उत्तराखण्ड में गत् दिनों सम्पन्न हुए स्थानीय निकाय चुनाव ने राज्य के निर्वाचन आयोग को कठघरे में खड़ा कर दिया है। एक वर्ष से अधिक देरी बाद कराए गए इन चुनावों में मतदाता सूची को सही तरीके से तैयार कर पाने में राज्य निर्वाचन आयोग पूरी तरह नकारा साबित हुआ है। हालात इतने विकट कि प्रदेश के दो पूर्व मुख्यमंत्रियों समेत हजारों नागरिकों के नाम ही मतदाता सूची से गायब होने चलते ये लोग मतदान नहीं कर पाए। गौरतलब है कि निर्वाचन आयोग राज्य की मशीनरी के सहारे ही मतदाता सूची तैयार और अपडेट करता है। ऐसे में शोक बहराइची का शेर राज्य की नौकरशाही और चुनाव आयोग पर सटीक बैठता है कि- ‘बर्बाद गुलिस्तां करने को सिर्फ एक ही उल्लू काफी था हर शाख पे उल्लू बैठा है अंजाम-ए-गुलिस्तां क्या होगा’
आखिरकार लम्बी देरी के बाद उत्तराखण्ड में स्थानीय निकाय चुनाव सम्पन्न हो ही गए और राज्य में छोटी सरकार का गठन पूरा हो गया। 11 नगर निगमों 46 नगर पालिका परिषदों और 43 नगर पंचायतों में मतदाताओं ने अपने-अपने पसंद के 100 अध्यक्षों, 1282 सभासदों एवं सदस्यों को वोट देकर चुनाव में विजयी बना स्थानीय निकायों का पांच वर्ष के लिए अधिकृत कर दिया है। राज्य निर्वाचन आयोग के द्वारा जारी किए गए मतदान के आंकडों के अनुसार 65.03 प्रतिशत मतदान हुआ है। इसको लेकर निर्वाचन आयोग अपनी पीठ थपथपा रहा है जबकि राज्य की कुल आबादी में से महज 30 लाख 26 हजार मतदाताआंे वाले निकाय चुनाव करवाने पर निर्वाचन आयोग पूरी तरह से नाकाम ही रहा है।
एक वर्ष से ज्यादा समय मिलने के बावजूद निर्वाचन आयोग अपना काम पूरी तरह से नहीं कर पाया और हजारों लोगों को मतदान से महरूम होना पड़ा है। हैरत की बात यह है कि देहरादून जैसे नगर जहां सरकार के साथ-साथ शासन-प्रशासन और निर्वाचन आयोग का जमावड़ा लगा रहता है उसी नगर में हजारों लोगों के नाम वोटर लिस्ट से या तो काट दिए गए या उनके नाम ही बदल दिए गए जिसके चलते मतदाताओं के एक बड़े वर्ग को अपने मताधिकार से वंचित रहना पड़ा।
गौर करने वाली बात यह है कि हर पंाच वर्ष में राज्य निर्वाचन आयोग नई मतदाता सूची तैयार करता है जो इस चुुनाव में भी की गई थी। इस नई सूची में पांच लाख नए मतदाता जुड़े जबकि इसके विपरीत हजारों लोगों के नाम छोड़ दिए गए जिसके चलते हर कोई निर्वाचन आयोग पर गम्भीर सवाल खड़े कर रहा है। राज्यांे में लोकसभा, विधानसभा, स्थानीय निकायों की अलग-अलग सूची होती है जिसमें लोकसभा और विधानसभा की मतदाता सूची को भारतीय निर्वाचन आयोग हर वर्ष अपडेट करता है जबकि राज्य निर्वाचन आयोग नगर निगम, नगर पालिका और नगर पंचायतों की मतदाता सूची को तैयार करता है। इसे हर पांच वर्ष में नए सिरे से तैयार किया जाता है। इसी सूची के अनुसार बात करें तो वर्ष 2018 में स्थानीय निकायों में 25 लाख मतदाता थे जो कि इस वर्ष बढ़कर 30 लाख तक पहुंच गए। नियमानुसार अब अगले पांच वर्ष के बाद नई मतदाता सूची बनाई जाएगी।
