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Uttarakhand

नए नेतृत्व को आगे लाने का समय

कांग्रेस अभी उत्तराखण्ड में अपनी चुनावी हार से उबरी भी नहीं कि नेताओं की आपसी कार एक बार फिर से सतह पर उभरने लगी है। पुराने नेताओं के मध्य अविश्वास की खाई को पाट पाने में पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व पहले भी विफल रहा है, आगे भी ऐसा होता संभव नजर नहीं आता। ऐसे में अब समय आ गया है कि प्रदेश कांग्रेस को युवा नेतृत्व के हवाले किया जाए। इसकी शुरुआत नेता प्रतिपक्ष के चुनाव से की जानी चाहिए ताकि पुरानों की अदावत से दूर संगठन की मजबूती का नया अध्याय शुरू हो सके

उत्तराखण्ड की राजधानी देहरादून में इक्कीस मार्च को जहां एक ओर भारतीय जनता पार्टी मंथन के बाद उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री को चुनने के अंतिम क्षणों की बैठकें कर रही थी वहीं दूसरी तरफ राजधानी के कांग्रेस मुख्यालय राजीव भवन में विधानसभा चुनावों में पराजित सेना के तथाकथित योद्धा कांग्रेस की पराजय के कारण ढूंढ रहे थे। इसमें खास बात ये थी कि जिन्हें राहुल गांधी ने उत्तराखण्ड में कांग्रेस को जिताने और अच्छे प्रत्याशियों के चयन का जिम्मा सौंपा था वहीं उत्तराखण्ड प्रभारी देवेंद्र यादव और प्रत्याशियों के चयन हेतु बनी स्क्रीनिंग कमेटी के चेयरमैन अविनाश पाण्डे कांग्रेस की पराजय के कारणों को खोजने आए थे। जब हरीश रावत इन्हें ‘नाड़ी वैद्य’ की संज्ञा देते हैं तो समझ आता है कि इस समीक्षा करने वाली समिति की गंभीरता क्या है? अड़तालीस घंटों से भी कम समय में सत्तर विधानसभा क्षेत्रों की समीक्षा की औपचारिकता के साथ देवेन्द्र यादव और अविनाश पाण्डे ये लव्वोलुआब निकाल लेते हैं कि साम्प्रदायिकता के आगे विकास हार गया। कांग्रेस के प्रदेश संगठन से जुड़े एक पदाधिकारी का कहना है विधानसभा चुनावों में जो हार के कारणों में से एक थे आज उन्हें ही आलाकमान पराजय के कारणों की समीक्षा करने भेजता है तो ये वही कहावत को चरितार्थ करता है ‘मुजरिम भी वही और मुसिफ भी वही।’ आठ सीटों का इजाफा और कांग्रेस के मत प्रतिशत बढ़ना जैसी बातें करना सामने साफ लिखी इबारत को पढ़ने से मुंह चुराने से अधिक कुछ नहीं है क्योंकि कांग्रेस के नेताओं को पता है कि माइक्रो लेवल पर हार की समीक्षा हुई तो इसकी जद में कई दिग्गज नेता आ जाएंगे।

उत्तराखण्ड विधानसभा चुनावों के परिणामों के बाद कांग्रेस के सामने एक बड़ा सवाल मुंह बाये खड़ा है कि आगे की राह क्या? क्योंकि आने वाला वक्त कांग्रेस के लिए किसी अग्नि परीक्षा से कम नहीं है। एक सवाल पार्टी के अंदर ये भी उठ रहा है कि पार्टी के पुनरुद्धार की जिम्मेदारी आने वाले समय में उन्हीं हाकिमों के ऊपर होगी जो आज कांग्रेस की इस दुर्दशा के लिए जिम्मेदार है या फिर पार्टी कठोर निर्णय लेकर अनुभवी और युवा नेताओं का समन्वय बना कांग्रेस को मजबूत करने कि दिशा में आगे बढ़ेगी? कांग्रेस की उत्तराखण्ड में हार इस बात को रेखांकित करती है कि कांग्रेस को अगर अपनी राजनीतिक जगह फिर से हासिल करनी है तो पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व को एक स्पष्ट दिशा लेनी पड़ेगी। आज जब हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए गणेश गोदियाल अपने पद से इस्तीफा दे चुके हैं और नया नेता प्रतिपक्ष चुना जाना है। ऐसे में असमंजस तोड़ कांग्रेस शीर्ष नेतृत्व में अगर इच्छाशक्ति हो तो वो उत्तराखण्ड में पार्टी के लिए एक नई दिशा तय कर सकता है। इस चयन प्रक्रिया में उसे अपनी ‘गुड बुक’ के नेताओं का मोह छोड़ जनता की ‘गुड बुक’ में रहे व्यक्ति को तरजीह देनी होगी। प्रदेश अध्यक्ष के रूप में प्रीतम सिंह का साढ़े चार साल का कार्यकाल ज्वलंत उदाहरण है। हाईकमान की ‘गुड बुक्स’ में रहा व्यक्ति जरूरी नहीं जन अपेक्षाओं में भी खरा उतरे।

कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी समस्या उसका संगठनात्मक ढांचा है। कांग्रेस और भाजपा के संगठनात्मक ढांचे की तुलना करें तो जहां भाजपा का संगठन बूथ स्तर तक मजबूत है वहीं कांग्रेस संगठन का आधारभूत ढांचा सिर्फ कागजों पर है। उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद कांग्रेस के संगठन पर नजर डालें तो राज्य का पहला चुनाव हरीश रावत की अगुआई में लड़ा गया। भले ही हरीश रावत मुख्यमंत्री नहीं बन पाए हो लेकिन संगठन पर उन्होंने सरकार को हावी नहीं होने दिया और संगठन पूरे पांच साल सक्रिय रहा। 2007 में यशपाल आर्या अध्यक्ष बने और पूरे 2007-14 तक पूरे सात साल प्रदेश अध्यक्ष रहे। 2012 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने यशपाल आर्या के अध्यक्ष रहते चुनाव मैदान में उतरी थी। 2009 के लोकसभा चुनाव में उत्तराखण्ड की पांचों सीटें कांग्रेस ने जीती थीं। 2014 में मोदी लहर के चलते कांग्रेस प्रदेश में पराजित हो गई थी। 2014 में विजय बहुगुणा के बाद हरीश रावत के मुख्यमंत्री बनते ही प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय को बना दिया गया। 2017 के विधानसभा चुनाव में पराजय के बाद प्रीतम सिंह पर राहुल गांधी ने भरोसा जताया और किशोर उपाध्याय को हटाकर उन्हें प्रदेश संगठन की कप्तानी सौंपी। प्रीतम सिंह ने अपने साढ़े चार साल के कार्यकाल में कांग्रेस के संगठनात्मक आधार को मजबूत करने के लिए कुछ नहीं किया। ढाई साल तक अपनी कार्यकारिणी का वो गठन नहीं कर सके और हरीश रावत के विरोधियों को साथ लेकर संगठन को मजबूत करने के बजाय गुटबाजी में मशगूल रहे। 2019 का लोकसभा चुनाव, 2022 के विधानसभा चुनाव की हार पार्टी अध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष के तौर पर उनके खाते में दर्ज हो चुकी है।

2022 के विधानसभा चुनावों की हार के बाद प्रदेश अध्यक्ष गणेश गोदियाल के अलावा कोई नेता हार की जिम्मेदारी लेने आगे नहीं आया है। 2022 के विधानसभा चुनावों की पराजय के बाद नेताओं की लड़ाई विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष और प्रदेश अध्यक्ष के लिए शुरू हो चुकी है। हरीश रावत के करीबी धारचूला से विधायक चुने गये हरीश धामी नेता प्रतिपक्ष पर अपनी दावेदारी जता रहे हैं वहीं बद्रीनाथ से चुनकर आए राजेंद्र सिंह भंडारी का दावा भी नेता प्रतिपक्ष पर है। ऐसे में निवर्तमान नेता प्रतिपक्ष प्रीतम सिंह की दावेदारी पर परेशानी खड़ी हो सकती है। खासकर प्रदेश प्रभारी देवेन्द्र यादव जिस प्रकार प्रदेश नेताओं के निशाने पर हैं उससे भी प्रीतिम सिंह की परेशानियों में इजाफा हो सकता है। कांग्रेस पार्टी के अंदर सवाल उठ रहे हैं कि जब छह महीने के अध्यक्ष गणेश गोदियाल की जवाबदेही तय हो सकती है तो फिर पूरे साढ़े चार साल प्रदेश अध्यक्ष और छह माह तक नेता प्रतिपक्ष रहे प्रीतम सिंह जवाबदेही से मुक्त क्यों? अब जब हरीश रावत चुनाव हार चुके हैं। उत्तराखण्ड चुनावों ने कांग्रेस की बड़ी बीमारी की ओर इशारा किया है ‘मजबूत क्षेत्रीय नेतृत्व का अभाव’। हरीश रावत, दो कार्यकारी अध्यक्ष, प्रदेश अध्यक्ष सहित कई बड़े नेताओं की हार के बाद मुश्किल में आई कांग्रेस के पास ऐसा बड़ा नेता प्रदेश में नजर नहीं आता जो ओजस्वी हो और भीड़ जुटाने की क्षमता रखता हो। इस परिस्थिति में कांग्रेस के लिए संतुलन के साथ आगे बढ़ने का कोई विकल्प नहीं है। थोड़ी-सी चूक कांग्रेस के अंदर बिखराव पैदा कर सकती है। यशपाल आर्या, प्रीतम सिंह, भुवन कापड़ी, हरीश धामी, राजेन्द्र सिंह भंडारी, सुमित हृदयेश, मयूख महर, मनोज तिवारी जैसे चेहरे कांग्रेस के अंदर नजर आते हैं जो कांग्रेस को मजबूती दे सकते हैं।

