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Uttarakhand

प्लास्टिक मुक्त देवभूमि का सच

उत्तराखण्ड में जल, जंगल, जमीन, ग्लेशियर, नदियों और पलायन जैसे मुद्दों पर तो चिंता जताई जाती है। लेकिन कभी पर्वतीय दृष्टिकोण से प्लास्टिक प्रदूषण की चुनौती पर अध्ययन नहीं किया गया। हालांकि प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाने के बार-बार नियम जरूर बना दिए जाते हैं। सबसे पहले राज्य सरकार ने 2013 में प्लास्टिक के प्रयोग और उसके निपटारे के लिए नियमावली बनाई थी। उन नियमों का पालन नहीं किया गया। अब एक बार फिर सरकारी निर्देश पर एक जुलाई से पूरे उत्तराखण्ड में प्लास्टिक मुक्त अभियान की शुरुआत की गई। लेकिन अभी भी देखने में आ रहा है कि इस नियम का पूरी तरह से पालन नहीं हो रहा है

 

इन दिनों उत्तराखण्ड में सिंगल यूज प्लास्टिक पर बैन है। सख्ती से इसका पालन भी हो रहा है तो दूसरी तरफ राज्य सरकार सिंगल यूज प्लास्टिक का विकल्प तैयार करने वाले उद्यमियों को प्रोत्साहन करने की बात भी कर रही है। इसके लिए बकायदा उद्योग विभाग को नई नीति तैयार करने की जिम्मेदारी दी गई है। इसका मुख्य उद्देश्य प्रदेश में प्लास्टिक का विकल्प तैयार करना बताया जा रहा है। सरकार का कहना है कि प्लास्टिक के बदले रामबांस, कपास हैम्प, लिनेन, जूट, कॉयर फाइबर, रैमे, अबाका आदि उत्पादों को बढ़ावा दिया जाएगा। इससे रस्सी, सुतली, वस्त्र, थैले, चटाई, बोरी, ब्रश, टी बैग आदि तैयार किए जाएंगे। देवभूमि को प्लास्टिक मुक्त किया जा सके इसके लिए सख्ती अपनाई गई है। प्रदेश में पॉलीथीन कैरी बैग, प्लास्टिक एवं थर्माकोल से बने सिंगल यूज उत्पादों में 200 से 500 रुपए के जुर्माने का प्रावधान भी किया गया है। पर्यावरणविदों के साथ ही आम आदमी भी सिंगल यूज प्लास्टिक वैन को जरूरी कदम मानते हैं लेकिन वहीं दूसरी तरफ कई कंपनियां जिनके व्यापार में सिंगल यूज प्लास्टिक का इस्तेमाल होता है, उनकी दिक्कतें कम नहीं हैं। इस तरह की कई कंपनियां बंद होने के कगार पर हैं तो वहीं कई लोगों के बेरोजगार होने की संभावना भी बढ़ी है।

इसके इतर उत्तराखण्ड जैसे संवेदनशील पहाड़ी राज्य में तेजी से प्लास्टिक अपशिष्ट फैल रहा है। यहां धार्मिक स्थलों, संस्थानों, सिनेमाघरों, होटल, माल, रेस्तरां, कैफे, मोबाइल फूड काउंटर, वैन कैटर्स, ऑफिस, आउट इवेंट में इसका काफी मात्रा में उपयोग होता रहा है। प्लास्टिक के बोतल, थर्माकोल के पत्तल, गिलास से नालियां व सीवरेज सिस्टम पटे रहते हैं जो इस सिस्टम को प्रभावित भी कर रहे हैं। जर्नल फॉर नेचर कंजर्वेशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक अभी हाल में उत्तराखण्ड के जंगलों में हाथी के लीद में प्लास्टिक के अंश मिले थे। इससे पूर्व इंसानों व कई समुद्री जीवों के शरीर में इसके अंश मिलने की पुष्टि हो चुकी है। माइक्रो प्लास्टिक को लेकर अभी हाल में द एम्सटर्डम यूनिवर्सिटी मेडिकल सेंटर के शोधकर्ताओं ने मानव शरीर के खून में प्लास्टिक के कण मौजूद होने का दावा किया है। विशेषज्ञ कहते हैं कि प्लास्टिक के रंग, पिंगमेंट एवं प्लास्टिक में लिपटे खाद्य पदार्थ मानव स्वास्थ्य के लिए बेहद हानिकारक होते हैं। यही नहीं प्लास्टिक अपशिष्ट एवं माइक्रो प्लास्टिक जैव विविधता के लिए बड़ा खतरा बनता जा रहा है। अभी प्रदेश में कई टन प्लास्टिक कूड़ा खुले में जलाया जा रहा है।जिससे यहां की आबोहवा भी प्रभावित हो रही है।