चुनाव मंे हजारों लोगों को अपने मताधिकार से वंचित रह जाने का एक बड़ा कारण राज्य निर्वाचन आयोग की कार्य प्रणाली रही है जिसके कारण हर बार नाम न होने का मामला सामने आता ही रहता है। जहां भारतीय निर्वाचन आयोग मतदान बूथ के हिसाब से अपने बीएलओ द्वारा मतदाता सूची को अपडेट करता या बनाता है तो वहीं राज्य निर्वाचन आयोग निकायांे के वार्डों के हिसाब से अपने बीएलओ द्वारा मतदाता सूची को बनाता है या अपडेट करता है। इसी व्यवस्था के पैटर्न से ही हर चुनाव में मतदाताआंे के नाम कटने या उनके नामों में बदलाव होने के मामले होते हैं। इसके अलावा राज्य निर्वाचन आयोग भारतीय निर्वाचन आयोग द्वारा अपडेट मतदाता सूची को भी अपने काम में नहीं लेता जिसके कारण विवाद होते हैं। इस बार भी हमेशा की ही तरह राज्य निर्वाचन आयोग द्वारा वही किया गया जिसके चलते पांच लाख नए मतदाता बढ़ने के बावजूद हजारों मतदाताओं को वोट देने से वंचित रहना पड़ा।
राजनीतिक जानकारों के साथ-साथ राजनीतिक लोगों का भी साफ- साफ मानना है कि राज्य निर्वाचन आयोग को स्थानीय निकाय चुनाव सम्पन्न करवाने के लिए एक वर्ष का अतिरिक्त समय भी मिला था लेकिन उसने अपने इस अवसर को भी अपनी कार्यशैली के चलते खोने का काम किया। उल्लेखनीय है कि राज्य में स्थानीय निकाय चुनाव वर्ष 2023 में होने थे लेकिन अनेक कतिपय कारणांे के जिसमें ओबीसी आरक्षण भी मुख्य कारण था जिसके चलते चुनाव टलते रहे। मामला हाईकोर्ट की दहलीज तक पहुंचा और हाईकोर्ट की फटकार के बाद स्थानीय निकाय चुनाव की घोषणा हुई, बावजूद इसके राज्य निर्वाचन आयोग जो कि हर समय यह दावा करता रहा है कि वह कभी भी स्थानीय निकाय चुनाव करवाने के लिए तैयार है।
23 जनवरी को निकाय चुनाव के लिए मतदान किया गया जिसमें हैरतंगेज तौर पर अनेक गणमान्य लोगों के नाम तक वोटर लिस्ट से गायब थे और अनेक मतदाताओं के नाम में बड़ा फेरबदल कर दिया गया था। मतदाता के नाम के स्थान पर पिता का नाम, पिता के नाम के स्थान पर किसी अन्य का नाम यहां तक कि मतदाता के भवन के नाम को ही मतदाता के नाम पर दर्ज कर दिया गया। पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी का नाम भी काट दिया गया और पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत का नाम दूसरे क्षेत्र में कर दिया गया।
मतदान के दिन सुबह हरीश रावत अपने माजरा स्थित मतदान केंद्र में वोट देन गए लेकिन उनका और उनके परिवार के किसी भी व्यक्ति का नाम वोटर लिस्ट में नहीं था। उन्होंने इसकी शिकायत राज्य निर्वाचन आयोग में की तो वहां से रावत को कहा गया कि अभी सर्वर डाउन है। शाम तक हरीश रावत को कोई जानकारी नहीं मिल पाई तो वे हरिद्वार के लिए निकल गए। इसी बीच जिलाधिकारी कार्यालय से हरीश रावत और उनके परिजनों का नाम वार्ड 58 डिफेंस कॉलोनी के मतदान बूथ पर सूची में होने की जानकारी सार्वजनिक की गई। लेकिन तब तक हरीश रावत हरिद्वार निकल चुके थे और वे अपना वोट नहीं डाल पाए।