प्रदेश अध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष के चयन में पार्टी को युवा एवं अनुभव, जातिगत समीकरण, क्षेत्रीय समीकरणों को साधते हुए जमीनी हकीकतों को भी ध्यान में रखना होगा। हालांकि छह माह में किसी नेता के कौशल की परीक्षा नहीं हो पाती। इससे अगर गणेश गोदियाल फिर से अध्यक्ष बनते हैं तो विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष के तौर पर यशपाल आर्या की मजबूत दावेदारी हो सकती है। इससे दलितों के एक वर्ग में बड़ा संदेश जाएगा। यशपाल आर्या के 2007 से 2014 तक के अध्यक्षीय कार्यकाल को देखे तो उसमें सफलता का प्रतिशत अच्छा खासा है। 2009 के लोकसभा चुनावों में पांचों सीटों पर जीत, 2012 के चुनावों में कांग्रेस की वापसी और निकाय और पंचायत चुनावों में कांग्रेस की जीत की उपलब्धि उनके खाते में दर्ज है।
सफलतापूर्वक सात साल तक संगठन का अनुभव और जमीनी स्तर तक कार्यकर्ता से पहचान और संवाद उनके राजनीतिक जीवन की पूंजी है। खस्ताहाल कांग्रेस संगठन को उस नेता की आवश्यकता है जो कांग्रेस के जमीनी कार्यकर्ता से संवाद कर उसे कांग्रेस संगठन के लिए प्रेरित करे। इस वक्त कांग्रेस को जरूरत अपने विधानसभा क्षेत्र तक सीमित नेताओं की नहीं, बल्कि जो संगठन में निचले स्तर तक पैठ रखते हो उन नेताओं को आगे लाने की आवश्यकता है। यशपाल आर्या ने अपनी संगठनात्मक क्षमता को सिद्ध भी किया है। कांग्रेस के एक नेता का कहना है इस वक्त ठाकुर- ब्राह्मण, गढ़वाल-कुमाऊं की विभाजक राजनीति जिसे संतुलन साधना भी कहा जाता है से दूर रहकर कांग्रेस को जमीनी वास्तविकताओं की ओर ध्यान दे निर्णय लेने होंगे। नेतृत्व और पार्टी के लिए ये बड़ा संक्रमण का दौर है जिससे उभरने के लिए व्यवहारिक निर्णय लेने की दरकार है।

2024 का लोकसभा चुनाव और निकाय और पंचायत चुनावों के मद्देनजर कांग्रेस को अपने ऐसे चेहरों को आगे लाना होगा जो 2027 के चुनावों तक कांग्रेस संगठन का मजबूत आधार तैयार कर सके। कांग्रेस नेताओं के पास आने वाले वर्षों में संगठन मजबूत करने की चुनौतियों को स्वीकार करने के अलावा कोई चारा भी नहीं है। ऐसे में सभी धड़ों को साथ लेकर चलने वाले प्रदेश अध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष का चयन प्रदेश में कांग्रेस की दशा- दिशा तय करेगा। हालिया संपन्न विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का फोकस त्रिवेंद्र रावत का मुख्यमंत्रित्वकाल और भाजपा का बार-बार मुख्यमंत्री बदलना रहा। लेकिन भाजपा की रणनीति ने उसके अरमानों को ध्वस्त कर दिया। कांग्रेस को सबक लेना होगा कि जनता अगर सत्ता पक्ष की नाकामियों का आकलन करती है तो विपक्ष का भी हर दृष्टि से मूल्यांकन करती है ऐसे में जनता के सामने उसे ऐसे मजबूत प्रदेश अध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष देने होंगे जो जनता का भरोसा जीतने में सक्षम हों।

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