हिमालयी क्षेत्रों में प्लास्टिक और कूड़े के अंबार पर वैज्ञानिक समय-समय पर चिंता जताते रहे हैं। इनका मानना है कि कूड़े के ढेर हिमालयी पर्यावरण के लिए बड़ा खतरा है। ठोस अपशिष्ट का सही प्रबंधन न होने से कचरा जलाया जाता है जो कार्बन उत्सर्जन करता है। जिससे हिमालय की इकोलॉजी व यहां की वनस्पतियां व जीव जंतुओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। अभी नीदरलैंड इंस्टीट्यूट फॉर रिसर्च के शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में बताया 10 टन प्रति घंटे मीथेन का उत्सर्जन
अर्जेटीना, भारत व पाकिस्तान के मात्र चार लैंडफिल अकेले करते हैं। अपशिष्ट प्रबंधन के निस्तारण में सुप्रीम कोर्ट व एनजीटी के निर्देशों का खुले आम उल्लंघन होता रहा है। अगर देखा जाए तो देवभूमि ही नहीं पूरे विश्व में प्लास्टिक कचरा आज एक बड़ा मुद्दा बन चुका है। पूरी धरती में कोई जगह ऐसी नहीं बची है जहां
प्लास्टिक की मौजूदगी न हो। प्लास्टिक आज पूरे फूड सिस्टम का अहम हिस्सा बन चुका है। यह माना जा रहा है कि दुनियाभर की नदियां प्लास्टिक कचरे को सागर तक फेंक रही है और पूरा सागर लगातार कचरे से पट रहा है।

आज पूरी दुनिया में 300 मिलियन यानी 30 करोड़ टन प्लास्टिक का उत्पादन हो रहा है। हर साल 1 करोड़ टन प्लास्टिक कूड़ा समुद्र में फेंका जा रहा है, जो समुद्री जीवों के पैट में समा रहा है। यह निरंतर समुद्री जीवों की बलि ले रहा है। यह भूमि व महासागर में फैलकर उन्हें प्रदूषित कर रहा है। मानव स्वास्थ्य को भी प्रभावित कर रहा है। प्लास्टिक की आदत हमारे जीवनशैली में समाहित हो गई है। प्लास्टिक दो तरह का होता है। पहला पॉलीथीन व दूसरा बहुलक। दो तरह के पॉलीथीन प्लास्टिक भी होते हैं। उच्च घनत्व पॉलीथीन व कम घनत्व पॉलीथीन। उच्च घनत्व पॉलीथीन का उपयोग फर्नीचर बनाने के काम आता है जो कम घनत्व पॉलीथीन दूध के पैकेट, थैली आदि के रूप में प्रयोग में आती है।

प्लास्टिक के वस्तुओं के बढ़ते उपयोग के कारण ही प्लास्टिक प्रदूषण जैसी गंभीर समस्या उत्पन्न हो रही है। यह जल व भूमि में विघटित नहीं होता। यह वातावरण में सैकड़ों वर्षों तक बना रहता है। यह भूमि, जल और वायु प्रदूषण का बड़ा कारण है। प्लास्टिक से उत्पन्न कचरा पानी के स्रोतों, नदियों, समुद्रों, महासागरों को बुरे तरीके से प्रभावित करता है। प्लास्टिक के निर्माण में जीवाश्म ईंधनों जैसे तेल, पेट्रोलियम आदि का उपयोग किया जाता है। जीव-जंतु भोजन समझकर इसे खाते हैं जिससे उनके स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। प्लास्टिक हमारे पर्यावरण के लिए लगातार खतरा बनता जा रहा है। इसका असर मानव स्वास्थ्य के साथ ही पानी की प्रणालियों, समुद्री संसाधनों व जैव विविधता पर भी पड़ रहा है।