पूर्व मुख्यमंत्री और पूर्व राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी भी अपना वोट राज्य निर्वाचन आयोग की नाकामी के चलते नहीं दे पाए। कोश्यारी अपना वोट देने के लिए दो दिन पूर्व ही पिथौरागढ़ आए और पनलोट वार्ड के पोलिंग बूथ में वे अपना वोट देने के लिए गए लेकिन वहां मतदाता सूची में भगत सिंह कोश्यारी का नाम ही गलत दर्ज किया हुआ था जिसके चलते वे अपना वोट तक नहीं दे पाए।
अब सवाल उठता है कि कैसे राज्य के दो-दो पूर्व मुख्यमंत्रियों के नाम वोटर लिस्ट में मनमाने तरीके से बदल दिए जाते हैं? हरीश रावत शुरू से ही माजरा में ही वोट देते रहे हैं तो किस आधार पर बीएलओ द्वारा उनका वार्ड और बूथ बदल दिया गया जिसकी सूचना तक हरीश रावत को नहीं दी गई। पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी का नाम मतदाता सूची में गलत दर्ज कर दिया गया जिसकी पूरी जिम्मेदारी बीएलओ की ही है। इससे साफ है कि राज्य निर्वाचन आयोग के कर्मचारियों की नाकामी के चलते ही मतदाता सूचियों में भारी गड़बड़ियां हुई हैं।
इसी तरह से कांग्रेस की मुख्य प्रवक्ता गरिमा माहरा दसौनी और उनके परिवार का नाम भी गायब कर दिया गया। टिहरी में जिला जज, एसडीएम जो स्वयं रिटर्निंग अधिकारी, कम्युनिस्ट पार्टी के जिला सचिव जय प्रकाश पाण्डे और पत्रकार जोत सिंह का नाम गायब था। देहरादून में तो सबसे ज्यादा विवाद सामने आया। यहां नाम ही परिवर्तित नहीं किया गया बल्कि लिंग तक बदल दिया गया। महिला को पुरुष और पुरुष को महिला दर्ज किया गया। पीपुल फोरम के अध्यक्ष जयकृत कंडवाल का नाम बदल दिया गया और उनके पिता के नाम के स्थान पर उनकी पत्नी का नाम दर्ज किया हुआ था। जबकि उनकी पत्नी का नाम सही था और पति के नाम पर जयकृत कंडवाल लिखा हुआ था। अपने सभी प्रमाण पत्र देने के बावजूद कंडवाल को वोट नहीं डालने दिया गया और वे बगैर वोट डाले ही वापस आए।
सबसे दिलचस्प मामला तो नगर निगम देहरादून के बसंत बिहार के बूथ नम्बर 260 का सामने आया जिसमें मतदाता के नाम की जगह उनके मकान का नाम दर्ज कर दिया गया। मतदाता सुशील चंद्र ने इस मामले को सोशल मीडिया में पोस्ट करके लिखा है कि वे जब अपना वोट देने गए तो मतदाता रजिस्टर में उनके नाम की जगह उनके मकान हर्ष निकेतन दर्ज किया हुआ था। जबकि हर्ष निकेतन के पिता के नाम के स्थान पर सुशील चंद्र अंकित किया हुआ था। यही नहीं सुशील चंद्र के पूरे परिवार का नाम भी वोटर लिस्ट से गायब किया हुआ था।
