बॉर्डर एरिया पर भाजपा सरकार वाइब्रेट विलेज तो तब बनाएगी पहले इन दोनों गांवों को ही बसा ले, यह ही काफी है। बॉर्डर एरिया में एक सबसे बड़ी समस्या मोबाईल और इंटरनेट कनेक्टीविटी की भी है। टेक्नोलॉजी के इस युग में कनेक्टीविटी बहुत जरूरी है। लेकिन अभी भी बॉर्डर पर बसे लोग इससे महरूम है।
हरीश रावत, पूर्व मुख्यमंत्री
नेलंग और जादूंग दोनों गांवों के लोग मुझे देहरादून में मिले थे। एक बार में उन्हें बगोरी में भी मिला था। 2 घंटे गांव के लोगों के बीच मैं रहा। तब मैंने उत्तरकाशी के स्थापना दिवस के अवसर पर दोनों गांवों को आबाद कराने का वादा किया था। साथ ही मैंने कहा था कि उस इलाके के लिए अलग से स्कीम बनायेंगे। इस स्कीम में बॉर्डर एरिया में ही गांव के लोगों को रोजगार के साधन उपलब्ध कराने थे, जिससे वे पलायन करने को मजबूर न हों। इसके तहत मुख्य कार्य गांवों में होमस्टे बनवाना था। जहां टूरिस्ट रहे और ग्रामीणों को इसका लाभ मिले। हमने सीमांत के इन गांवों के लिए बॉर्डर एरिया स्कीम भी बनाई थी। जिसके लिए 20 करोड़ धनराशि का प्रावधान किया था। वर्ष 2021-22 के बजट में यह विकास कार्य होने थे। इसके अलावा हमने सीमांत के लोगों को आर्थिक तौर पर मजबूत करने के लिए कई योजनाओं को बनाया था। लेकिन फिलहाल वे योजनाएं चल रही हैं या नहीं यह देखना होगा। जब उत्तरकाशी के डीएम मयूर दीक्षित थे तब वह बॉर्डर एरिया के डेवलपमेंट और जादूंग और नेलांग गांवों को आबाद कराने के लिए सक्रिय भी रहे। तब प्रशासनिक स्तर पर गांवों का सर्वे भी हुआ था। सेना के साथ अगर सिविल्स रहते हैं तो बॉर्डर पर सुरक्षा के लिहाज से भी महत्वपूर्ण है, साथ ही सेना का भी मनोबल बढ़ता है। हमने वहां वर्ल्ड हेरीटेज साईट गरतांग गली, जहां से भारत-तिब्बत व्यापार होता था, को पुर्नर्जीवित किया और टूरिस्ट के लिये खोला था। वहां स्नो-लेपर्ड पार्क भी बनवाया। इसके बाद बॉर्डर तक टूरिस्टों के पहुंचने में बाधक इनर लाइन के भी परमिट बनाने शुरू किए थे। इसके बाद उस क्षेत्र में टूरिस्ट जाने लगे हैं। लेकिन अब नेलांग और जादूंग गांव के आबाद होने के मामले में क्या चल रहा है इसकी फिलहाल की जानकारी मुझे नहीं है। सरकार को इस पर गंभीरता से काम करना चाहिए। सामारिक महत्व से यह बहुत महत्वपूर्ण विषय है।
त्रिवेंद्र सिंह रावत, पूर्व मुख्यमंत्री
नेलांग और जादूंग को आबाद करने के मामले में सर्वे भी हो चुका है। हर्षिल में आए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी भी गांवों को आबाद करने की बात कह चुके हैं और पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने भी दोनों गावों को आबाद करने के प्रयास किए हैं। हालांकि यह कहना ठीक नहीं है कि इस मामले में कुछ नहीं हो रहा है, अभी भी कार्यवाही चल रही है। लेकिन कार्यवाही बहुत मंद गति से हो रही है। गांव वालां के जिन मकानों में आईटीबीपी के जवान रह रहे हैं उनका और जमीनों का मुआवजा आज तक गांव वालों को नहीं मिला है जोकि मिलना चाहिए। फिलहाल उन घरों को आबाद करके उनमें होम स्टे भी शुरू कराए जाने की योजना है। यहां पर्यटक भी आने लगेंगे। लेकिन अभी पर्यटकों को यहां जाने के लिए परमिट बनवाना पड़ता है। परमिट प्रणाली भी कैंसिल की जानी जरूरी है। इन गांवों को इनर लाइन से भी बाहर निकाला जाना जरुरी है तभी यहां टूरिस्ट ज्यादा आ सकेंगे और ग्रामीणों को आय के साधन प्राप्त होंगे। भैरो घाटी से आगे आने पर परमिट प्रणाली है। कोई भी व्यक्ति यहां तक पास बनवाकर ही पहुंच सकता है।
सुरेश सिंह चौहान, विधायक गंगोत्री