प्लास्टिक का कचरा जलाने की कमजोर व्यवस्था के कारण मानव स्वास्थ्य व पर्यावरण के लिए बहुत खतरे पैदा होते हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार अकेले इसी वर्ष प्लास्टिक के उत्पादन और उसे जलाने से 85 करोड़ टन से अधिक ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन वातावरण में हुआ जो वर्ष 2050 तक 2 अरब 80 करोड़ टन पहुंच सकता है। भारत में जहां प्लास्टिक का इस्तेमाल बढ़ रहा है वहीं अधिकतर शहरों और कस्बों से कचरे के निपटान की कोई ठोस संभावित व्यवस्था नहीं है। प्लास्टिक कचरा एक बड़ी चुनौती बनकर उभरा है। प्लास्टिक का पुनर्चक्रण इसका बेहतर विकल्प है। पहले प्लास्टिक को एकत्र किया जाता है फिर इसे रिसाइक्लिंग सेंटर ले जाते हैं। वहां इसे पिघलाया जाता है फिर इसे इस्तेमाल योग्य बनाया जाता है।

यह जल व भूमि को ही विघटित नहीं करता, यह वातावरण में सैकड़ों वर्षों तक बना रहता है। प्लास्टिक के निर्माण में जीवाश्म ईंधनों जैसे तेल, पेट्रोलियम आदि का उपयोग किया जाता हैं जीव-जंतु भोजन समझकर इसे खाते हैं जिससे उनके स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ता है इसका असर पानी की प्रणालियों, समुद्री संसाधनों व जैव विविधता पर भी पड़ रहा है। वहीं अधिकतर शहरों में व कस्बों से कचरे के निपटान की कोई ठोस सुविधा नहीं है। अपशिष्ट का सर्वाधिक प्रभाव पारिस्थितिकी तंत्र और मनुष्य के स्वास्थ्य पर पड़ता है। यदि अपशिष्ट का उचित प्रबंध न किया जाए तो यह समुद्री और तटीय क्षेत्रों के पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। इससे यहां की उत्पादकता पर प्रभाव पड़ता है।

इससे कई समुद्री प्रजातियों का जीवन प्रभावित होता है। यह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष दोनों रूपों में व्यक्ति के स्वास्थ्य व कल्याण को कई तरह से प्रभावित करता है। मीथेन जैसी गैस जलवायु परिवर्तन में योगदान देती है। जल स्रोत दूषित हो जाते हैं। इससे समाज पर आर्थिक बोझ भी पड़ता है। अपशिष्ट प्रबंधन में काफी धन खर्च होता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार भारत ठोस अपशिष्ट प्रबंधन में सुधार करके 22 प्रकार की बीमारियों को नियंत्रित कर सकता है। अपशिष्ट पदार्थों के एकत्रित होने से पर्यावरण तथा मानव स्वास्थ्य पर अत्यधिक हानिकारक प्रभाव पड़ता है। अपशिष्ट पदार्थ एकत्रित होने से भू-प्रदूषण के अतिरिक्त जल और वायु प्रदूषण में वृद्धि होती है। एकत्रित अपशिष्ट पदार्थ प्रदूषण के अतिरिक्त अनेक रोगों का कारण बनते हैं।

जीवों का स्वास्थ्य स्वस्थ एवं स्वच्छ पर्यावरण पर निर्भर करता है। अपशिष्ट कई प्रकार के रोगों का स्रोत बनता है। जिन अपशिष्टों विशेषकर मल और घरों से निकलने वाले तरल एवं ठोस अपशिष्टों का समुचित प्रबंधन नहीं किया जाता है, उन अपशिष्टों से स्वास्थ्य को गंभीर खतरा होता है और संक्रामक रोग फैल सकते हैं। स्वास्थ्य बिगड़ने में जलाना एवं गलत तरीके से रिसाइकल किया जाने वाला प्लास्टिक अपशिष्ट भी है। जल निकायों में डाल दिए जाने वाले अपशिष्ट पानी में मौजूद सभी जीवों को प्रभावित करते हैं।