फर्जी वोटरों का नाम मतदाता सूची में दर्ज किए जाने का सबसे बड़ा उदाहरण उत्तरकाशी जिले के बड़कोट नगर पालिका में देखने को मिला। बड़कोट नगर पालिका की कुल आबदी 10 हजार के करीब है और वोटरों की संख्या 11 हजार पहुंच चुकी है। स्थानीय लोगों का कहना है कि 2013 में फर्जी तरीके से नगर पालिका के आस-पास के गांवों के करीब 250 लोगों के नाम नगर पालिका में दर्ज करवाए गए थे जो इस चुनाव में बहुत ज्यादा देखे गए हैं। आस-पास के ग्रामीण क्षेत्रांे के सैकड़ों लोगों का नाम बड़कोट नगर पालिका में स्थानीय राजनीतिक दबाव चलते जोड़ दिए गए जिस कारण बड़े पैमाने पर फर्जी वोट डाले गए। आरोप है कि इस तरह से सैकड़ों फर्जी वोट बीएलओ द्वारा दर्ज करवाए गए। हैरानी की बात यह है कि भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता मनवीर सिंह चौहान ने तक यही आरोप लगाते हुए अपना वीडियो पोस्ट किया, जिसमें उनका दावा है कि निदर्लीय विधायक संजय डोभाल द्वारा अपने भाई को चुनाव जितवाने के लिए फर्जी वोटर दर्ज करवाए गए। सवाल यह है कि अगर कोई निदर्लीय विधायक इस तरह से सैकड़ों लोगों के फर्जी वोट दर्ज करवा सकता है तो सत्ताधारी विधायक कितने फर्जी वोट दर्ज करवा सकता है? यह अपने आप में ही चौंकाता है। साथ ही प्रदेश में 2017 से भाजपा की सरकार है और पूरा सरकारी तंत्र भाजपा के आधीन होने बावजूद फर्जी मतदाता सूची बनाई जा सकती है तो सरकार पर ही गम्भीर सवाल खड़ा होता है। साथ ही राज्य निर्वाचन आयोग की भूमिका पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं जिनके तमाम दावांे के बावजूद 2018 से करीब 5 फीसदी कम वोट पड़े। इसका एक बड़ा कारण मतदाता सूचियों में भारी गड़बड़ी को भी माना जा रहा है।कांग्रेस पार्टी ने निकाय चुनाव में राज्य निर्वाचन आयोग को पूरा फेल माना है। पार्टी प्रवक्ता गरिमा माहरा दसौनी का कहना है कि महज 30 लाख मतदाताओं के वोट के मामले में ही सरकार और राज्य निर्वाचन आयोग फेल हुआ है तो अगर पूरे प्रदेश के चुनाव होंगे तो स्थितियां किस कदर बदतर होंगी इसको आसानी से समझा जा सकता है।
‘एक देश एक चुनाव’ की बात करने वाली भाजपा यह बताए कि महज 30 लाख मतदाताओं के निकाय चुनाव में ही भारी गड़बड़ियां हुई हैं तो किस आधार पर ‘एक देश एक चुनाव’ सम्पन्न होंगे? लोकसभा-विधानसभा चुनाव में भी ऐसा देखने को मिल चुका है लेकिन निकाय चुनाव में तो बद से बदतर हालात राज्य निर्वाचन आयोग और सरकारी तंत्र के देखने को मिले हैं। हजारों लोगों के नाम वोटर लिस्ट से काट दिए गए जिससे वे अपना वोट नहीं दे पाए। मतदाता के सवैंधानिक अधिकारों का हनन राज्य निर्वाचन आयोग द्वारा किया गया जो कि एक अक्षम्य अपराध है। यह कोई गलती नहीं है यह एक अपराध है जिसकी सजा मिलनी ही चाहिए। कंाग्रेस पार्टी इस मामले को लेकर न्यायालय में जाएगी।
गरिमा माहरा दसौनी, मुख्य प्रवक्ता, उत्तराखण्ड कांग्रेस
बर्बाद गुलिस्तां करने को…