ऐसा नहीं है कि यहां कुछ नहीं हो रहा है। पिछले साल दोनों गांवों का सर्वे किया जा चुका है। जिसमें कई विभागों के अधिकारी गांवों का दौरा कर अपनी रिपोर्ट दे चुके है। कुछ दिन पहले भी टूरिज्म डिपार्टमेंट की एक टीम वहां गई थी। इनके साथ ही कई अन्य एक्सपर्ट भी थे। उनका भी सर्वे चल रहा है। वह जो रिकमंडेशन देंगे तो उसके बाद जो सरकार का डायरेक्शन होगा उसके अनुसार काम कराया जाएगा। इन गांवों का क्लाइमेंट ऐसा है कि गांवों को वहां एकदम से नहीं बसाया जा सकता है। कुछ लैंड का इश्यू भी वहां चल रहे है। गांव वालों की जमीन और उनके घरों में आर्मी में बंकर बने हुए है। सरकार उन बंकरों को हटाएगी या गांव वालों को उनकी जमीन और घरों का मुआवजा देनी इस पर भी निर्णय लिया जाना है। इसके बाद ही गांव आबाद करने की दिशा में कार्य हो सकेगा।
चतर सिंह चौहान, उप जिलाट्टिकारी, गंगोत्री
दोनों गांवों का मामला सामरिक दृष्टि से बहुत ही महत्व वाला है। जब प्रधानमंत्री और पूर्व मुख्यमंत्री भी इन गांवों को आबाद कराने का वायदा कर चुके है तो उसको पूरा कराना चाहिए। क्योंकि अब तो वैसे भी डबल इंजन की सरकार है। इस सरकार में भी वादे पूरे नहीं होंगे तो फिर कब होंगे। ये दोनों गांव भोटिया और एससीएसटी जनजाति के लोगों के है। यह वैसे भी सेंचुरी के बीच में है। यहां पर्यावरण मंत्रालय के साथ ही रक्षा मंत्रालय और वन मंत्रालय की मंजूरी भी जरूरी है। इन सभी विभागों को सर्वे करना चाहिए। लेकिन अभी एक दो विभाग ही इस औपचरिकता को पुरा कर पाया है।
विजयपाल सिंह सजवाण, पूर्व विधायक गंगोत्री
नेलांग और जादूंग में ग्रामीणों की पैतृक भूमि है, लेकिन आज तक ग्रामीणों को अपनी भूमि का प्रतिकर नहीं मिला है। न ही गांव का विस्थापन हुआ। विस्थापन के लिए ग्रामीण आज भी केंद्र और राज्य सरकार से मदद की गुहार लगा रहे हैं। ग्रामीणों को प्रतिवर्ष अपने गांव में अपने आराध्य देव की पूजा-अर्चना करने के लिए जिला प्रशासन की अनुमति लेकर जाना पड़ता है। यह हमारा सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। अपने मूल गावों में पुनः बसने की इस कवायद का हम पिछले साठ साल से इंतजार कर रहे हैं। हमने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पिछले साल जनवरी माह में फिर से गांव में बसाने की मांग को लेकर पत्र लिखा था। पूर्व जिलाधिकारी मयूर दीक्षित ने इस संबंध में जरूर सक्रियता दिखाई थी। उन्होंने अधिकारियों के साथ कई मीटिंग की थी। उनकी बदौलत ही गांवों का सर्वे भी हो सका। लेकिन इसके बाद आए नए जिलाधिकारी अभिषेक रोहेला ने इस बाबत कोई दिलचस्पी नहीं ली है। उनसे कई बार गांवों को आबाद कराने की मांग की गई साथ ही उन्हें प्रधानमंत्री कार्यालय से इस बाबत आए पत्र और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ ही पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के वायदे भी याद दिलाए गए है। हमारे गांव से कुछ दूर पर ही गरतांग गली भी ऐसे ही प्रतिबंधित बॉर्डर एरिया था। जिसे सन् 1962 की लड़ाई के बाद बंद कर दिया गया था। लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने गरतांग गली का न केवल जिर्णोद्वार कराया बल्कि उसे पर्यटकों के लिए भी खोल दिया है। इससे हमारे गांवों को भी आबाद होने का रास्ता खुल गया है। एक बार मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के दरबार में भी हम जा चुके है लेकिन वहां भी गांवों को आबाद करने की मांग को गंभीरता से नहीं लिया गया।
भवान सिंह राणा, पूर्व प्रधान बगोरी