नीति आयोग के अनुसार शहरी क्षेत्रों में रहने वाले 377 मिलियन निवासियों के कारण 1,70,000 टन ठोस अपशिष्ट पैदा होता है। ऐसा नहीं है कि सरकार इसके लिए प्रयास नहीं कर रही है। भारत सरकार ने ‘स्वच्छ भारत अभियान’ एवं स्मार्ट सिटी मिशन शुरू किया हुआ है। नीति आयोग ने नगरपालिका के ठोस अपशिष्ट प्रबंधन की समस्या से निपटने के लिए व्यापक ढांचा भी तैयार किया है। वहीं सरकार का लक्ष्य है कि नगरपालिकाओं के लिए अपशिष्ट पदार्थ से ऊर्जा तैयार की जाए व छोटे कस्बों में अपशिष्ट का निपटान कर इससे खाद तैयार करने की तैयारी है। मनुष्यों और पर्यावरण पर जहरीले कचरे के प्रभाव को कम करने का सबसे अच्छा तरीका इसके उत्पादन को खत्म करना है। आज ई कचरा भी एक बड़ी समस्या बनकर उभरा है। इसके अंतर्गत खराब कम्प्यूटर, मोबाइल फोन, चार्जर, सीडी, बैटरी व अन्य इलेक्ट्रानिक उपकरण जैसे टीवी, वाशिंग मशीन, फ्रिज आदि आते हैं इनका भी ढेर लग रहा है।

इसके प्रबंधन का उचित उपाय न होने से पर्यावरण को खतरा पहुंच रहा है। कचरे को खत्म करना या रिसाइकल करना आवश्यक है ताकि उपयोग की एक नई संभावना को प्राप्त किया जा सके। ग्लोबल वार्मिंग मनुष्यों की गलतियों का परिणाम है तो इसे सुधारने की जिम्मेदारी भी उन्हीं की होती है। रिसाइकलिंग एक सामाजिक जिम्मेदारी है और पर्यावरण संरक्षण में सहायक है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की मानें तो भारत ठोस अपशिष्ट प्रबंधन में सुधार करके 22 प्रकार की बीमारियों को नियंत्रित कर सकता है। जीवधारियों का स्वास्थ्य स्वस्थ एवं स्वच्छ पर्यावरण पर निर्भर करता है। इसलिए जरूरी है कि इस पर स्वयं जागरूक हों और समुदाय को सामूहिक भागीदारी के लिए भी तैयार किया जाए। अब देखना होगा कि देवभूमि उत्तराखण्ड को प्लास्टिक मुक्त करने की मुहिम कितनी कारगर होती है।

खरीदो और फेंको, यह हमारी आज की उपभोक्ता संस्कृति है, जो न सिर्फ अपशिष्ट का ढेर बढ़ा रही है बल्कि पर्यावरण में जहर भी घोल रही है। इस पर नियंत्रण तभी पाया जा सकता है जब घर से लेकर सरकारों तक इस पर बेहतर काम हो। आज सभी प्रकार के अपशिष्ट पदार्थों का सही व सुचारू प्रबंधन एक बड़ी चुनौती बन गया है। जीवनशैली के चलते औद्योगिक उत्पादन में तेजी आई है जिसने अपशिष्ट के ढेर के ढेर खड़े कर दिए हैं। अपशिष्ट की मात्रा साल-दर-साल बढ़ रही है। प्लास्टिक व पैकेजिंग सामग्री में बढ़ोतरी हो रही है लेकिन उस अनुरूप इकट्ठा हो रहे अपशिष्ट का निपटान नहीं हो पा रहा है। शहरीकरण, औद्योगीकरण एवं जनसंख्या विस्फोट ने इस समस्या को और विकराल कर दिया है। सरकारों व नगर निकायों के लिए यह बड़ी चुनौती बन गया है। आज अनुपयोगी सामान को रिसाइकल करके पृथ्वी को बचाना जरूरी हो गया है। यह तब संभव है जब अनुपयोगी सामान को बर्बाद नहीं किया जाए। पुनर्नवीनीकरण या रिसाइकल की प्रक्रिया को तेज किया जाए। हर साल कई मिलियन प्लास्टिक पैकिंग कचरे में जाती है। इसका पुनर्चक्रण हो सकता है। अगर हम ऐसा करते हैं तो हम कहीं न कहीं संसाधनों को बचा सकते हैं। अगर पृथ्वी पर कचरा कम होता है तो इससे जल व वायु प्रदूषण को कम करने में भी मदद मिलेगी।
राजेश शुक्ला, निदेशक, निबोध संस्था

 

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